70 बर्ष की उम्र में डॉ “चारण” हो गये थे लगभग अंधे। और… बेचना पड़ा वीर गाथा प्रकाशन।
(मनोज इष्टवाल)
यूँ तो सुप्रसिद्ध इतिहासविद्ध डॉ शिव प्रसाद डबराल “चारण” द्वारा लिखे हर शब्द अनमोल होते हैं लेकिन उनके संघर्षो से जुड़ी गाथाएं हम तक इसलिए नहीं पहुँचती क्योंकि हम उनके लिखे इतिहास को तो अंगीकार कर देते हैं लेकिन उनके अंतस से उपजी उस पीड़ा को पढ़ने में चूक जाते हैं जो उनके जीवन के हर पहलु का अकाटय सच है। “उत्तराखंड का इतिहास (10) -कुमाऊँ का इतिहास 1000 से 1790 ई0” के पृष्ठ अभी पलट ही रहा था कि उनकी लिखी भूमिका के पृष्ठ संख्या -06 पर नजर अटक गई। सच कहूं तो यह नजर अटकी नहीं बल्कि चिपक गई और जब यह सच पढ़ा तो आवाक रह गया। उनके ठेठ शब्दों में ये शब्द जितने बहुमूल्य लगे उसने एक नई प्रेरणा व ऊर्जा प्रदान की। जिस महान साहित्यकार के पास इंटर कॉलेज के प्रधानाचार्य पद से सेवानिवृत्ति के बाद भी 35000 रूपये पुस्तक छपवाने के लिए थे व जिसने पुस्तक छपवाने के लिए अपनी जमीन तक बेच दी, ऐसे मनुषि के लिए आपके पास शब्द हैं तो बताइये। जिनकी किताबों के रेफ़्रेन्स लेकर कई बड़े बड़े इतिहासकार कहलाये व सैकड़ों ने डॉक्टरेट की उपाधि हासिल की उनके अंतस के ये शब्द सचमुच दिल चीर देने वाले हैं। आप ही देख लीजिये :-
यात्येकतोऽस्तशिखरं पतिरोषधीना-
माविष्कृतोऽरुणपुरःसर एकतोऽर्कः ।
तेजोद्वयस्य युगपव्धसनोदयाभ्यां
लोको नियम्यत इवात्मदशान्तरेषु ॥4/2॥ (शाकुंतलम)
।। – शाकुन्तल ४/२
छ वर्षों तक सूरदास बने रहने के कारण लेखनकार्य रुक गया था। प्रकाशनकार्य में निरन्तर घाटा पढ़ने के प्रेस को बेच देना पड़ा। आपरेशन से ज्योति पुनः आने पर पता चला कि दरजनों फाइलें, जिनमें महत्वपूर्ण नोटस थे, शायद रद्दी कागजों के साथ फेंक दी गई हैं। कुमाऊं का इतिहास भी गढ़वाल के इतिहास के समान ही छै सौ पृष्टों में छपने वाला था। इस बीच कागज का मूल्य छै गुना और छपाई का व्यय १६ गुना बढ़ गया। छै सौ पृष्टों का ग्रन्थ छापने के लिए ३५००० रु० की आवश्यकता थी। इतनी अधिक राशि जुटाना संभव नहीं था। ७६ वर्ष की आयु में मनुष्य को जो भी करना हो तुरन्त कर लेना चाहिए। दो ही साधन थे। भूमि बेच देना और पाण्डुलिपि को संक्षिप्त करना। अस्तु मैने कुछ राशि भूमि बेचकर जुटाई तथा कलम-कुठार लेकर पाण्डुलिपि के बक्कल उत्तारते-उतारते उसे आधा, भीतरी, ‘टोर’ -मात्र बना दिया। किसी ‘चिपको वाले’ मित्र ने मुझे इस क्रूर कार्य से नहीं रोका !
प्रेस में विलम्ब और असुविधाएं होने से कुछ पाद-टिप्पणियां भी हटानी पड़ीं। कुछ पृष्ट बिना प्रूफ दिखाए ही छापे गए तथा कुछ अंकित अशुद्धियां शुद्ध किए बिना ही छाप दिए। इसका मुझे अत्यन्त खेद है। पाठक क्षमा करें।
आज उनके पौत्र अभिषेक डबराल जोकि पेशे से इंजिनियर हैं, ने अपने दादा जी द्वारा वीर गाथा प्रकाशन से छपी उनकी 32 पुस्तकों की सूची साझा की। यह हत्तप्रभ कर देने वाला लगा कि आज भी इन पुस्तकों पर कीमत 06 रूपये से लेकर 30 रूपये ही लिखी है। क्रांतिकारी वीर भवानी सिंह रावत की सुपुत्री चम्पा नेगी ने उनकी यादें ताजा करते हुए लिखा है कि “दुगड्डा का डीएवी कॉलेज (अब रा.इ.कॉलेज) निर्माण के दौरान सरोड़ा गांव से एक भारी कड़ी (लकड़ी) को स्कूल में लाना था, जो कार्य आसान नहीं होने से डॉ. डबराल काफी परेशान थे। तब वे प्रधानाचार्य पद पर थे। अचानक उन्होंने एक दिन तड़के ब्लैकबोर्ड पर विद्यार्थियों को संबोधित एक स्वरचित कविता लिख दी जिसकी दो पंक्तियां ही पता चल सकी हैं:-
अरे जुए के वीर जवानों, मेरी बात तनिक तो मानो।
सरोड़ा गांव में एक कड़ी पड़ी है, तीस फुट से तनिक न बड़ी है।
छात्र इस कविता के जोशीले भाव को पढ़कर उस कड़ी को स्कूल ले आए जिससे डॉ. डबराल काफी प्रसन्न हुए। डॉ. डबराल का तरीका ही अनोखा व दिलचस्प होता था।
(यह संस्मरण डॉ. डबराल के शिष्य रामावतार गर्ग ने सुनाया है। यदि किसी को यह अधूरी कविता याद हो तो वे पूरी करने में सहयोग प्रदान करें।)
..
एक दफा डीएवी कॉलेज में स्थानांतरित हुए एक शिक्षक अपने सामान के दो-तीन बैग सहित दुगड्डा बाजार में उतरे और संयोगवश उधर से जा रहे डॉ. डबराल से कॉलेज का रास्ता पूछ बैठे। डॉ. डबराल ने उनका एक बैग अपने कंधे पर टांगा और कहा कि महाशय आप मेरे पीछे-पीछे चलो मैं छोड़ दूंगा। स्कूल में पहुंचकर जब उन्होंने प्रधानाचार्य के बारे में पूछा तो डॉ. डबराल ने कहा कि मैं ही हूं। तो वह शिक्षक हतप्रभ हो गया। वह डॉ. डबराल के इस विनम्र व्यवहार से अत्यंत प्रभावित हुए और अक्सर श्रद्धाभाव से इस घटना को लोगों को सुनाते थे। शिक्षक का नाम अब ठीक से याद नहीं आ रहा, मगर वे डॉ. डबराल के व्यक्तित्व से सदैव प्रभावित रहे।
– श्रीमती चम्पा नेगी, क्रांतिकारी भवानी सिंह रावत की सुपुत्री, दुगड्डा।
वर्तमान में कई बार जब मुझे यह अहम् होने लगता है कि लोग मुझे सेमिनारों में बुलाकर न्यायोचित्त स्थान व सम्मान दे रहे हैं तब मुझे उस अहम् अभिमान को शांत करने के लिए डॉ शिव प्रसाद डबराल “चारण” जैसे मनुषि याद आ जाया करते हैं जिन्हें हृदय स्वयं ही नमन किये देता है व मैं अपने असली आवरण में लौट आता हूँ। उम्मीद है कि हम सबके लिए यह लेख प्रेरणादायक होगा क्योंकि बड़े बड़े लोग अक्सर विपत्तियों में टूट जाते हैं लेकिन ऐसी विपत्तियों में जो टूटकर उठ खडे होते हैं उन्हें ही डॉ चारण कहते हैं… जो स्वर्ग सिधारने के बाद भी अपने लेखन से हमारे मध्य जिन्दा हैं।