और यूँ बिरान हुआ कांडी गॉव……! पलायन की एक नयी तस्वीर।
(मनोज इष्टवाल)
कहाँ से हो पहल,…! क्या ग्रामीण अपने लाखों के मकानों को लीज पर देकर नहीं दे सकते हैं ग्रामीण पर्यटन को बढ़ावा…!
उत्तरकाशी जिले का सीमावर्ती गॉवयह टिहरी और उत्तरकाशी की सीमाएं बांटता है ।कांडी .. ! जहाँ के आलिशान मकान हर पल अपनों के आगमन के लिए अपनी नजरें बिछाये दिखाई देते हैं। कभी इस गाँव का वैभव देखते ही बनता था। आज यहाँ चिड़िया भी बहुत्त सोच समझकर उड़ान भरकर आती है। काग.. जिन मकानों के बाहर कांव-कांव की आवाज के साथ अतिथियों के आगमन की सूचना देता था, वह ठंगरियाँ, अट्टालिकायें उनके इन्तजार पर जर्जर हो गयी हैं। वो छत्तों की फटालें उखड़ने लगी हैं जो पितृ-पक्ष में कौवे को पूड़ी परोसती थी, जो पूजन में रोट -प्रसाद का स्वाद चखती थी। आज उन आँगन की फटालों में दूब और कंडाली जम चुकी है, जहाँ गौ-भैंस बकरियों के खूटों के आगे तौलों में कलच्वाणी (चारा) परोसा जाता था। न अब आंगनों में गौ रंभाती है न बछडा फुदकता है। न पितृ लालसा के पुवे गौ खाती है, न फगनौटी (फाल्गुन) के बैलों के सींगों पर तेल दिखत्ता है। न खांकर बजते हैं न घंटियाँ। .! न बकरी की मेंह -मेंह न खाडू के सींगों की लड़ाई! न कुत्ते की भौं s भौंs न बिल्ली की म्याऊ -म्याऊ। न जन्दरी (हाथ चक्की ) की घूं -घूं न मांजी के कथा-कतगुली लोरी…! और तो और न चूल्हे पर सकती रोटियां न खांद में चलती अंगारों की बारात और न आग की भभराहट।
भभराहट तो तब होती ना…. ! जब मोबाइल क्रान्ति से दूर बिछोह की हमें याद होती। हाँ दिशा-ध्याणीयाँ जरूर गाहे-बगाहे अपने गाँव अपने आंगन अपने खेतों की खुद व सुध लेती होंगी लेकिन वीरान घर और चौपट आँगन आखिर उन्हें क्या तसल्ली देते होंगे? शुक्र है कि गर्मियों के दिनों में यहाँ के लोक मानस कभी कभार यहाँ गर्मी से बचने के लिए आ जाय करते हैं। लेकिन कब तक…? शायद यही प्रश्न यह गाँव और इस गाँव में पहुंचे हम भी तलाश रहे हैं।
हाँ जरूर…. सुप्रसिद्ध फिल्म अभिनेत्री व गढ़वाली फिल्मों की निर्माता निर्देशक उर्मि नेगी ने मुझसे अपनी गढ़वाली फिल्म “सुबेरो घाम” का सीक्वल अर्थात पार्ट-2 “बथौंs” की शूटिंग हेतु लोकेशन की बात की थी तो मैंने उन्हें कांडी गाँव जाने की बात कही। उर्मि नेगी की कहानी पर सचमुच कांडी गाँव फिट बैठता था तभी तो वह पलायन की सारी पीड़ा इस फिल्म में ले आई व मुझे मजबूर कर गई कि मैं भी पलायन की इस अंधी दौड़ में अपनी कलम के आंसू बहाऊँ।
पट्टी कोड़ार का कांडी गॉव जोकि देहरादून यमुनोत्री मार्ग में डामटा से मात्र 12 किमी. दूरी पर लगभग 4,500 मीटर की उंचाई में बसा है। बेहद खूबसूरत नक्काशी और बेहद सम्पन्न गॉव हुआ करता था कभी…! आज सिर्फ यादें और इमारतें अपनी दास्ताँ सुनाती नजर आती हैं। कांडी गॉव की विशाल सरहद डामटा तक फैली है। जाहिर सी बात है कि रोजगार की तलाश में लोग सुविधाओं वाले स्थानों की ओर रुख करते हैं। शुरूआती दौर में दो चार सम्पन्न परिवारों ने डामटा में दुकानें खोली। अच्छा कारोबार चला तो बच्चे पढने के लिए डामटा ही आ गए। जब तक सड़क नहीं थी तब तक ये दूकानदार शांय काल को अपनी दुकानों के सट्टर बंद कर घर लौट जाया करते थे लेकिन बिडंबना देखिये जैसे ही सड़क गाँव पहुंची पूरा गाँव ही यहाँ से सरक गया। तभी तो मैं बार-बार कहता हूँ कि गढ़वाल कुमाऊँ में सड़कें सरकने के लिए बानी हैं। यह सार्वभौमिक सत्य है कि जहाँ और जब भी गृहणियों के पैर अपनी चौखट से बाहर उठे तब उन्होंने वहीँ अपना ठौ-ठिकाना तलाशा, गॉव आना जाना रहा लेकिन धीरे धीरे आधुनिकता और सुख सुविधा के चलते खेत छूटते गए।
बगल के गॉव के झब्बर सिंह जी ने बताया कि कभी इस गॉव की समृधि दूर-दूर इलाकों तक थी। एक के पैर क्या उठे सब एक के बाद एक मुश्किल से 12 किमी. दूर डामटा जा बसे। अब सैलानियों के तौर पर बरसात में कभी कभार आ जाते हैं। नार्थ फेस के इस गॉव के बारे में हमें पहाड़ को पहाड़ की विधा से नापने वाले व उसके हर क्रिया-कलाप पर बेहद करीबी नजर रखने वाले समाजसेवी उदित घिल्डियाल जी ने बताया तो यकीन नहीं हुआ कि भला सड़क पर बसा गॉव वीरान कैसे हो सकता है।
गॉव में पहुँचकर आपको यह आलिशान नक्काशीदार मकान इसलिए डरावने लगने लगेंगे क्योंकि वहां न चिड़िया की चहचाहट थी न बिल्ली की म्याऊं न कुत्ते की भौंs भौंs और न पकवान बनने की खुशबु ! बस पसरा था तो सिर्फ विराना..! गॉव के ठीक मध्य तक सड़क गयी हुई है। एक जगह बाहर पत्थरों के बने चूल्हे को देखकर लगा कि यहाँ कोई रूककर तो गया है, क्योंकि राख और कोयले इस बात की गवाही देते नजर आ रहे थे। पूरा गॉव के पेड़ों के सूने ठूंठ, बंजर खेत, क्यारियाँ और पैदल आम रास्ते में उगी बिच्छु घास चीख-चीख़कर कह रही थी कि इस गॉव के दिन अब लद गए हैं। जिन आँगन की फटालों की चिकनाई में माँ बहनों के समूह नृत्य व गीतों की गूँज समाई थी वे फटालें भी नीरस बेजान इस ठण्ड में खुरदुरी सी लग रही थी। देवदार की कीमती लकड़ी पर रंदे और छेनियों से की हुई कलाकृतियाँ भी बिना रखरखाव के उस दाड़ी वाले बाबा की तरह दिखाई दे रहे थे जो न मूंह धुलता है न दांत चमकाता है। दीवारों का रंग-रोगन सब उड़ गया मानों एक खूबसूरत दुल्हन हाल ही में विधवा हुई हो! लेकिन आश्चर्य इस बात का हो रहा था कि प्रकृति भी यहाँ थम सी गयी लग रही थी, मानों हवा ने चलना बंद कर दिया हो, सूर्य देव अस्तांचल को चल दिए हो। चन्द्रदेव बादलों के साए में हों। और….. वहीँ पास के गॉव चमचमाते अपनी ऊर्जा के पुट देते दिखाई दे रहे थे। क्या सचमुच भविष्य में कांडी गॉव खंडहरों में तब्दील होने की जद में है?
क्या ऐसे गॉव खंडहर में तब्दील नहीं होंगे..! वहां के निवासी कहेंगे हो ही नहीं सकता…! लेकिन आने वाले कल की परिभाषा उन्हें कौन समझाए। फिर ऐसे गॉव के लिए कहाँ से हो पहल…! सम्पन्नता आड़े आएगी वरना इसे लीज पर देकर इस गॉव के वासी अपनी कमाई का जरिया भी बनाए रखते और ग्रामीण पर्यटन को भी विकसित किया जा सकता है…..! पहल तो होनी ही चाहिए।