(डॉ मीनाक्षी रावत)
गढवाल के लोक साहित्य में पंवाडे गाये जाते हैं जगदेव पंवार का पंवाडा प्रमुख है। पंवाडा गाया तब जाता है जब नायक देवत्व के गुणों से युक्त राजा व पालक रूप में रहा हो।
गढ़वाल के लोक साहित्य में डा० गोविन्द चातक, डा० हरिदत्त भट्ट “शैलेश” द्वारा रचित ग्रन्थों में यह पंवाडा संकलित है। इतिहासकार सत्य प्रसाद रतूडी ने गढ़वाल के स्वर्णिम इतिहास नामक पुस्तक में जगदेव पंवार का इतिहास पुरुष के रूप में वर्णन किया है।
ऐतिहासिक चांदपुर गढी जिसको किला भी कहा जाता है। गढवाल का प्रमुख राजगढ है। जिससे भानुप्रताप का जामाता राजा कनकपाल का बद्रीनाथ से साक्षात्कार के बाद आदि पंवारवंशी राजा बना। सन् 888 ई० में राजा कनकपाल का प्रारम्भ माना जाता है जो धार का पंवारवंशी राजा था। पंवार वंश को मूल ही धार से हुआ, सम्पूर्ण उत्तर भारत में पंवारवंश यही से चला। समय के साथ पंवार, प्रमार, परमार आदि नाम वंश को 61 पीढ़ियों ने गढवाल में राज्य किया।
सन् 1512 ई० में श्रीनगर सन् 1814 में टिहरी सन् 1929 में नरेन्द्र नगर राजधानियां बनती रही और मान्यता है कि राजा कनकपाल का श्री बद्रीनाथ जी से सीधे संवाद हुआ था। इसीलिए राजा गढ़वाल बुलांदा बद्रीनाथ कहे जाते है। राजा बद्रीनाथ का जीवित रूप है।
राजा कनकपाल के चांदपुर गढ़ी में पर्दापण के करीब 50 साल बाद धारा नगरी से जगदेव पंवार भी उत्तराखण्ड यात्रा पर आए वे भी एक योगिक
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डॉ० मीनाक्षी रावत
क्रिया व प्राणायाम के सिद्ध वंश वृद्धि के लिए देवी के आदेश पर उत्तराखण्ड आए थे।
कुछ दिन चांदपुर गढ़ी में ठहरने के बाद राजा ने जगदेव पंवार से अलकनंदा के दायी तरफ बर्तगढ नागपुर का केन्द्र स्थान था जो भगवान तुंगनाथ की चोटी के समाने बहुत सुन्दर रमणीक व उपजाऊ भूमि थी। दो जल धाराओं के मध्य यह गढ़ था। यही राजा जगदेव पंवार बस गये। वर्तमान में वर्तगढ़ चांदनीखाल के नाम से जाना जाता है। जो राजस्व ग्राम रडुवा के अन्तर्गत पडता है।
पिछले कुछ वर्षों से भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा किये गये उत्खनन में चांदपुर गढ़ी से राजा कनकपाल के अलावा जगदेव पंवार के शिलापट्ट भी मिले हैं। जिससे यह प्रमाणित हो जाता है कि एक ही वंश के वंशज थे। जो उत्तराखण्ड दैवीय दर्शन व चमत्कार के साथ यहां की भूमि में बसे व यहीं के हो गये। यह तो एक वर्णन है जगदेव का। राजस्थान के इतिहास, उत्तर प्रदेश के क्षत्रियों में इतिहास में भी इसका वर्णन है।
राजा जगदेव पंवार का उत्तराखण्ड हिमालय प्रस्थान के मूल में एक वर्णन सब जगह है ये प्रणायाम विद्या के जानकार थे, प्राणायाम से भूत. भविष्य, वर्तमान जान लेते थे। इनकी सात पत्नियां थी लेकिन किसी से कोई सन्तान ही हुई। प्राणायाम व योग क्रिया में इनको यह आभास हुआ कि उत्तराखण्ड हिमालय में गढवाल क्षेत्र की अमुक स्थल पर जाओ तुम्हारी वंश बेल वहीं से बढ़ेगी। सो जगदेव पंवार बहुत सारे लोगो के साथ उत्तराखण्ड की यात्रा के लिए निकल पड़े।
इनको देवी दक्षिण कालिका के दर्शन हुए. देवी ने मनोकामना पूर्ण होने व राज बसने का आर्शीवाद दिया। बर्तगढ़ में ये बस गये, अपने साथ के लोगों को नागपुर के अन्य गांवो में बसा दिया। वंश वेल भी तैयार हो गई। ये पुनः देवी काली के ध्यान व तपस्या में लीन हो गये। देवी के दर्शन दिये, राजा जगदेव ने भक्ति में सरावोर हो देवी को अपना सिर अर्पित किया, जैसे ही देवी को सिर अर्पित किया तो देवी ने आर्शीवाद दिया कि आज से इस स्थान पर तुम्हारी ही पूजा होगी, तुम देवरूप में पूजे जाओगे। तुम इस क्षेत्र में युगों तक पूजे जाओंगे।
यह स्थान हरिद्वार-कोटद्वार के मध्य कण्व आश्रम के पास कलालघाटी के मावकोट में है जहाँ देवी दक्षिण कालिका के मन्दिर में ही बाबा जगदेव पंवार देवरूप में स्थित है। सिर कटी भव्य मूर्ति है। जिसमें धड व वक्षस्थल तक शरीर है, सिर दोनो हाथों में है जो देवी को अर्पित है। बहुत सुन्दर रमणीक प्राकृतिक स्थल पर यह मन्दिर सैंकडों साल से है। पास में नदी बहती है। सुन्दर प्राकृतिक रूप से खिले फूलों की वाटिका है। एक एक साधुओं साधुओं की कुटिया है जहाँ दो साधु 45-50 साल के रहते हैं. इनसे पूर्व राजेन्द्र गिरी साधु यहाँ रहते थे।
बाबा जगदेव पंवार की देवता रूप में पूजा होती है। यह साधु एवं मन्दिर हरिद्वार के जूनागढ़ अखाडे से सम्बन्धित है।
बाबा जगदेव पंवार के पवित्र स्थल को यहां प्राचीन मन्दिर माना गया है। मुख्य सडक के पास से द्वार बना है जिस पर घण्टे लगे हैं। देवी का एक यंत्र एवं मूर्ति प्रारम्भ में ही है।
इस भाबर क्षेत्र में जगदेव पंवार के पंवारवंशी लोग मोटाढांग, हरिद्वार बिजनौर से अधिक सावन मास में यहाँ पूजा होती है।
भावर क्षेत्र के ये पंवार वंशी जो अब बोक्सा जाति में है राजा जगदेव पंवार को बाबा जगदेव देवता के रूप में प्रतिवर्ष दर्शन कराने आते हैं।
वहीं बर्तगढ़ में बसने वाले जगदेव पंवार के
वंशज नागपुर परगने के रडुवा, मसोली, सेणजी, कुंडा, मालकोटी, गडील, दानकोट, सुप्री,
सतेराखाल, गोरना आदि गांवो में बस गये। गढ़वाल से हूणों को तिब्बत तक खदेडने के कारण पट्टी का नाम खदेड पडा। फिर भीम सिंह बर्त्याल, उदय सिंह बर्त्याल का तिब्बत का कुछ भाग पर शासक व सेनापति के रूप में अधिपत्य रहा। सन् 1962 ई०तक इनकी तलवारें दापाघाट व थोलिंग मठ में पूजी जाती थी।
राजा अजयपाल के केन्द्रीय कृत गढवाल राज्य को श्रीनगर में स्थापित करने, औरगजेब व जहांगीर के दरबार में सम्मान सहित प्रतिनिधित्व करने के कारण जगदेव पंवार के वंशज व्रतगढ रहने व व्रत निभाने के कारण बर्खाल उपाधि से जाने गये। खदेड पट्टी ही नही नागपुर परगने में इसी जगदेव के पंवाडे गाये जाते है। जिसने देवी काली को भक्ति में शीश अर्पित करने व मवाकोट की घटना का वर्णन है। फिर यह ही दन्त कथा है कि देवी ने पुनः भक्त बाल के शीश को गर्दन पर जोड दिया था।
सन् 1936 में कई सौ वर्ष लुप्त रहने के बाद यह देवी विजय सिंह बर्त्याल पर प्रकट हुई तो फिर विजय सिंह बर्त्याल ने घर ही में पूजा प्रारम्भ की।
सन् 2010 में रडुवा गांव के नवनिर्मित काली मन्दिर में मूर्ति प्राण प्रतिष्ठा के अवसर पर 11 सी साल बाद इसी वंश को शीश अर्पित करने की इच्छा ही नहीं व्यक्त की बल्कि पूरे मन से सिर भेंट करने की बात कही, मन्दिर के देहरी पर सिर रखा अर्पित करने के लिए देवी के वीर ग्राम देवता, भूतनाथ, विद्वान ब्राहमण व बुजुर्ग लोगो ने मन मनोबल से बात संभाली फिर दूसरे दिन से बकरा बलि से पूजा की सहमति बनी। इस प्रकार एक लोक गाथा और इतिहास के आख्यान के साथ जन विश्वास की धारणा को सैकडों वर्षों बाद पुनरोवृत्ति देखने को मिली। दिनांक 23 अक्टूबर 2012 शारदेय नवरात्रे के अवसर पर लेखक ने मायकोट स्थित इस मूर्ति का इतिहास संजोते हुए दर्शन किये, यह भी एक चमत्कारी कहानी का हिस्सा है।