एक सफर शतगढ़ के गोलज्यू मन्दिर तक। जहां राजा अस्कोट को घोड़े से उतरकर पैदल चलना पड़ता था।
(मनोज इष्टवाल ट्रेवलाग 26 अप्रैल 2022)
हमारी बोना गांव से विदाई में पूरा गांव फिर से उमड़ पड़ा। सहायक इनकम टैक्स कमिश्नर खड्क सिंह रावत के आँगन में विदाई से पहले समस्त टीम को टीका लगाकर व शॉल ओढ़ाकर सम्मानित किया गया। फिर उनकी बहन व पत्नी द्वारा दही के कटोरे हमें सौंपकर विदाई की रस्म अदायगी पूरी की गयी।
मुझे जल्दी जल्दी में प्रह्लाद सिंह रावत जी के आवास भी जाना था, जहां मेरे लिए नाश्ते की तैयारी थी। हम अर्थात जीवन चन्द्र जोशी, भूपेंद्र कुमार भट्ट व कैलाश चन्द्र सुयाल अपने विश्राम स्थल (भूपेंद्र सिंह रावत के आवास) से अपना बैग उठाकर निकले तो पाया प्रह्लाद सिंह रावत जी का पुत्र मेरी राह जोह रहा है। मैं दुविधा में था कि क्या करूँ। खैर जल्दी से मैं उसके साथ हो लिया। घर पहुंचकर उनसे क्षमा मांगी की नाश्ता नहीं करूंगा। उनकी अर्धांगिनी अब तक गरमागरम दूध का भरा गिलास लेकर आ गयी थी। अभी अभी दही खाई थी। लेकिन बुग्यालों में चरने वाली गौ मैय्या के दूध की कीमत का अनुमान हम लगा सकते हैं। मैंने फटाफट दूध गटका और विदाई के हाथ जोड़े। क्योंकि ढोल नगाड़े के साथ हमारा काफिला गांव की सीमा तक पहुंच चुका था। मैं पिछड़ गया था लेकिन मेरा झोला तो प्रह्लाद सिंह रावत जी के पुत्र ने सम्भाल लिया था व ठीक हमारी कार तक छोड़ने मुझे छोड़ने पहुँचा।
मैंने गांव को अंतिम विदाई देते हुए बेहद सहृदय होकर गांव के देवता छिपला केदार, गोलज्यू देवता के जन्मस्थान धरतिधार, वन्य औषधियों, वन्य जीवों, पेड़ पौधों व इस क्षेत्र में विचरण करने वाली मातृकाओं, आँछरियों परियों, व सभी देवी देवताओं के साथ बोना गांव की थाती माटी को प्रणाम किया और आगे बढ़ चला। सचमुच यह गांव किसी सपनों के गांव से कम नहीं था।
जैसे ही कार में बैठा तो एकाएक वह सड़क याद आ गई जिस से चलकर हम यहां तक पहुंचे थे। क्या जीवन जोशी जी , क्या भूपेंद्र भट्ट जी व क्या कैलाश सुयाल जी सबके हृदय में अवश्य मेरे जैसे भाव रहे होंगे। इतनी डरावनी रोड में कार चलाना हिम्मत की बात थी। ड्राइविंग सीट सुयाल जी ने संभाली। सड़क मार्ग 3 किमी तक इतनी खतरनाक थी कि जरा सी चूक आपको कई सौ मीटर गहरी खाई में पटक सकती थी। सड़क ऐसी की लीक से हटकर चला नहीं जा सकता था क्योंकि सड़क का कटान ही इतना कम था। सड़क के बीचोंबीच का हिस्सा इतना उठा था कि गाड़ियों के चैंबर जमीन चूम रहे थे। ऐसे में कई जगह हालात यह थे कि सड़क के बीचोंबीच पड़े शिला खंड गाड़ी को अपने वजूद का अहसास करा देते तब यही डर रहता कि कहीं चैंबर फट गया तो मुश्किल न हो।
हम सबसे पीछे थे, अपनी धरोहर संस्था के बाकी सदस्य “श्री गोलज्यू सन्देश यात्रा” रथ के साथ काफी आगे निकल चुके थे। मुझे झापुली गांव के पास रुकना था जहां पूरा पहाड़ टूटकर एक गांव को नेस्तानाबूद कर गया था। इस गांव में सिर्फ़ गोलज्यू मन्दिर व गोलज्यू के पुजारी का घर ही बचा बाकी मकान जमीदोंज हो गए थे। जनहानि तो नहीं हुई लेकिन पशुहानि बहुत हुई। यहां फिर से गोलज्यू देवता का चमत्कार देखने को मिला।
हम तोलिंग गांव के उस झरने के नीचे पहुंच गए थे जहां हार्ड रॉक काटकर सड़क निकाली गई थी व सड़क 90 डिग्री की खड़ी चढ़ाई लिए हुई थी। यहां सुयाल जी की ड्राइविंग की असली परीक्षा थी। हम सब कार से उतरे ताकि कार अगर फर्स्ट गेयर के बाद भी ऊपर न चढ़ पाए तब सुयाल जी के हैंड ब्रेक के बाद हम टायरों पर पत्थर लगा सकें। क्योंकि यहां स्थिति बहुत डरावनी थी। सड़क से नीचे झांकने में ही आंखें पथरा रही थी। खैर यहां कैलाश सुयाल जी बखूबी कार ऊपर चढ़ा गए भले ही टायर घर्षण के बाद उसकी दुर्गंध नाक में समा गई।
हमारी बाकी टीम काफी आगे निकल चुकी थी। और अब हम गोल्फा गांव के ठीक सामने की ऊंची धार वाली सड़क पर पहुंच चुके थे। अब सड़क पक्की थी। मानव प्रवृत्ति देखिए हम पीछे की उस दो तीन किमी की बेहद खतरनाक सड़क को भूल चुके थे। अब ड्राइविंग सीट पर जीवन जोशी विराजमान हो गए तो फिर से सुयाल जी की चुहल शुरू हो गयी। बोले- आज तो मदकोट पहुंचकर इष्टवाल जी को जलेबी खिलाई जाएगी। तब तक जोशी जी बोल पड़े- मुनस्यारी में माहरा की जलेबी खिलाएंगे। मैं बोल पड़ा – ओहो भट्ट जी व जोशी जी…सच में जिसने हिमालयी ट्रॉट नहीं खाई तो फिर क्या खाया। भई चाहे कुछ हो जाय अब तो जोशी जी व भट्ट जी को बरम पहुंचकर मछली अवश्य खिलाई जाएगी। यहां ठट्टा मजाक में गढ़वाल-कुमाऊँ की आन बान शान की बातें हो रही थी और ठहाके गूंज रहे थे।
बहरहाल हम जब मदकोट पहुंचे तो पाया पूरी टीम व गाड़ियां कतार से रुकी पड़ी हैं। यहां बृजेश धर्मशत्तु जी के यहां हम सबके लिए नाश्ता पानी की व्यवस्था थी। हमारे पहुंचने पर पूर्व आईजी पुलिस जीएस मर्तोलिया ने चिंता व्यक्त करते हुए अपनी शंका जताई कि उन्हें डर था कि कहीं कोई अनहोनी न हो गयी हो। खैर सबने बात मुझ पर डाल दी कि इष्टवाल जी को वीडियो व फोटो शूट करने थे।
काफिला आगे बढ़ा और एक ऊंचे झरने के पास आकर रुक गया। जहां सबने फोटोग्राफी की और हम आगे बढ़ चले । आठ से 10 कारों का झुंड इस क्षेत्र के वासियों के लिए उत्सुकता का बिषय था। सचमुच गोरी नदी ने पूरी नदी घाटी में 2013 में क्या रौद्र रूप लिया होगा उसके निशान आज भी उस त्रासदी का बर्णन करते दिखाई दे रहे थे। अब हम लोगों के ठट्ठा मजाक के बीच नदी घाटी सभ्यता की बात होने लगी व उस त्रासदी के पल तरोताजा होने लगे। मैं व जोशी जी मदकोट तक अपनी पूर्व यात्रा की चर्चा कर रहे थे तो बीच बीच में फिर मछली व जलेबी की याद ताजा कर ठहाके लगाते। मैं कहता मेरे देहरादून आइये ऐसी जलेबी खिलाऊंगा कि आप याद करेंगे तब सुयाल जी बोलते-जलेबी तो नैनीताल की प्रसिद्ध है। आपको हम किसी भी हालात में जलेबी खिलाकर ही भेजेंगे। फिर भट्ट जी नैनीताल के किसी जलेबी वाले को याद करते व कहते तल्ली ताल की घन्टी वाली दुकान की जलेबी की बात ही कुछ और थी उसकी जिसको लत्त लग गयी तो समझी लग गयी।
मैं कहता महाराज…अभी पिथौरागढ़ की बात कीजिये यहां से नैनीताल 200 किमी दूर है। फिलहाल आप बरम की मछली याद रखिये और फिर ठहाके गूंजते।
एक मार्किट में काफिला पहुंचा तो देखा स्कूली बच्चे पुल पार हमारा स्वागत कर रहे हैं। गोलज्यू के जयकारों के बीच हम भूल ही गये कि यह बरम आ गया। जब हम यहां से आगे बढ़े तो सुयाल जी बोले- भई आप लोगों की मछली तो पीछे बरम में छूट गई। भट्ट जी बोले- अरे बरम छूट गया क्या? फिर ठहाके गूंजे। शायद सुयाल जी जो शुद्ध शाकाहारी ठहरे उनकी आत्मा बड़ी प्रसन्न हुई होगी।
अब हम जौलजीवी पहुंच चुके थे। पूरा बाजार जयकारों से गूंज उठा। यहां स्वागत में ढोल नगाड़े बजने लगे। यहां जलदेवी मन्दिर में पूजा अर्चना के बाद हम फिर वापस मुडे व पुल पार करके अस्कोट की तरफ बढ़ चले। जौलजीवी सदियो से तिब्बत भारत का व्यापारिक हब रहा है। खैर इस पर फिर कभी चर्चा होगी। मैने काली व गोरी नदी संगम के बाद बनी महाकाली नदी के पार नेपाल में सामांतर सड़क को दिखाते हुए भट्ट जी व सुयाल जी को बताया कि यहीं से हम पैदल चलकर उक्कू महल पहुंचे थे। फिर उन्हें उक्कू बाकू क्षेत्र भी दिखाया जो धुंध के कारण ढंग से दिखाई नहीं दे रहा था। इस क्षेत्र में खेती में कब मैदान शामिल हो गया समझ नहीं आया। मदकोट व जौलजीबी के बीच बहुत से गांव ऐसे दिखे जो गेहूं की बाल काटकर पूरे तने खेतों में खड़े छोड़ देते हैं व बाद में उन पर आग लगा देते हैं। इस से चारों ओर धुंवा ही धुंवा फैला दिखाई दिया।
बातों बातों में हम अब तक अस्कोट व वहां के राजमहल को छोड़कर ओगला की तरफ बढ़ चुके थे। बीच में वनरावतों के गुफानुमा मकान देखते हुए जब हम ओगला के पास पहुंचे तो देखा बच्चे काफल-काफल चिल्ला रहे हैं। जोशी जी बोले- काफल लेने हैं क्या। मैं बोला- काफल अरे सर क्यों मजाक कर रहे हो। चैत्र मास में काफल तो अभी हरे भी नहीं मिलेंगे। अब तक हम ओगला पहुंच चुके थे। जहाँ डीडीहाट व ओगला से पहुंचे लोगों ने “श्री गोल्ज्यू सन्देश यात्रा” का जोरदार स्वागत किया। यात्रा आगे बढ़ी तो देखा सचमुच यहां काफल बिक रहे थे। जीवन जोशी की जगह अब ड्राइविंग सीट पर सुयाल जी आ बैठे व जीवन जोशी काफल लेने लपक पड़े। हमने खूब छककर चलते-चलते इस बर्ष के काफल खाये।
शत गढ़ का गोल्ज्यू मन्दिर।
अब हम कनालीछीना आ पहुंचे। पाया कनालीछीना के पास शतगढ़ नामक स्थान पर हमारा काफिला रुका पड़ा है। अपनी धरोहर संस्था के सचिव विजय भट्ट गाड़ियों को रोककर साइड लगा रहे थे। बिल्कुल सड़क के ऊपर मन्दिर में टेंट लगा था व ग्रामीण महिलाएं “श्रीगोलज्यू सन्देश यात्रा” के यात्रियों के स्वागत में फूल व अक्षत बरसा रही थी। मन्दिर प्रांगण में बभूत धुनि सजी थी। गोलज्यू देवता के जयकारों के बीच बरम नाद गूंज उठा।
फिर क्या था। आकाशरोधी शब्द गूंजे। दिशाएं गुंजायमान हुई व गोलज्यू का पश्वा अवतरित हो गए। उन्होंने सबके मस्तक पर राख मली व घोड़ाखाल के गोलज्यू पुजारी वंशज जीवन चन्द्र जोशी के कंधों पर झूलकर नृत्य करने लगे। यह अविश्वस्नीय सा था क्योंकि सैकड़ो लोगों में आखिर उन्हें कैसे पता चला होगा कि यह उनके उपासक हैं। जबकि हम सबके लिए यह नई जगह थी।
कुछ समय बाद पूजा अर्चना के पश्चात जब मैंने गोलज्यू मन्दिर के इस अप्रत्यक्ष धाम के बारे में पूछा तो अचंभित रह गया। मन्दिर के मुख्य पुजारी लक्ष्मी कापड़ी व सहायक पुजारी हरीश कापड़ी ने जानकारी देते हुए बताया कि यह मंदिर सैकडों साल से यहां अवस्थित है। यह उन्हें भी ढंग से ज्ञात नहीं है कि कितने सौ साल पहले इस मंदिर की बसासत होगी।
मन्दिर के पुजारी लक्ष्मी कापड़ी बताते हैं कि यूँ तो गोलज्यू का आशीर्वाद हर उस व्यक्ति व परिवार से जुड़ा है, जिसने भी यहां मन्नत मांगी लेकिन उनके बुजुर्गों से प्राप्त जानकारी से ज्ञात हुआ कि एक समय राजा अस्कोट के घर पर सन्तान उत्पन्न नहीं हुई तब हर दिशा से वैध, तांत्रिक व जानकार पंडित पुजारी को राजमहल में आमंत्रित किया गया। उनके किसी बुजुर्ग को भी जब बुलाया गया तब उन्हें बिंता रानी की शक्ल दिखाए ही पूजा गया कि इसका उपचार क्या है?
उन्होने राजा से कहा कि वे बिना नाड़ी देखे भला कैसे बता पाएंगे। वे गोलज्यू के उपासक हैं। फिर राजा ने कहा इतनी ही शक्ति अगर आप में निहित है तो आप स्वयं इसका उपाय ढूंढे। उनके पूर्वज ने धागे का एक सिरा राजवैध को थमाकर राजा से कहा कि इसे रानी के हाथ पर बांधे। राजा ने उसे लकड़ी के घोड़े पर बांध दिया। तो उनके पूर्वज ने कहा यह आपने काठ पर बांध दिया है। फिर पत्थर पर बांधा तो भी उन्होंने राजा को बता दिया कि यह उन्होंने पाषाण पर बांधा है। अंत में नाड़ी पर बांधने पर उनके पूर्वज ने बताया कि अब नाड़ी पर बांधा गया है अतः गोलज्यू की कृपा से आपको पुत्र रत्न की प्राप्ति होगी।
कहते हैं गोलज्यू के आशिर्वाद से राज परिवार में राजकुंवर पैदा हुए तब राजा ने स्वयं कनालीछीना के पास जहां जैंती मैय्या का उच्च स्थान है स्वयं गोलज्यू देवता की स्थापना करवाई व पूरा शत गढ़ क्षेत्र उनके पुरखों को दान कर दिया। जिस से कभी टैक्स वसूली नहीं किया गया। आज भी शतगढ़ के लगभग 150 से ऊपर परिवार कापड़ी ही रहते हैं।
वहीं दूसरी कहानी के अनुसार कापड़ी वंशज ने राजा को पहली डोरी काठ के घोड़े पर बांधने को कहा। दूसरी देवशिला पर वे तीसरी डोरी महारानी के कलाई पर…और उस आधार पर गोलज्यू का यह रक्षा सूत्र बन गया।
जनश्रुतियों में यह भी कहा जाता है कि गोलज्यू ने सपने में आकर राजाक को कहा था कि जब भी वह जोहार घाटी पार करें। तब वह धरतिधार (धारतीधार) पार करते समय उसकी शिखर जहां से हिमालयी शिखरों की ढाल शुरु होगी वहां मेरे जन्म स्थान में लकड़ी का घोड़ा चढ़ाएं तो आपकी पूरी यात्रा निष्कंटक सफल होगी। कहा जाता है कि राजा अस्कोट जब भी शिकार या तिब्बत यात्रा पर जाया करते थे तब वह यहां काठ का घोड़ा चढ़ाया करते थे। और तभी से धरतिधार हर उस व्यक्ति व परिवार की मुराद पूरी करता आ रहा है।
जहां जोहार पार करते हुए उन्हें लकड़ी का घोड़ा चढ़ाना पड़ता था वहीं सोर घाटी में शतगढ़ गोलज्यू मन्दिर आते ही उन्हें व महारानी को घोड़े से उतरकर गांव पार करना पड़ता था। यह गोलज्यू देवता के प्रति राज परिवार की बड़ी आस्था का प्रतीक है। जिस राजा ने अपना राज विस्तार सुदूर अफगानिस्तान तक फैलाया हो वह भी गोलज्यू देवता के चमत्कार के प्रति इतना आस्थावान रहा यह सचमुच अचम्भित करने वाली घटना है।
अब प्रश्न यह उठता है कि शत गढ़ के पौड़ी खाला से ही कंडी में रखकर पौड़ी कंडोलिया पहुंचे गोरिल कंडोलिया….! विस्तार अगले अंश में…..।