Friday, February 7, 2025
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भंगरौ” जिसके लिए नैथानी व जखमोलाओं की तीन पीढ़ी खप्प गयी मुकदमेबाजी में।

(मनोज इष्टवाल)

अतीत कभी नहीं छुपता और न ही अतीत के चिह्न! कहा तो यही जाता है कि जिस “ईडा बिचला (नैथानियों का क्वाठा)” के रेंजर नैथानियों की ये हवेलियां ब्रिटिश काल में अंग्रेज अफसरों के लिए ठहरने का माध्यम होता था व जिनकी हवेलियों पर आज भी अंग्रेजी में नेम प्लेट व हाउस नम्बर खुदे हैं आज वे सभी नैथानी परिवार कोटद्वार भावर क्षेत्र में कहीं गुमनाम जैसी जिंदगियाँ जी रहे हैं। गुमनाम इसलिए नहीं कि उनके पास धन संपदा नहीं बल्कि इसलिए कि वे शहरी मालदारों में कहीं खप्प से गये हैं। जिन ईडा के नैथानियों का बर्चस्व कभी पूरे गढवाल ही नहीं बल्कि तराई भावर से लेकर अल्मोड़ा कुमाऊं तक हुआ है आज उस ईडा गांव के किसी एक वाशिंदे तक को इस क्षेत्र के लोग बमुश्किल उसके नाम से जानते हैं।

दैवयोग देखिये जिस गांव की बसासत में शानदार नक्काशीदार हरे पत्थर की आलीशान हवेलियां बनी आज वही गांव भूतवा गांव बना हुआ है। सच माने तो वैदिक कालीन मालिनी नदी घाटी क्षेत्र के इस हरे रंगत वाले पत्थर को पहली पहचान ईडा गांव के रेंजर नैथानियों ने ही दी थी। इस गांव तक पहुंचने के लिए आपको कोटद्वार से सड़क मार्ग के रास्ते रामणी-पुलिंडा-भरपूर-बल्लीकांडई से मथणा तक सड़क मार्ग होकर आना होगा। या फिर कण्वाश्रम चौकिघाटा से लालपुल होकर, मालिनी नदी के उद्गम की ओर बढ़ते हुई ईडा गाड़ से गांव पहुंचना होगा। यह मार्ग कभी डिस्ट्रिक्ट बोर्ड की सड़क हुआ करती थी जो अब मात्र सहसिक ट्रैकर्स के लिए माकूल है। वैसे आप शून्य शिखर होकर भी यहां पहुंच सकते हैं।

बड़ी हवेलियां।

यहां की बड़ी बड़ी हवेलियों में आठ से दस कमरे मामूली बात है। तिबारी, पत्थरों-फटालों से निर्मित चौड़ी छज्जा, छज्जा के नीचे लगी पत्थर की चखुलियां, सुंदर तराशे गए 6 इंच से लेकर डेढ़ फीट तक हरे रंगत के पत्थर, नब्वे अंश पर क्वाडा यहां की लाजवाब काष्ठ व पाषाण कला के राजमिस्त्रियों के अभिनव योगदान का प्रतीक है। तभी तो बर्षों से बंजर पड़े इन घरों को गर्मी सर्दी बरसात से तिल भर भी नुकसान नहीं हुआ है।

यह अकाट्य सत्य है कि पहाड़ से सबसे पहले पलायनवादी ब्राह्मण समाज ही रहा है जिसके वंशजों ने शिक्षा दीक्षा जल्दी ग्रहण की व मैदानी भूभागों में जाकर सरकारी नौकरियां, ग़ैरसरकारी नौकरियां करनी शुरू की। अपनी निजी सुख सुविधा के लिए परिवार साथ लेकर गए तो फिर 30 से 50 फीसदी परिवार वहीं के रैबासी हो गए। उत्तराखण्ड राज्य निर्माण के बाद एक स्वप्न पैदा हुआ था कि ये सब रिवर्स माइग्रेशन करेंगे लेकिन हुआ ठीक उल्टा। राज्य निर्माण के बाद नौकरीपेशा लोग जो पहाड़ों में भी सरकारी नौकरियों पर थे अपना बोरिया बिस्तर उठाकर मैदानों में जा बसे जिसका नतीजा यह निकला कि 90 से 95 प्रतिशत नौकरीपेशा लोग पहाड़ को उसकी संस्कृति को व गांवों को बेजान व वीरान कर गए।

इस गांव में धूप कितनी देर आती है और कितनी देर ठहरती है यह जानने के लिए हमें एक रात इसी गांव में गुजारनी होगी। यह भावर क्षेत्र के जलवायु के हिसाब से बेहद सोच समझकर रचा बसा गांव कहा जा सकता था, जहां न ज्यादा ठंड होगी न ज्यादा गर्मी। फिलहाल यह गांव भूतवा हो गया है। कई साहसिक पर्यटन की गतिविधियों को संचालित करने वाले मित्र चाहते हैं कि यह गांव उन्हें लीज पर मिल जाये लेकिन इसके असली वारिसान को ढूंढे तो कहां ढूंढे यह उन सबकी दिक्कत है। आइये जानते हैं इतिहास की गर्त में उस मुकदमें के सम्बंध में जिसने नैथानियों की तीन पीढियां खफा दी।

नैथानियों की तीन पीढियां लड़ती रही “भंगरौ तोक” पर मुकदमा।

आज पूरा भंगरौ तोक बंजर है, सिर्फ ये तोक ही नहीं बल्कि ईड़ा तल्ला गांव भी…! जहां के सम्भ्रान्त ब्रिटिश काल में रेंजर नैथानियों की तूती पूरे क्षेत्र में बोलती थी।

यह प्रसंग विकास खण्ड दुगड्डा पौड़ी गढ़वाल के उस चरेख क्षेत्र की गोद में बसे मथणा गांव का है जो सतयुगीन ही नहीं बल्कि आज से 500 बर्ष पूर्व लगभग 16वी-17वीं सदी तक ‘धान का कटोरा व गेंहूँ का खलिहान” के रूप में प्रसिद्ध था। इस क्षेत्र में चरेख ऋषि ने जड़ीबूटी के अखंड भंडार का पता लगाया था। यहीं पास में पटरण भरतखोली है जिसे महाब गढ़ के थोकदार भँधौ असवाल की पटरानी का निवास स्थल व सतयुग काल में शकुंतला पुत्र भरत का सिंघणी के बच्चों के साथ खेलने का स्थान माना जाता है।

मथणा गांव सतयुगीन नदी मालन के बांये हाथ में बसा है जिसके दांयें छोर पर ऋषियों की तपोस्थली महाबगढ़ गढ़, मेनकाश्रम मईड़ा/मैडा/महेड़ा, रानियों का निवास स्थल रणेशा व बिल्कुल सामने शकुंतला दुष्यंत का प्रथम मिलन स्थान बिस्तर काटल, शकुंतला पुत्र चक्रवर्ती राजा भरत का जनस्थान भरतपुर, गांव के उत्तर में दांयी ओर शकुंतला का जन्मस्थल सौंटियालधार , गांव के चरण पादुका क्षेत्र में मालन पार पोखरीधार इत्यादि स्थान प्रमुख हैं।

वैसे तो यह क्षेत्र मेरे लिए ज्यादा अपरिचित नहीं है लेकिन सच कहूं तो मथणा गांव व इसके आस पास के कुछ प्रमुख स्थानों से मैं बंचित रह गया था।

विगत 19 मई की पूर्व चीफ वाइल्डलाइफ वार्डन श्रीकांत चँदोला  का फोन आया था कि वे चरेख क्षेत्र के मथणा गांव में कुछ उद्यानीकरण व नवीन तकनीकी कृषिकरण पर कुछ हटकर काम करने की सोच रहे हैं, क्या हम वहां जाकर धरातलीय स्तर पर उसकी समीक्षा कर सकते हैं। मेरे साथ मेरा युवा भांजा संचित झलड़ियाल जा रहे हैं। मैं बोल पड़ा-सर आपका सानिध्य मिलेगा इससे अधिक और चाहिए भी क्या।

आज सुबह लगभग 6 बजे हम देहरादून से मथणागांव के लिए निकल पड़े, हरिद्वार एंट्री बैरियर पर पुलिसकर्मियों द्वारा एंट्री पास चेक करना व जगह जगह तलाशी, नजीबाबाद से पूर्व नहर वाले रास्ते पर पुलिस बैरियर इत्यादि ने आत्ममुग्धता इसलिए बढा दी क्योंकि ये खाकी के जवान जाने कब सोए होंगे कब जागे होंगे, इन्होंने कुछ ब्रेक फास्ट किया भी होगा कि नहीं। यहां इन्हें चाय की व्यवस्था रही भी होगी या नहीं ऐसे कई खयाल इस संक्रमणकाल से गुजरते हुए चलचित्र की भांति जेहन में कूद रहे थे। सच कहूं तो हम पुलिस के इस सेवाभाव पर कभी अपना सही दृष्टांत नहीं रख पाते। लेकिन आज मैं आत्ममुग्ध इसलिए था कि इस खाकी के प्रति आदरभाव ज्यादा ही हो गया था।

नहर रास्ते में ही गढ़वाल ढावे के पास गाड़ी साइड लगाकर संचित ने टिपिन खोला व उसमें गर्मागरम पूड़ियां व आलू भाजी व थर्मस पर रखी चाय उड़ेली। भूख तो लग ही गयी थी। झप्पाझप चार पूड़ियां आलू भाजी, अचार, हरीमिर्च नीम्बू के साथ झपा-झपा खाई और पेट भरने के बाद उस माँ गृहस्वामिनी को मन ही मन आशीर्वाद दिया जिसके सुकोमल हाथों से बने पकवानों ने उदर भूख शांत की।

बहरहाल यात्रा वृत्त की यह कड़ी यही खत्म करके आगे बढ़ते हैं। और पहुँचते हैं मथणा गांव..! इसी के एक तोक पर चर्चा के दौरान यहां के पूर्व प्रधान विवेक शरण जखमोला बोले- इष्टवाल साहब, हम आधी खेती बंजर होने पर सिर्फ मन की पीड़ा व्यक्त कर रहे हैं लेकिन उन्होंने कितने कष्ट झेले होंगे इस खेती जमीन के लिए जिनकी तीन पीढ़ी मुकदमें झेलती खप्प गयी। ब्रिटिश काल में यहां से अलाहाबाद हाई कोर्ट पेशी पर जाना साधारण बात नहीं रही होगी।

मेरी उत्सुकता बढ़ी व पूछा- ऐसा हुआ क्या और क्यों? उन्होंने अंगुली सीधी करते हुए करीब तीन से चार किमी दूर दिख रहे गांव ईड़ा तल्ला की तरफ इशारा करते हुए बताया कि वो आज मानव शून्य गांव है लेकिन ब्रिटिश काल में यहां के नैथानियों के पास अथाह धन दौलत हुआ करती थी। उन्ही में एक रेंजर नैथानी हुए जिन्होंने हमारे गांव भंगरौ तोक में अपनी जमीन होने का दावा किया व जोर जबरदस्ती वहां खेत बनाने शुरू कर दिए। उनके कामगार सुबह को खेत बनाते हमारे वंशज व गांव के लोग रात को उसे तोड़ आते। इस सबको देखकर उन्होंने कश्मीरी पठानों तक यहां डराने-धमकाने के लिए भेजे। यह बात हमारे गांव के बुजुर्ग बताते हैं लेकिन जब उसका भी कोई असर नहीं हुआ तब उन्होने हम पर इलाहाबाद हाई कोर्ट में मुकदमा कर दिया। हमारे पुरखे भी नहीं झुके, भले ही उनके बनस्पत हम पैंसे में कमजोर थे लेकिन हमारी पुरोहिती के ग्रामीण यजमानों ने उन्हें उन्हें वचन दिया कि वे सब मिलकर हाई कोर्ट का खर्चा उठाएंगे, चाहे जो हो जाय।

यह वचन तीन पीढ़ियों तक निभाया गया। बुद्धि चातुर्य में हमारे पुरखे पंडित अम्बादत्त जखमोला कम नहीं थे। उन्होंने हाइकोर्ट में हर पेशी में खड़े होकर मुकदमें की भरपूर पैरवी की। पंडित अम्बादत्त जखमोला स्वर्ग सिधारे उनके पुत्र पंडित महानंद फिर कोर्ट में हाजिर हुए बर्षों केस चलता रहा, देश आजाद हुआ व पंडित महानन्द भी भंगरौ तोक केस की बिना पूरी सुनवाई ही स्वर्ग सिधार गए उनके पुत्र भद्रमणी जखमोला ने फिर केस की पैरवी शुरू की व आखिर विजय मथणा गांव के जखमोला पण्डितों की हुई। कालांतर में वह ईड़ा गांव मानव शून्य हो गया हैं क्योंकि उनके वंशज कोटद्वार भावर क्षेत्र के किशनपुरी में जा बसे हैं।

नैथानियों के बारे में कहा जाता है कि उनकी अपनी सल्तनत हुआ करती थी। ईड़ा मल्ला, ईड़ा तल्लाईड़ा बिचला तीन गांव में बिचला में उनका भव्य क्वाठा (किला) हुआ करता था। कहते हैं उनके घरों की छत्त पर लगने वाला सिलेटी पत्थर की उस दौर में बड़ी चर्चा रहती थी।

रोचक प्रसंग के बाद जहन में यही आया कि मथणा गांव जिसे “धान का कटोरा व गेंहू का खलिहान” कहा जाता रहा है आज सैकड़ों एकड़ समतल जमीन जो लगभग 5 किमी के दायरे में फैली है का हश्र देखिए आधी से अधिक बंजर हो गयी है। जिस भंगरौ तोक की उपजाऊ जमीन के झगड़े में तीन पीढ़ियों खप्प गयी वहां जंगल उग आया है। सचमुच इस जमीन ने सब खाये जमीन को कोई नहीं खा पाया है। यह मेरा मानना है।

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35 बर्षों से पत्रकारिता के प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक व सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, पर्यटन, धर्म-संस्कृति सहित तमाम उन मुद्दों को बेबाकी से उठाना जो विश्व भर में लोक समाज, लोक संस्कृति व आम जनमानस के लिए लाभप्रद हो व हर उस सकारात्मक पहलु की बात करना जो सर्व जन सुखाय: सर्व जन हिताय हो.
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