(वेद विलास उनियाल)
शारदा सिन्हा लोकसंस्कृति की मधुर अभिव्यक्ति थीं। सदियों से अगर भारतीय समाज में लोकसंस्कृति मूल स्वरूप में है तो उसकी वजह यही रही है कि गीत संगीत कला के जरिए उसे अभिव्यक्त किया जाता रहा है। निश्चित ऐसे प्रयासों से जनमानस को अपनी परंपरा रिवाज पर्व त्यौहारों को समझने जानने का अवसर मिलता रहा है। लोकसंगीत का माधुर्य और माटी की सुंगध का अहसास करना हो तो शारदा सिन्हा के गीतों में इसका अहसास होता है। उनकी आवाज में खास खनक थी । शारदा सिन्हा ने लोकपर्वों को और उत्सवी रूप दिया। एक तरह से उन्होंने अपने लोकगायन से लोगों को लोकपर्व से जोड़ा। लोकसंस्कृति से विमुख होते समाज को उनके गायन फिर अपनी जड़ों से लौटने के लिए प्रेरित किया। लोकभाषा के जरिए सामान्य लोकजीवन में प्रचलिच विश्वास आस्था परंपरा के विषय ही लोकसंस्कृति है। मैथिली और भोजपुरी के लोकजीवन में शारदा सिन्हा के गीत गूंजे। समाज मंत्रमुग्ध हुआ।
खासकर छठ मइया के उनके गीत लोकजीवन में छा गए । शारदा सिन्हा जिस तरह अपनी माटी के गीतों में रची बसी थी वैसे ही सादगी उनके जीवन में भी देखने को मिली। शास्त्रीय और लोकसंगीत में सजा उनका गायन लोगों को मंत्रमुग्ध करता रहा। मैथिली और भोजपुरी गीतों को उन्होंने पूरे मनोभाव से गाया। उनके गीत समाज की धरोहर बन गए। देश विदेश में अपार लोकप्रियता के बावजूद उन्होंने हमेशा अपना देशज जीवन अपनाए रखा। उनके गीतों के साथ उनकी छवि मन में उतरती है तो माथे पर लाल बिंदी गले में माला के साथ पूरे व्यक्तित्व में सादगी। उन्हें बिहार की स्वर कोकिला कहा गया। शारदा सिन्हाजी के गीतों में एक अलग तरह की अनुभूति देखने को मिली।
भारतीय लोक संस्कृति में बिरले कलाकारों ने अपनी अनूठी छाप छोड़ी। विविधता वाले इस देश में अलग अलग संस्कृति परंपरा पर लोकगीतों को गाने वालों ने अनूठी छाप छोड़ी। कुछ ऐसे विरले कलाकार भी रहे रहे जिन्होंने लोकजीवन के श्रेष्ठ गीत रचे और गाए लेकिन लोग उन्हें जान नहीं पाए। बस उनके रचे गीत आने वाली पीढ़ियां गुनगुनाती रही। लेकिन यह सौभाग्य है कि शारदा सिन्हा ने जो कुछ रचा गाया उसे समाज महसूस करता है। बिहार के लोकपर्व छठ को शारदा सिन्हा ने अपने गीतों से इस तरह सजाया कि उनके गीत इस पर्व का एक जरूरी अंग हो गए।
असम की संस्कृति के वाहक भूपेन हजारिका बने। वहीं मैथिली संस्कृति के गीत संगीत की बात हुई तो शारदा सिन्हा के गीत उसके प्रतीक बने। खासकर छठ का पर्व में जितने जरूरी उसके कठिन विधि माने गए उतना जरूरी छठ मइया में शारदा जी के गीत भी माने गए। कौन होगा जिसने छठ पूजा की हो और शारदाजी के सोना सटकोनिया हो दीनानाथ की अर्चना न सुनी हो। हम नजाइब दूसरा घाट, केलवा के पात पर उगलन सूरज मल झाके झुके , सुना छठी माई पहिले पहिल छठ मइया , देखब हे छठि मइया हमहू अरगिया जैसे गीत पंरपरा के गीत बन गए। उनकी आवाज में दर्द , कसक वेदना प्रेम ईश्वर के प्रति समर्पण हर भाव दिखा। गीतों को उन्होंने गाया ही नहीं बल्कि गीतों में वह समा गईं। गीत उनके लिए वंदना की तरह थे। गीतों में उन्होंने अर्चना का भाव तलाशा । हालांकि उनकी आवाज छठ की आवाज थी।
शारदा सिन्हा बिहार के उस सुपौल में जन्मी जो मतस्य क्षेत्र कहलाता है। आम भी खूब होता है। लेकिन कोसी की बाढ यहां के जीवन को प्रभावित करती है। कोसी मैया की अर्चना भी होती है। लेकिन जीवन चलता रहता है । यही के हुलास गांव में जमींदार परिवार में जन्मी शारदा सिन्हा को संगीत का ऐसा लगाव हुआ कि वह इसमें ही रम गईं। मीठा स्वर और खनक में कुछ गातीं तो लोगों को अच्छा लगता । मैथिली और भोजपुरी की यह आवाज भारत की सीमाओं से पार भी जाएगी। वहां जहां मोरिशस है गुआना सुरीनाम है पोर्ट आफ स्पेन है। कहां कहां नहीं बसे हैं बिहार के लोग। जहां भी यह आवाज गूंजेगी हर सुनने वाले को प्रभावित करेगी। हुआ भी यही। उन्होंने मैथिली भोजपुरी गायन को कैरियर बनाया। गुरु पन्ना देवी के सानिध्य में शास्त्रीय संगीत लोकसंगीत को सीखा समझा । वह लोकसंगीत में शास्त्रीयता को लाकर उसे आकर्षक बनाया । दरभंगा के ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय से संगीत में डाक्टरेट की उपाधि हासिल की। साथ ही लोकगायिका के रूप में भी प्रसिद्धी पाती रही। उन्होंने बसंत ऋतु की थीम पर गायन किया। मारीशस के पूर्व प्रधानमंत्री रामगुलाम जब अपने पूर्वजों की भूमि को देखने आए तो उस भूमि में शारदा के गीत उनके स्वागत के लिए थे।
शारदा सिन्हा के संगीत यात्रा में सब कुछ सहज नहीं हुआ। कई तरह के विरोध उन्होंने भी झेले। पहला कार्य़क्म दिया तो गांव वालों को एतराज हुआ कि गांव की बेटी स्टेजों में नाचेगी गाएगी। पिता सुखदेव ठाकुर ने किसी की नहीं सुनी और बेटी को गायिकी में पारंगत होने का पूरा अवसर दिया। यह सुखद संयोग था कि शादी के बाद पति बृजकिशोर सिन्हा ने भी उन्हें गायिकी के लिए प्रोत्साहित किया। अजब था कि जो लोग उनकी गायन संगीत पर नाराज रहते थे उन्होंने जब जै जै भैरवी असुर भयावनी गीत सुना तो उन्हें देवी कहकर भी पुकारा।
शारदा सिन्हा के गायन में वो खनक थी कि केवल मैथिली और भोजपुरी समाज तक ही उनके गीत नहीं पहुंचे। जिन्हें भोजपुरी मैथिली नहीं आती थी उन्होंने भी अनुवाद करके उनके गीतों को सुना। वजह यही थी कि जब भी उन्होंने कोई गीत गाया तो उसका अर्थ भले ही एक पल समझ न आया पर वो टीस और करुण पुकार का अहसास सुनने वालों ने किया। कई लोग ऐसे मिल जाएंगे जो कहते हैं कि उन्होने शारदाजी के गीतों को सुनकर मैथिली भोजपुरी सीखी।
शारदा सिन्हा खासकर छठ गीतों की प्रतीक बनी। बिहार की लोकपरंपराओं में छठ पर्व खास महत्व रखता है। छठ पर्व के लिए शारदाजी हर बार कोई न कोई गीत जरूर रिकार्ड कराती रहीं। इस बार भी जबकि वह कैंसर की बीमारी से असहनीय दुख झेल रही थीं तब भी उनका एक गीत सामने आया, दुखवा मिटाई छठी मइया। वह हमेशा कहती थी छठ के गीत ही उनका अर्घ्य है।
शारदा सिन्हा ने गायन क्षेत्र की हर विभूति का सम्मान किया। लताजी के गीतों को वह बहुत मन से सुनती थीं। बिहार की लोकगायन के लिए ही नहीं बल्कि उसे संकलित करने और लड़कियों के लिए विंध्य कला मंदिर की स्थापना करने वाली विंध्यवासिनी देवी और अपनी गुरु पन्ना देवी से वह अभिभूत रही। इन कलाकारो को शारदा सिन्हा ने अपनी प्रेरणा माना।
शारदा सिन्हा के गायन का फिल्म जगत ने बहुत सीमित उपयोग किया। नब्बे के दशक में मैने प्यार किया में उनका गाया गीत कहे तोसे सजना बहुत चर्चित हुआ था। मैंने प्यार किया में शारदाजी का गीत तो बहुत मशहूर हुआ पर शारदाजी को जितनी शोहरत मिली उससे ज्यादा की हकदार थी। गैंग्स आफ वासेपुर टू हन आपके हैं कौन जैसी चर्चित फिल्मों में उन्होंने गीत गाए। लेकिन उनके गाए गीत सीमित ही कहे जाएंगे। मुंबई की फिल्मों में लोकजीवन का और समावेश होता तो शारदा सिन्हा के लिए बार बार पुकार होती।
शारदाजी इस दुनिया में नहीं रही। उनके अनमोल गीत हमारी लोकसंस्कृति की धरोहर बन गए हैं । यह हमारी समृद्ध विरासत का हिस्सा बन चुका है। भारत सरकार ने उन्हें पद्मविभूषण से भी सम्मानित किया था। लोगों से उन्हें जो अपार प्रेम स्नेह मिलता था. उसे वह अपनी मूल्यवान संपदा मानती थी। उन्होंने भक्ति की लौ जगाई । आस्था के प्रति लोगों को जगाया। उन्होंने पहिले पहल छठ मइया गाकर लोगों से अपनी माटी की सुंगध और घर लौटने का संदेश दिया। लोकपरंपरा रिवाजों के प्रति सजग किया। अक्सर लोग भावुकता में कह देते हैं कि शारदा सिन्हा मिथिला की बेगम अख्तर हैं। बेगम अख्तर ने गजल ठुमरी दादरा गाकर दुनिया को मंत्रमुग्ध किया तो शारदा सिन्हा ने पूर्वांचल के गीतों खासकर छठ गीत गाकर जनमानस को भावविभोर किया। दोनों का अपनी अपनी विधा का ऊंचा आकाश है । दोनों समतुल्य हैं। बेगम अख्तर की आवाज में गहराई थी तो शारदाजी की आवाज में खनक थी । बेगम अख्तर की गायकी सुनने वालों को मंत्रमुग्ध करती थीं तो शारदा सिन्हा के गीतों में कसक है। दोनों की गायकी में दर्द था , अहसास था एक गहरी टीस थी । एक ने प्रेम वियोग और जीवन के सार को सुनाया दूसरे ने लोकपर्व को सजाया। बेगम अख्तर ने जो गाया वो भी अमर अजर है। और शारदा जी की वाणी में जो कुछ गूंजा वो अपनी जगह । संगीतकार खैय्याम ने जिन गजलों को बेगम अख्तर से गवाया वो लाजवाब है । वो जो हममे तुममे करार था, मेरे हमनफस मेरे हमनवा ये मोहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया जैसी बेगम अख्तर याद की जाएंगी तो हो दीनानाथ . छठी मै्या आई ना दुआरिया हम न जाइब दूसर घाट , पहिले पहिले छठ मइयां , , दुखवा मिटाई छठी मइयां, कहे तोसे सजना जैसे गीतो के साथ शारदा जी हमेशा लोगों के मन में रहेंगी। इस बार की छठ वर्प भी शारदाजी का गीत गूंज रहा था सोना सटकोनिया हो दीनानाथ। और सुनने वाले मायूस थे। जान रहे थे कि शारदाजी अब नहीं रहीं।