◆ रणभूमि दिगोलीखाल……अर्थात- “भैर ग्वला भित्तर ग्वला अर्ज-पुर्ज कैमा कर्ला”!
ट्रेवलाग…….नैनीडांडा महोत्सव 2020!
(मनोज इष्टवाल 1 फरवरी 2020 )
रोको…रोको..! अरे ठाकुर साs इधर कहाँ गाड़ी मोड़ रहे हो! फ्रंट सीट पर बैठा मैं चिल्ला पड़ा! ब्रेक चिंघाडे और प्रतिक्रिया मिली- देखो पंडा जी, आगे की सीट पर बैठकर मुझे ड्राईवर मत समझो! फिर बैक मिरर में दिनेश कंडवाल जी को देखते हुए बोले- भाई साहब, इस बामण को पीछे बिठाओ! आप आगे आओ! खैर इस हंसी ठिठोली में हुआ ये कि गाड़ी की ड्राइविंग सीट चन्द्रेस योगी ने सम्भाल ली!
मैं उसी हंसी ठिठोली व ठाकुर रतन असवाल के बनावटी गुस्से में घी डालता हुआ बोला- अरे भई! ऐसा करोड़पति ड्राईवर भला किसे मिलने वाला है! वैसे चन्द्रेश भाई तो कल दीबाखाल से ही ड्राइविंग सीट सम्भाले थे! अब आपकी ससुराल का क्षेत्र आ गया है! कोई ये न सोचे कि हमारा जवाई तो ड्राईवर है!
इससे पहले बात आगे बढती तब तक मैंने दिगोलीखाल की दो फोटो ले ली! विवेक नेगी हमेशा की तरह अपनी हल्की उगी दाड़ी खुजाते हुए मुस्करा दिए! वह इस सफर का भरपूर आनन्द इसलिए उठा रहे थे क्योंकि एक तो उम्र में हम सबसे छोटे दूसरा ऐसा सफर बमुश्किल जो मिलता है! रतन असवाल बोल पड़े- देखो पंडा जी, मैं पड्सोली तो जाने से रहा क्योंकि खाली हाथ ससुराल नहीं जाउंगा यह तय मानिए!
मेरी जगह चन्द्रेश बोल पड़े- अरे सर, हम गाँव नहीं सिर्फ राकेश जी के फ़ार्म हाउस में जा रहे हैं जो गाँव से थोडा ऊपर है! इस दौरान जगमोहन रावत जी मुझे राकेश जी का नम्बर भी उपलब्ध करवा चुके थे! मैं व चन्द्रेश योगी उनसे बात कर चुके थे! चन्द्रेश पड़सोली में वहाँ के गोर्ला थोकदार वंशज राकेश गोर्ला (रावत) के फ़ार्म हाउस को व्यवसायिक दृष्टि से समझाने में लगे थे कि उनके पास एक समय 20 हजार चिड़ियाएँ थी! आज भी 15 हजार के आस-पास होंगी इस क्षेत्र के पूरे मार्केट में उनका होल्ड है! यहाँ चिड़ियाएँ यानि मुर्गी मानिए! रतन असवाल बोले- हम्म! मुझे याद है कि उन्होंने अपने कीमती बसंत विदेशों में काटे हैं व अब नाइजीरिया के बाद यहाँ आकर कारोबार स्थापित किया है! उनके भाई जो एचडीएफसी में अच्छे पद पर कार्यरत हैं मुझे अभूत अच्छी तरह जानते हैं लेकिन इनसे मेरी मुलाक़ात ज्यादा नहीं है!
दिनेश कंडवाल बोले- अरे छोड़ो यार..पड़सोली, पुरसोली! सीधे कॉर्बेट चलते हैं! मुझे पता था वे मुझे चिड़ा रहे हैं! बमुश्किल 15 मिनट में जब हम पड़सोली गाँव के ऊपर कच्ची सडक पर बने मुर्गी फ़ार्म में पहुंचे तो चन्द्रेश बोले- ये बेल देख रहे हैं आप! इस पर काले अंगूर आते हैं! विवेक बोले- और इसकी बेहतर अंगूरी भी बनती है! हम मुर्गी फ़ार्म में दाखिल तो थे लेकिन कोई व्यक्ति रिस्पोंस देने को तैयार नहीं था! मुर्गी फ़ार्म के एक छोर पर कुछ ब्यक्ति आग जलाकर आग सेंक रहे थे लेकिन क्या मतलब कि वे दुआ सलाम कर दें! अचानक विवेक नेगी, रतन असवाल व दिनेश कंडवाल मुर्गी फार्म के बगल में बने दूसरे फ़ार्म में घुस गए! देखा देखी में मैं भी घुसा तो देखा यहाँ सैकड़ों बकरियां थी! अँधेरे में मुझे वे जंगली घुरल लग रहे थे! पहाड़ी नस्ल की सैकड़ों बकरियों की तांद देख मैंने मन ही मन इस कर्मयोगी की प्रशंसा की जिसने तब गाँव आबाद करने का बीड़ा उठाया जब गाँव खाली हो रहे हैं!
चन्द्रेश अब तक मुर्गी फ़ार्म के पीछे राकेश जी का आवास चेक कर चुका था वहां कोई नहीं था! हम लौट ही रहे थे कि मुर्गी फ़ार्म में काम कर रहे एक व्यक्ति बोले- आप बैठो ! बस वो पहुँचने ही वाले हैं! जरा सुन्दरखाल तक गए हैं! हमने एक दूसरे की आँखों में झाँका व वापस मुड़ गये! चन्द्रेश के कहने पर उस व्यक्ति ने मुर्गी फ़ार्म का दरवाजा खोला तो एक साथ सैकड़ों-कs..कs..क़s की आवाज कानों में पड़ी! मुर्गी बाडा भरा हुआ था! मुर्गीबाड़े को जिस तकनीक से बनाया गया था वह सचमुच काबिले-तारीफ़ था! हजारों की संख्या में मुर्गियां थी! दो रो खाली थे तो रतन असवाल जी ने पूछा-क्या इनमें बच्चे आ रहे हैं! उस व्यक्ति ने हाँ में सर हिलाया! अब हम मुर्गिबाड़े से बाहर निकल उसके पीछे बने राकेश रावत जी के आवास की तरह चल दिए! बाहर अंगीठी सुलग रही थी व कुछ मोड़े पड़े हुए थे! बाहर बैठने की जगह मैंने भीतर बैठना ज्यादा पसंद किया तो सभी अंदर आ गये! थोड़ी देर में एक दरम्याने कद का ब्यक्ति व एक कुर्ता सलवार फत्वी पहना अधेड़ उम्र का ब्यक्ति अंदर प्रविष्ट हुआ! दुआ सलाम में पता चला कि कौन राकेश रावत हैं व कौन हीरा सिंह बिष्ट! शुरूआती मुस्कराहट के बाद सिर्फ नपे तुले शब्दों में बात करते राकेश जी के व्यवहार से मुझे पता चल चुका था कि यह व्यक्ति जल्दी से घुलने मिलने वाले नहीं हैं! मानव प्रवृत्ति के अनुसार उन्होंने खुद हमारे लिए चाय बनाई! इस दौरान दोनों बिजनेशमैन अर्थात रतन असवाल व चन्द्रेश व्यवसायिक चर्चा में (राकेश जी व उनके साथ हीरा सिंह जी) लिप्त रहे! जिसमें मेरा कोई इंटरेस्ट नहीं था! मैं तो सोच रहा था कि ये खड़े उठे और हम जल्दी से पड़सोली गाँव जाकर वहां के दरबारगढ़ की फोटो खींचे! मेरी आँखें क्वाठा (किले) की बनावट का अध्ययन करें व मैं अपनी बरसों पूरी मुराद पूरी कर सकूं!
रतन असवाल बोल पड़े- अब हमें चलना चाहिए! राकेश जी बोले- क्यों आज यहीं रुक लेते तो अच्छा होता! चन्द्रेश ने जबाब दिया कि आज मर्चुला में नेगी जी के यहाँ उनकी व्यवस्था है उनके सहपाठी यादव जी पहले वहां जा चुके हैं! राकेश जी चुप हो गये तो मैंने पूछा- पड़सोली गाँव कितना दूर पडेगा यहाँ से! तो हीरा सिंह जी बोले पड़े- चार खेत नीचे! मैं बोला- तब तो हम फटाफट जाकर फोटो खींचकर लौट आते हैं! वे बोले- क्यों नहीं मैं साथ चल देता हूँ! मैं मन ही मन बहुत प्रसन्न हुआ लेकिन घर से बाहर निकलते ही सारी ख़ुशी चकनाचूर हो गयी! बाहर अन्धेरा घिर गया था! सडक तक पहुँचते हुए चन्द्रेश बोले- चलो दो मिनट की ही तो बात है! रतन असवाल बोले- देख लो, आप लोगों को जाना है तो! मुझे लग गया था कि वे जाने के मूड में नहीं हैं! शायद ससुराल की बात हुई तो स्वाभाविक तौर पर खाली हाथ जाना ठीक नहीं लगता! भले ही उनके सास-ससुर हल्द्वानी गौला-पार बस गए हों!
मैं हीरा सिंह जी की तरफ देखते हुए बोला- मुझे लगता है हम कल सुबह लौटते समय तसल्ली से क्वाठा की फोटो खींच पायेंगे! वे बोले- आप लोगों की मर्जी! वैसे भी जीतू की तलवार की चाबी देहरादून चली गयी लडके के साथ! जीतू की तलवार…! मेरे मुंह से निकला? वह बोले- अरे साब, उस तलवार के बड़े किस्से हैं ! जहाँ चन्द्रेश जी का कैंप साइड है वहीँ तो “जीतू गोर्ला का थौळ” हुआ! मेरी आँखें चमक गयी ! ओंठ गोल होकर सीटी बजाने ही वाले थे कि खुद को संयत किया और बोला- “भैर ग्वला-भित्तर ग्वला अर्ज पुरज कैमा कर्ला!” हीरा सिंह गोर्ला कुछ समझ पाते उससे पहले ही मैं बात गुल कर गया व हम वहां से इजाजत लेकर आगे की ओर बढ़ गए!
चन्द्रेश योगी से मैं बोल पड़ा- वही ड्राइविंग सीट पर मेरी बगल में थे! भाई बड़ी ऐतिहासिक जगह ढूंढी आपने अपने कैंप के लिए! “जीतू गोर्ला का थौळ”…..! जहाँ कभी सदियों पूर्व मेला लगता था! क्षेत्रीय जनता की फ्रियादें सुनी जाती थी! चन्द्रेश खुश होकर बोले- वाह भाई साहब मजा आ गया! रतन असवाल बोले- देख भुला चन्द्रेश! तेरी कैंप साइड पर अब इस बामण के चरण पड़ गए! देख बल क्या नया ढूंढ लाता है! बात इसलिए आई गयी हो गयी क्योंकि हम सुन्दरखाल पहुँच चुके थे! जहाँ ज्यादात्तर दुकाने बंद हो चुकी थी लेकिन कुछ रही-सही दुकानों की बगल में एक दूकान में गर्मागरम जलेबी बन रही थी! चन्द्रेश ने कहा ! हम गर्मागरम जलेबी खाकर निकलेंगे! विवेक भाई जाकर बोल उसे! तब तक मैं गाड़ी लगाता हूँ! चन्द्रेश विवेक को किसी और नाम से पुकारते हैं!
गाडी से उतरकर जलेबी की दुकान तक पहुंचे तो दो शराबी एक स्कूली बच्चे को खदेड़ने डांटने में लगे थे! कहते सुनाई दे रहे थे कि दूसरे दिन से तुझे मैंने स्कूटर में घूमते देखा तो तेरी टाँगे तोड़ दूंगा! व्यक्तिगत मामला था अर्थात हम कहते भी क्या! वैसे ही नया क्षेत्र..! लेकिन शराबी होकर यों दूसरे को शिक्षा दें वह मुझे बड़ा अखर रहा था! आखिर वह बच्चा दो पीस जलेबी के खाकर चला गया तो वह शराबी मुझसे मुखातिब होकर बोला- नाराज मत होना! हम तो बिगड़ गए हैं फिर यूँ बच्चों को कैसे बिगड़ने दें! समझता नहीं साला..! मैं मुस्कराया और बिना कुछ बोले आगे हो लिया!
जलेबी खाकर हम मर्चुला के लिए बढ़ चले! मेरे दिलो-दिमाग में तो अब पड़सोली दरबारगढ़ की वह तलवार घूम रही थी जिसने बर्षों पूर्व भी कई गर्दनें काटी व आज भी वह जादुई तलवार तांत्रिक क्रियाओं में काम आ रही है! यह अद्भुत तलवार वही थी जिसने जीतू गोर्ला के थौळ (न्याय दरबार) में उसी की गर्दन माप दी! आँखें बंद करते ही मैं आज से लगभग दो ढाई सौ साल पहले पहुँच गया! मुझे दिगोलीखाल का जीतू गोर्ला का थौळ साफ़ साफ़ दिखने लगा! फिर क्या था पूरी ऐतिहासिक घटनाक्रम याद हो लिया!
गोरखा काल से कुछ ही साल पहले घटी यह घटना कई वीर गाथाओं में व ऐतिहासिक पाँवडों में शामिल है! पहले गोरला जब ह्न्त्या पूजते थे तब भी जीतू की हन्त्या उन्हें पूजनी होती थी! दरबार गढ़ का नरसिंग पूजा और ह्न्त्या नहीं पूजी ऐसा सम्भव नहीं था! कुछ अबूझ जानकारियाँ यहाँ गोरला वंशजों के साथ बांटना चाहता हूँ! क्योंकि मैं इतिहास को इतिहास की तरह कहूँ तो क्यों न उन किंवदन्तियों का भी जिक्र करता चलूं जो बर्षों से पीढ़ी दर पीढ़ी यूँहीं आगे बढती हुई स्टोरी टेलर की तरह मुझ जैसे भौंदू शोधी के कानों तक पहुंचकर अमर हो गयी! हीरा सिंह गोर्ला ने भी तो वही कहा था जो मेरे कानों ने बर्षों पूर्व सुना था! यही कि कांडा व पड़सोली में भाई बाँट विवाद का न्याय जब जीतू गोर्ला की अदालत यानि थौळ में पहुंचा व बर्षों तक जीतू गोर्ला उसका इन्साफ नहीं कर पाए और बाहर जनता में यह आवाजें उठने लगी कि “भैर ग्वला-भित्तर ग्वला अर्ज पुरज कैमा कर्ला!” (यानि बाहर मुख्यद्वार पर भी ग्वला (गोर्ला), अर्जी लेने वाला भी गोर्ला व न्याय सुनाने वाला भी गोर्ला! तो इन्साफ की उम्मीद किससे करें)! इससे जीतू गोर्ला भी बहुत परेशान थे क्योंकि जनता जनार्दन को वह जो भी फैसला सुनाये लेकिन पारिवारिक विवाद कैसे निबटाया जाय यह उनकी समझ नहीं आ रहा था क्योंकि कांडा के गोरला थोकदार मंगतू व पड़सोली के हिमतू गोर्ला में यह आपसी द्वंध बर्षों से चलता आ रहा था! तब इन थोकदारों के परिवार दोनों ही गाँव में रहा करते थे! कहते हैं जीतू गोर्ला, हिमतू गोर्ला का बाप था इसलिए भी यह न्याय करने में उन्हें दिक्कत हो रही थी! एक दिन जीतू के थौळ में न्यायलय लगा था कि घोड़ी में सवार मंगतू भी कांडा से वहां पहुँच गया! हिमतु व मंगतू का विवाद गहराया तो जीतू गोर्ला बोल पड़े! इस तरह इन्साफ नहीं हो पायेगा! तुम दोनों में से उठाओ यह अपने पूर्वज पत्वा गोर्ला की निसाफ़ी (इन्साफ) तलवार ..! और मेरी गर्दन काट डालो! जिधर मेरा सिर गिरेगा उधर की सरहद उसकी! कहा जाता है कि मंगतू गोर्ला थोकदार महागुसैल होने के साथ साथ भंगलची भी थे इसलिए उन्होंने आव-देखा न ताव और जीतू गोर्ला की गर्दन उड़ा डाली! उनकी गर्दन कांडा की दिशा में पड़ी अत: तब से कांडा मंगतू का व पड़सोली दरबारगढ़ हिमतू का हुआ! दरबार गढ़ मिलने के बाद हिमतू के वंशजों ने मंगतू के वंशजों को दरबार गढ़ से बाहर बसने को कहा व खुद दरबार गढ़ के अधिपति कहलाये! लोगों का तो यह भी मानना है कि “ मंगतू बौल्या मंगतू कैला बौल्या..! कांडा जोग्युं को मरी भंग्लू पिला” वाला गीत तभी से प्रचलित है! (यह सिर्फ दंत कथाओं में बर्णित हैं इसके ऐतिहासिक सन्दर्भ भी कहीं हैं या नहीं मैं नहीं जानता लेकिन इतना जरुर है कि कुछ बर्ष पूर्व तक भी जहाँ गोरला तीलू रौतेली का रणभूत नचाते थे वहीँ अपने पूर्वजों की ह्न्त्या भी पूजते थे! हन्त्या जीतू गोर्ला की पूजी जाती थी यह भी जानकारी में आया है!)
हीरा सिंह गोर्ला भी इस तलवार की इस गाथा पर सहमति व्यक्त करते हैं लेकिन उन्हें इस बात का ज्ञान नहीं है कि उनके वे कौन पुरखे थे जिन्होंने इस तलवार से जीतू गोर्ला का गला काटा था! जीतू गोरला का थौळ तब से मशहूर हो गया! राजा तक बात पहुंची तब सारी बात जानने के पश्चात राजा ने हुक्म दिया – “क्योंकि यह जीतू गोर्ला द्वारा खुद दिया गया निर्णय था इसलिए इसे न्यायोचित्त माना जाय!” और मंगतू बाइज्जत बरी हुए!” तभी से यह कहावत भी चरितार्थ हुई कि “भैर ग्वला-भित्तर ग्वला अर्ज पुरज कैमा कर्ला!”!
दरबार गढ़ की यही तलवार….! आज भी जादुई है! यह तलवार दुधारी है जिसकी मूठ पर चांदी मढ़ी हुई है! जोधपुर से पड़सोली क्वाठा के गोर्ला रावत जगमोहन सिंह ने 1991 की अपनी फोटो तलवार के साथ साझा करते हुए बताया कि इस तलवार की मूठ से पानी की बूंदे धार की तरफ बढ़ती हुई जब नोक तक पहुँचती हैं तब उस पानी को किसी बर्तन में इकट्ठा कर दूर-दूर का जनमानस अपने साथ ले जाता है! इस सत्यता को प्रमाणिकता देने के लिए हीरा सिंह गोर्ला व राकेश जी ने भी हामी भरी व कहा कि काशीपुर, उधमसिंह नगर, रामनगर ही क्या पहाड़ों से भी लोग आकर इसका पानी ले जाते हैं! यह पानी तांत्रिक क्रियाओं में प्रयोग में लाया जाता है! जिस महिला के बच्चे नहीं होते इस पानी को पी लेने मात्र से उसका गर्भ ठहर जाता है ऐसा आम जन का मानना है!
गढ़ गाथाओं के इतिहास में क्या-क्या अबूझ कहानियां जुडी हैं व उसके क्या अच्छे बुरे परिणाम हैं यह कह पाना अर्ध सत्य जैसा है लेकिन जो कहानियां, पांवड़े हमारे लोकसमाज लोक संस्कृति के साथ जागर व भड वार्ताओं के साथ आगे बढ़ी हैं उनमें कहीं न कहीं सच्चाई अवश्य है! आइये मैं गुजडू पट्टी में पड़सोली के सयाणा/थोकदारों का नाम बता दूँ जिन्हें गोरखा शासन काल में वहां का गर्खा (पट्टी) सयाणा नियुक्त किया गया! उनमें हिमतु रौत के पुत्र उदमतु रौत व थौबा रौत हुए! जिनके छ: परिवार दरबार गढ़ में हुए और अब यही बढ़कर लगभग 60 परिवार बन गए हैं!
(आगे की कड़ी में शामिल करूंगा पड़सोली का दरबारगढ़ क्वाठा…तब तक के लिए इजाजत! कृपया भूल-चूक पर मार्गदर्शन करें व ऐसे ऐतिहासिक प्रसंगों को ज़िंदा रखने के लिए मेरी हौसला अफजाई भी करने का कष्ट करें)
क्रमशः………………………….!