भाई-बहन के अंतस की पीड़ा को उजागर करता है यह लोक पर्व….
(मनोज इष्टवाल)
लोक परम्पराओं और तीज त्यौहारों की अगर बात की जाय तो पूरे विश्व में अपने भारत बर्ष से अधिक शायद ही कोई तीज त्यौहार होंगे। इनमें देवभूमि के लोक संस्कार, संस्कृति की मिठास तो अद्भुत है क्योंकि यहाँ के जनमानस में प्रचलित मेले कौथिग व तीज त्यौहार आपसी प्यार प्रेम भाई चारे के सुखद संदेशों के साथ यहाँ की माँ-बहनों के मातृत्व प्रेम से जुडी अदभुत गाथाओं का एक सुनहरा इतिहास कहा जा सकता है।
माँ नंदा के मायके गढ़-कुमाऊँ में बहनों से जुड़ा चैत्र मास उनकी यादों वायदों के लम्बे वृत्तांत की गवाही देता हुआ यहाँ की परम्पराओं को संजोने का मूल्यवान महिना है। बसंत के आगमन पर आकुल ब्याकुल बेटी चाहे विदेश की धरती हो या फिर किसी भी संभ्रात परिवार में रहकर सुख भोग रही हो, अगर उसने गढ़-कुमाऊ की धरती पर जन्म लिया होगा तो ऐसा कभी हो ही नहीं सकता कि वह अपने गॉव के बसंत में खिलने वाले फूलों को भूल जाए या फिर खेतों में पीली-पीली सरसों के फूलों की वह भूल जाएँ।
सच कहें तो इस मातृभूमि की माटी की बात ही कुछ और है अगर ऐसा नहीं होता तो लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी की इस रचना से माँ बहनें आज भी अपने मायके को याद कर आँखों से अश्रु मोती न बहाते:-
हे जी सार्यूं मा फूली ग्ये होली फ्योंली-लयेडी मैं घौर छोड्यावा -2 हे जी घर-बौण बौडी ग्ये होलु बाळू-बसंत मैं घौर छोड्यावा हेजी सार्यूं मा फूली ग्ये होली……
आयूँ होलू फुलार हमारा सैन्त्या आरु-च्वोलों मां
होला चैती पसरु मांगणा औजी खोळा-खौलों मां
ढक्याँ द्वार-म्वोर देख्यि की फुलारी खौल्यां ह्वोला,
मैं घौर छोड्यावा
हे जी सार्यूं मा फूली ग्ये होली…..
ह्वोली घिनुडी-घुघूती रगरर्याणी रीता चौक-उर्ख्याळा मां
कुकुर टपराणु ह्वोलु द्येलि मां बिराळी बाड़ी-धुर्पळा मां
पाल्यां मारा भी छोड़ी की जळोटा उड़ि ग्ये ह्वोला, मैं घौर छोड्यावा
हे जी सार्यूं मा फूली ग्ये होली….
न उनु धर्म्याळू आगास न ऊनि मयाळू यखे धरती
अजाण-औखा छन पैंडा मनखि अणमील चौतरफी
चुचौं चखुला भि डाळा-ब्वौटा भि उपरी यखा, मैं घौर छोड्यावा
हे जी सार्यूं मा फूली ग्ये होली….
रौंदा तुम ड्यूटी सैरा दिन मी यखुली भमाण क्वार्टरु मां
न क्वी छ्वीं-बात ना धै-धवाड़ी, ढक्याँ छन द्वार घरु-घरु मां
छि भै ये निरभै परदेश मा तुम रौणा त रा मैं घौर छोड्यावा
हे जी सार्यूं मा फूली ग्ये होली फ्योंली लयेडी मैं घौर छोड्यावा
हे जी घर-बौण बौडी ग्ये होलु बाळू-बसंत मैं घौर छोड्यावा
हे जी सार्यूं मा फूली ग्ये होली….
(हे जी (पतिदेव) खेतों में फ्योंली के फूल व सरसों के फूल आ गयें होंगे, मुझे घर छोड़ आओ. हेजी बालपन की बसंत मेरे घर आ गया होगा मुझे घर छोड़ आओ)
यह अनुनय विनय सिर्फ वही पहाड़ की बेटी शहरों में रहकर अपने पति से कर सकती है जिसने इस देवभूमि की धरा को सच्चे ह्रदय से जिया हो लेकिन भिटोली की याद तो हर उस बहन को आती ही है जिसका भाई हो या जिसका भाई न हो।
कहा जाता है कि कोयल की कूंक जब बौराई आम, पीपल के बीच से ससुराल में रह रही बेटी को सुनाई देती है तब वह बेहद आकुल हो उठती है। उसके आंसू निकलने लगते हैं और हृदय से गुब्बार फूट पड़ता है। यही कूंक जब एक भाई सुनता है तो उसके ह्रदय में भी अपनी बहन से मिलने की बेहद आकुलता होती है। यही कूंक जब माँ या पिताजी सुनते हैं तो उनके हृदय में बेटी के बचपन से लेकर विदाई तक के सारे सपने तैरने लगते हैं।
हिमालयी उच्च शिखरों में अवस्थित गॉव जहाँ कोयल नहीं बोलती या जहाँ आम नहीं होती वहां मेल्वाड़ी, कफू, घुघूती आदि इस माह अपने करुण क्रंधन से बहनों व भाइयों के ह्रदय में प्रेम की वह आस जगाते हैं जो उन्हें बंधनों में बांधकर अपने होने का अहसास दिलाते हैं।
भिटौली में अगर सबसे ज्यादा तरस किसी पर आता है तो वे वो बेटियाँ हैं जिनके भाई नहीं हैं या फिर जिनके मायके में माँ बाप भी जीवित नहीं हैं. कुमाऊँ में भिटौली पर हर बेटी को लेने उसका भाई पूर्व में उसके मायके जाया करता था आज भी यह परम्परा है।
भिटौली पर बेटी के लिए चावल का हलवा घी में पकाकर देने का प्रचलन था. जो आज भी कई जगह यथावत है. तरह तरह के पकवान व कपडे देकर बेटी को मायके से ख़ुशी ख़ुशी विदा करने की यह परम्परा माँ नंदा के कैलाश गमन से अब तक निरंतर चलती आ रही है। बेटियाँ ससुराल विदा होती हैं तो अपने मायके से बहुएं घर लौटती हैं। भले ही इस परम्परा में अब ग्रहण लगना शुरू हो गया है, क्योंकि बेटी व बहु सभी अपने संकुचित परिवार के साथ शहरों में रह रही हैं तब वहां इन परम्पराओं का विधिवत निर्वहन होना कहाँ संभव होता है अब अगर वे मायके जा भी रही हैं तो वहीँ से अपने शहर का रास्ता पकड़ लेती हैं लेकिन आज भी गॉव उन बेटियों के क़दमों की थाप सुनने को बेताब हैं जो उनके आँगन में खेली कूदी, जिन्होंने ओखल में खूब धान झंगोरा कूटा। आज भी उन चौखटों की मोरियाँ रोती हैं, जिनसे मुंह निकालकर ये चाँद सी बेटियाँ पिछौडा नथ का श्रृंगार कर अपने रूप यौवन को तरोताजा करती थी. आज भी वे खेत खलिहान रोते हैं.. जहाँ साजे की रोटी बांटकर खाने वाली इन बेटियों के अट्टाहास/किलकारियां गूंजा करते थी, और उन अट्टाहासों/किलकारियों को सुन बुरांस खिलखिलाकर हंस देता था। फ्योंली के फूल शरमाकर और प्रफुल्लित हो उठते थे, सरसों खिलखिलाकर उनके चेहरे की खूबसूरती से प्रतिस्पर्दा करने लगने थे। भंवरें पक्षी अपना कलरव कर उनका मनोरंजन करते थे, मानो बसंत पर कोई राग छिड़ गया हो और श्रृंगार रस छलककर प्रकृति की खूबसूरती का बखान कर रहा हो।
आखिर ऐसा शुकून देने वाला अपना पहाड़ी वैभव कहाँ हाशिये पर आया और क्यों ..?
एक ऐसी बेटी जिसका मायका सिर्फ एक स्वप्न सा हो..!
जौंका होला भाई मैत्यु बुलाला झुमेलो,
निरमैत्या ध्याण ब्वे बाटू हैरली झुमेलो…
बचपन सचमुच कितना मासूम होता है और वह और मासूम तब होता है जब उसकी यादों के साथ कुछ ऐसे इत्तेफाक जुड़े हों जिसकी पीड़ा हर समय आपको सालती हो। ऐसा ही इत्तेफाक हमारी एक बहन (सम्मा दीदी) से भी जुड़ा है। वह शायद तब माँ की गोद में थी जब काल के ग्रास ने उनके पूरे परिवार को नष्ट कर दिया। हुआ यूँ कि बरसाती दिनों में जंगली मशरूम खाने से हमारी फूफू फूफाजी उनके बेटे सभी की मौत हो गई। सम्मा दीदी इसलिए जीवित बची क्योंकि वह तब दूधमुन्ही थी। ऐसे में रोते बिलखते मेरे चाचा ताऊ व पिताजी फबसूला गॉव पहुंचे जहाँ मेरी फूफू की ससुराल थी. सब की चिताओं को आग देकर सम्मा दीदी को लेकर गॉव आ गए. सम्मा दीदी का लालन-पालन पूरा परिवार विशेषरूप से करता था तब संसाधन कम थे, लेकिन प्यार प्रेम के कई अटूट बन्धनों पर निहित परिवार की नींव हुआ करती थी। दिन दूनी रात चौगुनी सुंदर होती मासूम सी सम्मा दीदी की मासूमियत को मैंने शादी के कई सालों तक देखा था। तब मेरी दूसरी फूफू नंदा जो थापली के नैथानी परिवार में थी उनके इकलौते बेटे विजय नैथानी भी हमारे गॉव से पढ़ा करते थे. सम्मा दीदी और विजय भाई साहब दोनों में भाई बहन का ऐसा प्यार था जो आज तक नहीं मिटा। मेरी दोनों बहनें राधा रानी तब छोटी हुआ करती थी लेकिन वो बताती हैं कि विजय भाई साहब बचपन में उन तीनों को कंधे में ले जाकर कहा करते थे- “लूण ले ले ..हग्गा हग्गा”..
खैर फिर वह दिन भी आया जब सम्मा दीदी अपने ससुराल सान्गुडा पहुंची ..उनके पति यानी हमारे जीजा जी जयानंद जी भी फ़ौज में रहे अब सेवानिवृत हो गए हैं। तब मेरी उम्र मुश्किल से 8-10 साल रही होगी. यानी मासूमियत भरी …जब जीजा जी सम्मा दीदी को लेने व छोड़ने मेरे गॉव आया करते थे व मुझे हर बार दो रुपये का कडक नोट देकर जाते थे।
दो रुपये यानी बहुत बड़ी अमाउंट होती थी उस जमाने में….
दीदी जब ससुराल से आती थी तब भी बिलख-बिलख कर रोती थी और जब जाती थी तब भी बिलख-बिलख कर रोती थी। माँ बाप भाई बहनों की उसे याद ही कहाँ थी, लेकिन बेटी का दिल माँ बाप की स्मृति के लिए कैसे छटपटा रहा होता है यह एक बेटी का ह्रदय ही जान सकता है।
मुझे यह कहानी पिताजी ने बहुत बचपन से बता दी थी और साथ ही कहा था बेटे मैं कल रहूँ न रहूँ तू अपनी बहनों को बुला सके या न बुला सके लेकिन सम्मा को कभी मत भूलना उसे हर बर्ष बुलाकर दौण-कंडी के साथ विदा करना ताकि वह बुढापे तक यह महसूस न करे कि उसके मामा नहीं रहे तो सबने उसे भुला दिया..हम सबने उसे नाजों से पाला है।
स्वाभाविक है वो क्षण मुझे अभी भी याद आ रहे होंगे…तो आँखें सजल हो रही होंगी. आप भी यह महसूस कर सकते हैं।
सम्मा दीदी जब ससुराल जाती थी तब हम बेरीधार तक उसे छोड़ने जाते थे। आज सम्मा दीदी सर्व-सम्पन्न है लेकिन नाती – पोतों वाली व शहर की चकाचौँध में रहने के बावजूद भी वह आत्मीय रिश्ते न भुला पाई न हम ही सम्मा दीदी को भूल पाये। हर कार्य में सम्मा दीदी हम सबके मध्य होती हैं व जब भी वह दिखती हैं, मुझे अपने स्वर्गीय पिता जी के बोल व छवि आँखों में दिखाई देती है। मानो कह रहे हों बस यूँ ही दिशा-ध्याण दिखती रहें.. आपस में मिलती रहें।
भिटौली की ऐसी यादों को संजोने के लिए भिटौली मनाती उन बेटियों माँओं भाइयों को हृदय से नमन करने को मन होता है जो उन लोक त्यौहारों परम्पराओं उत्सवों को वर्तमान तक जीवित रख चिरायु बनाए हुए हैं। धन्य है यह धरा जिसने हमें प्रेम के ऐसे अंकुर बोने के संस्कार दिए हैं।