(मनोज इष्टवाल)
आखिर ये “डाळई बख़रा” है क्या…? मुझे नहीं लगता कि वर्तमान की पीढ़ी के युवा इस डाळई बख़रा फेस्टिवल के बारे में कुछ जानते हों। यहां तक कि उस गांव के भी..! जहां यह फेस्टिवल महीने भर चलता है।
पौड़ी जनपद के पट्टी खातस्यूँ का बड़ा राजपूती गांव है सीकू। जहां आज भी अपनी लोक संस्कृति, लोक-परम्पराओं के जीवन को जिंदा रखने के लिए ग्रामीण हर सम्भव पैरवी करते हैं। अब चाहे वह नन्दा पाती मेला हो या लाटू घँडियाल मेला..! या फिर चैत्रमास की फुलदेई/फुलियात के मध्य एक माह तक चलने वाला “डाळई बख़रा” मेला।
आज भले ही ग्रामीण परिवेश में यह डाळई बख़रा शब्द धुंधला हो गया है, ठीक वैसे ही जैसे “छौंड्यालो टीको” शब्द। इस शब्द का अर्थ अच्छे खासे गढवाळी बोलीविद्ध भी नहीं बता पाएंगे। अब डाळई बख़रा शब्द समय की धारा के साथ मिट सा गया है। वर्तमान पीढ़ी इसे थडिया गीत त्यौहार मानते हैं। लेकिन कुछ बुजुर्ग इसे बूढ़ा त्यौहार नाम से भी जानते हैं।
यों तो पूर्व में सम्पूर्ण गढ़वाल मंडल के 80 प्रतिशत गांवों में चैत्र मास के शुभारंभ के दिन अर्थात “शिवरात्रि” के दिन से लेकर पूरे माह अर्थात चैत्र प्रतिपदा तक थडिया-चौंफला गीतों से गांवों के आंगन सजते थे। लेकिन पलायन की मार व तेजी से बढ़ते वैश्वीकरण की मार ने न सिर्फ गांव खाली किये बल्कि गांव की लोक परम्पराएं, लोकसमाज व लोक संस्कृति ने भी ग्रामीण परिवेश से दम तोड़ दिया है।
सीकू गांव पौड़ी से मात्र 15 से 20 किमी. की दूरी पर अवस्थित होने के बावजूद भी अपनी जड़ों से टस से मस नहीं हुआ। आज भी यहां पूरा गांव सरसब्ज है। यहां रोजगार, नौकरी व स्वरोजगार की दर 90 प्रतिशत से भी ऊपर है। ऐसे में जहां 60 प्रतिशत रोजगार, नौकरी वाले गांव खाली हो गए, सीकू गांव अपने इतिहास के साथ अपने लोक के साथ खड़ा है।
बूढ़ा त्यौहार कहें या फिर बाळई बख़रा त्यौहार…! सीकू गांव में थडिया गीतों की शुरुआत शिवरात्रि यानि चैत्र मास के प्रारम्भ से होती है। यहां एक अजब गजब प्रचलन है। यहां इस त्यौहार का शुभारंभ भी पुरुष बर्ग क़रता है और समापन भी पुरुष बर्ग के हाथों ही होता है।
सीकू गांव की बेटी जो दिल्ली रहती है, सिर्फ इस त्यौहार में शिरकत करने गांव पहुंचती है। नाम है गीतांजलि बिष्ट ‘रानू’..! ‘रानू’ कहती है मामा जी, जैसे हमारे गांव की संस्कृति है ऐसी कहीं और भी होगी यह कहना तो मुश्किल है लेकिन इतना दावे के साथ कह सकती हूं कि ऐसी लोकपरम्परायें अन्य कहीं जीवित नहीं होंगी। ‘रानू’ बताती है कि उनके यहां गीतों की तीन दिन शुरुआत गांव के पुरूष वर्ग करते हैं, ततपश्चात लगभग 24 दिन महिलाएं थडिया-चौंफला गीत नृत्य हर रात्रि उन आंगनों में करती हैं जिनके द्वारा उस बर्ष का त्यौहार संचालन का आमंत्रण दिया जाता है। फिर अंतिम तीन दिन तक पुरुष गीत-नृत्य में भागीदारी निभाते हैं। और अंतिम दिन घँडियाल देवता व नन्दा देवी के नाम भेली व डाळई बख़रा चढ़ाए जाते हैं। अंतिम दिन बैशाखी के रोज दिन में गीत लगाकर कार्यक्रम का समापन किया जाता है।
मैंने रानू से पूछा- ये ड़ाळई बखरों का क्या इतिहास है। वह बोली- मामा जी, ये तो मैं आपके मुंह से ही सुन रही हूँ। फिर भी बुजुर्गों से पूछुंगी, लेकिन हां इतना जरूर है कि गांव में एक परम्परा है जो सैकड़ों बर्षों से चली आ रही है कि हर साल ये गीत उसी के घर पर लगेंगे जिनका लड़का हुआ हो। चाहे चार लड़के हों लेकिन उन्हें कभी न कभी बड़े लड़के के नाम का बकरा घँडियाल देवता व नन्दा देवी के नाम से देना पड़ता है। इस बार के इस त्यौहार के आयोजन हेतु 7 आंगनों में महीने भर गीत लगाए गए हैं। जिनमें श्री प्रकाश गुसाईं मल्ला ख़्वाल, डॉ कमल सिंह बिष्ट व रघुनाथ सिंह बिष्ट , सोबन सिंह ठिलका गाड़, ओंकार सिंह बिष्ट पदनु ख़्वाल, ध्रुव सिंह बिष्ट व कमल सिंह बिष्ट तिबरी ख़्वाल मुख्य हैं। ध्रुव सिंह बिष्ट जी ने दो बकरे दिये। अपने दो नातियों के नाम।
छौंड्यालो टीको…!
मेरो टीको ऐ जालो…छौंड्यालो टीको..! यह थडिया गीत मूलतः झुमैलो से जन्मा हुआ प्रथम दृृष्टआ लगता है। अब यह कब थडिया बन गया यह कह पाना सम्भव नहीं है। यह गीत सीकू गांव के ग्रामीण उस समय गाते हैं जब अंतिम दिन आंगन में दरी बिछाई जाती है व लोग उसके चारों ओर यह गीत गाकर नृत्य करते हैं। इस दौरान दरी के ऊपर एक ठेलकि रखी जाती है जिसमें वह बच्चा बिठाया जाता है जिसके नाम के गीत लगाए जाते हैं या डाळई बख़रा दिया जाता है। इस दौरान सभी उनका टीका करते हैं, मिष्ठान वितरण होता है व गांव की महिलाएं भेली गुड़ देकर उस बच्चे को आशीर्वाद देते हैं।
इसी गीत में देवताओं का सुमरन किया जाता है। आगे प्रकृति की खुशहाली का बर्णन होता है। दर्जनों गीतों में शामिल गीतों में “सीमी नागेलो आयो”, पंचनाम देवता, सुफल कै जाइयाँ, रैमासी को फूल..कविलासा, कंसेकि थाती म जन्मु नारेणा, भारत महाना जै भारत सहित दर्जनों थडिया गीत लगाए जाते हैं।
सीकू गांव की बसासत।
मूलतः पहाड़ों के ज्यादात्तर गांवों के नाम उस गांव की बहुसंख्यक जातियों के नाम से पड़ता है लेकिन यहां उसके बिल्कुल उलट है। इस गांव में बमुश्किल दो चार परिवार ही सिखवाल नेगी रह गये हैं जो यहां के मूल बताए जाते हैं। सिखवाल नेगी मूलतः सिख जाति से सम्बंधित थे, जिनका आगमन यहां सिखों के गुरु गुरुनानक के साथ हुआ है।
उनका गढ़वाल आगमन 1528 के आस पास माना जाता है। इस दौरान उनके आगमन के साथ उनके कई अनुयायी गढ़वाल आये। जहाँ -जहाँ गुरु नानक ने डेरा डाला वहीं वहीं सिख धर्म अनुयायियों ने अपने गुरुद्वारे बनाये और कालांतर में वहीं के रैबासी हो गए। आज भी गढ़वाल क्षेत्र में उनके अनुयायी सिख नेगी के रूप में जाने जाते हैं व उनके गढ़वाल के ठीक ठाक राजपूत परिवारों के साथ रिश्तेदारी भी है।
सीकू गांव के सिख नेगी कब सिखवाल नेगी हो गए यह जानकारी किसी के पास उपलब्ध नहीं है लेकिन सिखवाल नेगियों के कारण इस गांव का सीकू पड़ा यह सभी जानते हैं।
विकास खण्ड पाबौ पौड़ी गढ़वाल का 112 परिवारों के सीकू गांव में ‘संघेला बिष्ट’जाति को ठाकुर परिवार सबसे अधिक मात्रा में हैं। इसके अलावा यहां सिखवाल नेगी व दो चार परिवार खाती गुसाईं व थपलियाल पंडितों व कुछ शिल्पकार परिवार भी रहते हैं।
सीकू गांव के बिल्कुल सामने हिमालयन की उतुंग शिखरें दिखाई देती हैं। यहां से नन्दा घुंघुटी पर्वत शिखर बेहद साफ नजर आती है।
घँडियाल देवता व नन्दा देवी।
इस गांव के दाहिनी ओर सीकुखाल नामक स्थान में नाग देवता विद्यमान है। साथ ही यहाँ हर बर्ष घँडियाल देवता की पूजा होती है व 12वें साल में ऐतिहासिक नन्दा देवी का पाती मेला आयोजित होता है।
यहां संगेला/संघेला बिष्ट जाति का आगमन अपने गढ़वाल आगमन से डेढ़ सौ बर्ष बाद अर्थात 1550-52 के आस-पास माना जाता है। संगेला/संगला बिष्ट जाति के लोग गुजरात क्षेत्र से संवत 1400 में गढ़वाल में आए। किंवदंतियों के आधार पर बताया जाता है कि संघेला बिष्ट श्रीनगर राजधानी बसने के बाद चाँदपुर गढ के थोकदार अजयपाल के काल में उनकी सेना के प्रमुख अंग थे व 1512 में 52 गढो को जीतकर श्रीनगर राजधानी बनाकर इन्होंने इस क्षेत्र का नाम गढ़वाल किया व गढ़वाल के राजा कहलाये। भले ही इतिहास में दर्ज न हो लेकिन यह बात प्रचलन में भी है कि शिशु पाल संगेला ही सर्वप्रथम सीकू आकर बसे।
नन्दा देवी/घँडियाल के सीकू से तार।
माना तो यह भी जाता है कि चमोली गढ़वाल के जेठा बिष्ट राजपूतों का आगमन भी गुजरात से उसी काल मे हुआ जिस काल में संगेला बिष्ट आये लेकिन जेठा बिष्ट का इतिहास नहीं मिलता। जेठा बिष्ट का इतिहास व दानू नेगियों का इतिहास कहीं न कहीं माँ नन्दा व लाटू देवता से जुड़ा मिलता है। बाण गांव माँ नन्दा के कैलाश पर्वत जाने के रास्ते मे पड़ता है, जहां से लाटू घँडियाल उनकी अगुवाई क़रता है। बाण में लाटू देवता का प्राचीन मंदिर है ।
यहां अगर हम संगेला जाति वंशजों के घँडियाल देवता व नन्दादेवी से तार जोड़ते हैं तो कहीं न कहीं यह तथ्य सामने आता है कि कहीं पूर्व में संगेला बिष्ट इसी क्षेत्र से सीकू आकर तो नहीं बसे। कुछ लोगों का मानना है कि सदियों पहले उनके पूर्वज नन्दा राजजात में शामिल हुए थे तभी से लाटू घँडियाल व माँ नन्दा उनके साथ यहां आ गयी व उनकी कुलदेवी कुलदेवता बन गए।
बहरहाल अभी इस बिषय में अधिक शोध की आवश्यकता दिखती है। मैं इतना ही अभी तक जुटा पाया हूँ। मेरा अनुरोध है कि आपके पास इस सम्बंध में छोटी बड़ी जो भी जानकारी हो वह साझा करने का कष्ट करें ताकि हमें कुछ महत्वपूर्ण बिंदु मिल सकें जो हमें इतिहास के करीब ले जाएं।