(मनोज इष्टवाल ट्रेवलाग 30 नवम्बर 2014)
सर-बडियार यानी उत्तरकाशी जिले के रवाई क्षेत्र का एक ऐसा गॉव जिसके आठ गॉव तक जाने के लिए पुरोला से लगभग 30 से 40 किलोमीटर की पैदल यात्रा गुन्दियाट गॉव से शुरू करनी पड़ती है।
यह भी दैवयोग रहा कि मैं इन गॉव तक दो बार गया हूँ और दोनों बार यहाँ स्थित कालियानाग के मंदिर में लगने वाले मेले में शामिल हुआ। सन 2009 व अब 2014 में। कालिय नाग का जन्म यहीं हुआ इस बात के पुख्ता प्रमाण भी मिलते हैं।
जयाड़ा जाति के राजपूतों के इन गॉव के लोग आज भी समाज से काफी कटे हुए हैं। भले ही जो आकर पुरोला इत्यादि जगह बस गए हैं और शिक्षित हो गए हैं उनकी दिनचर्या में काफी अंतर आ गया है।
सर-बडियार के लोगों का पर्वत क्षेत्र और जौनसार क्षेत्र के लोगों से भेड़ बकरी चुगान के कई झगड़े मार-काट भी यहाँ के लोकगीतों में वर्णित हैं।
फिलहाल यह बड़ा बिषय है। मैं इस दूसरी फोटो पर आपका ध्यान फोकस करना चाहता हूँ। यहाँ के सयाना का यह घर सिर्फ टिहरी राजा के आगमन पर ही उनकी आव-भगत के लिए खुलता था कहते हैं टिहरी नरेश का यहाँ पूर्व में आना जाना होता रहता था।
इस घर की बनावट से मैं खुद आश्चर्य में पड गया कि सिर्फ लकड़ी से निर्मित इस घर में वास्तु का बेमिशाल कार्य काष्ट पर उकेरा नजर आता है। तब मैं इस पर विस्तृत शोध नहीं कर पाया लेकिन एक बार पुन: इस गॉव जाकर इस पर कार्य करने की इच्छा है।
आज भी याद आ जाती है पवाणी पर्वत की चन्द्रमणि!
2013 में हम स्वर्ग लोक के उस रास्ते का सफर कर रहे थे जिसके एक ओर स्वर्गारोहिणी तो दूसरी ओर बेहद खूबसूरत बुग्यालों का दूर -दूर तक साम्राज्य का क्षेत्र हर की दून था। जिसके बुग्यालों के शीर्ष पर बर्फीले पहाड़ आटा पर्वत, हरपु, नील कंठ व स्वर्गारोहिणी चारों ओर से इसकी खूबसूरती को कैद किये हैं। ओसला, पवाणी, गंगाड, धारकोट व डाटमीर इस क्षेत्र के ऐसे गॉव हैं जिसके 40 किमी क्षेत्रफल में न सडक है और न विद्युतीकरण का उचित माध्यम।
मुझे अचानक जब भी कोई लोक गीत कानों में सुनाई देता है तो जाने क्यूँ पवाणी की चन्द्रमणि का वह लामण याद आ जाता है जो उसने तब सुनाया था। लामण के बोल आज भी कानों में गूंजते हैं लेकिन शब्द क्या थे जोर देकर याद करने की कोशिश के बाबजूद भी याद नहीं आते. उन शब्दों में जो पीड़ा का बखान था वह दिल चीर देने को काफी थे। आपको भाषा समझ में भी नहीं आएगी लेकिन शब्द संसार इतना ब्यापक होता है कि उसकी पीड़ा अंतस को वैसे ही महसूस करा देता है।
चन्द्रमणि तब कस्तूरबा गांधी आवासीय बालिका विद्यालय की छात्रा थी इसलिए मुझे अपने गॉव अपने क्षेत्र में देख बेहद खुश हुई। मैंने उस से अनुरोध किया था कि एक लामण गीत सुना दे। शकुचाई चन्द्रमणि ने मेरा दिल नहीं तोड़ा और अपनी कुछ सहेलियों को साथ लेकर उस लोक में डूब गयी जहाँ पर्वत की गहरी कंदराएं हैं बड़े बड़े पहाड़ों के मध्य इस हिमालयी भूभाग में रहने वाले हिमवासी हैं, जिनका बारहों माह पहनावा जरा हटकर होता है।
यहाँ महिलाएं सदरी, घुन्डिया, फर्जी/चोलटी (ऊनिकोट) व पच्यूडी/टोंटी (ऊनि कमरबंद), ढांटूली (सर में) व खुर्सा (ऊनि जूता) पहनती हैं जबकि पुरुष छोलटी फरजी, थापका (कमर में बाँधने की ऊनि रस्सी), सिकोई (टोपी), सुलत़ाण (पैजामा) व सदरी के साथ खुरसा भी पहनते हैं, जो यहाँ के जनमानस की बिशेष पहचान होती है। वहीँ जेवर के नाम पर यहाँ चुनिन्दा गिने चुने नाम हैं जिनमें गोखुरू(कान में), नाथ (नाक में), तैमाणी (गलेमें), पैजा(पाँव में), धागुले (हाथ में) और चौराड़ी (सिर में) पहने जाने वाले जेवर हैं।
काश….चन्द्रमणि से दुबारा मुलाक़ात होती तो मैं उसकी इस लामण को देहरादून या दिल्ली किसी स्टूडियो में जरुर रिकॉर्ड करवा देता. काश …पर्वत क्षेत्र का कोई ब्यक्ति मुझे लामण का महत्व समझा सकता!
काश…………………………………….कोई उस छोटी सी परी को यह सुध दिला सकता कि आज भी उसके सर उसके लामण के साथ उसकी खुद बिसराते हैं।