(मनोज इष्टवाल ट्रेवलाग 17 से 19जून 2019)
आज विज्ञान चाहे तो हर बात को नकार दे लेकिन वह ऐसे लोक को नकार दे ऐसा कदापि सम्भव नहीं है। इस यात्रा पर मैं भी अपने मित्रों के साथ इसीलिये निकला था ताकि उनके आगे मैं वह साबित कर सकूं जिसे वे नकारते रहे हैं। और तो और ये मुझे परीलोक का पत्रकार कहना भी शुरू कर देते थे।
विगत 17 जून 2019 को हम (ठाकुर रतन सिंह असवाल, दिनेश कंडवाल) लगभग सवा नौ बजे देहरादून, विकासनगर, कट्टापत्थर, नैनबाग,डामटा,नौगॉंव, पुरोला होते हुये लगभग सवा तीन बजे जरमोलाधार जा पहुंचे। यहां चाय पकोड़ी के लिए बैठे ही थे कि कुछ समय बाद ठाकुर रतन असवाल के मित्र प्रधान ग्राम सभा कुकरेड़ा चतर सिंह जी, नुनाई के अमर सिंह चौहान व खेडमी के समाजसेवी व भाजपा किसान मोर्चा के उपाध्यक्ष अनिल पंवार व महासू देवता के वजीर वहां पहुंच गए। अब यहां से योजना बनी कि हम देवजानी रात्रि विश्राम को जाएंगे। हम खरसाडी, भदरासु, रास्ती, डोभाल गाँव, रयालगांव, कुमणाई, किया, सतरा होते हुए लगभग पौने छ बजे के आस पास देवजानी जा पहचे जहाँ पहुंचते ही परसुराम सिंह पंवार व उनके परिवार ने खुलेमन से हमारी आवाभगत की।
यह सन्दर्भ 17 जून का था अतः इसे हम आने वाली यात्रा के पृष्ठों में सजायेंगे। हम 18 जून 2019 की उस शाम का वर्णन आपको सुनाते हैं जब परियों की कहानियों पर बात चल रही थी। आज हमारा रात्रि विश्राम नुनाई में अमर सिंह चौहान मालदार के घर में था। जहां उनके पिता औतार सिंह चौहान जी जो मूलतः जोटाडी गॉंव बंगाण क्षेत्र से आकर यहां बस गए हैं, से बतौर स्टोरी टेलर मेरी बात हुई। औतार सिंह जी मूलतः पेशे से ठेकेदार हुए जिनकी कालांतर में हजारों की संख्या में भेड़ बकरियां हुआ करती थी लेकिन वर्तमान में सरकार का इस व्यवसाय के प्रति रुझान कम होने से अब यह व्यवसाय 600 भेड बकरियों के आस पास आकर सिमट गया है।
अभी ग्राम सभा कुकरेडा के ग्राम प्रधान चतर सिंह रावत व अन्य मित्रों से मातृ, आँछरी, परियों पर बात चल ही रही थी कि औतार सिंह जी बोली- इन सबका अस्तित्व नकारा नहीं जा सकता। अगर ऐसा होता तो आजतक इनका बर्चस्व ही खत्म हो जाता।
औतार सिंह चौहान बताते हैं कि मैंने भेड़ बकरियों के साथ पर्वतों, बुग्यालों पर इनके अस्तित्व को बेहद करीब से देखा है! वे कहते हैं हम भेडालों के साथ जंगलों का देवता भृंग हमेशा साथ होता है व उसी के पीछे हम विकट परिस्थितियों में भी अपनी दैनिक दिनचर्या का जीवनयापन करते हैं! चतर सिंह रावत बीच में बोल पड़ते हैं- अरे पंडित जी हमने तो अब देवबन में जुटने वाले मेले के लिए वहां टिन सेड्स डाल दिए हैं! जिसमें बंगाण, पिंगल, मासमोर क्षेत्र के अलग-अलग स्थान हैं आज सभी रात गुजारने के लिए उन्हीं टिन सेड्स में रहते हैं वरना इस से पहले पूरी रात देवदार के जंगल में खुले आसमान के नीचे यूँहीं गुजारनी पड़ती थी!
अब चतर सिंह रावत भी अन्य साथियों के साथ अंदर वाले कमरे में प्रविष्ट हो चुके थे! शायद रात्री भोजन से जुडी तैयारियां जो देखनी थी! ड्राईन्ग रूम में मैं अब औतार सिंह चौहान जी के साथ था! उन्होंने बताया कि हर बर्ष यह मेला जून माह में लगता है! इस बर्ष भी अभी हफ्ता भर पहले यानि 9 जून 2019 को यह मेला आयोजित हुआ है! इसमें लोग शनिवार को जाते हैं और पूरी रात देवबन के घनघोर जंगल में ब्यतीत कर रविवार सुबह अपने अपने पंडितों से पूजा करवाकर लौटते हैं!
उन्होंने बताया कि यहाँ उत्तराखंड व हिमाचल से वे माँ बहनें ज्यादा मात्रा में पहुँचती हैं जिन पर बनदेवियों/परियों/मातृकाओं/एड़ी-आँछरियों का प्रकोप होता है व वह विचलित रहती हैं या फिर उनके अवतरण से अस्थिर रहती हैं, ऐसे में जब कोई भी पूजा देने के बाद भी ठीक नहीं होता है तब उन्हें देवबन में पवासी महाराज या कैईलाथ देवता के यहाँ हाजिरी देने आना पड़ता है जहाँ पंडित बहुत ही विधि-विधान के साथ पूजा अर्चना कर उनसे इन देवियों को मुक्त कर देता है! यहाँ लोग अपने बच्चों के दुधमुंहे बाल (अछूते बाल) काटने भी लाते हैं! लोगों का मानना है कि इस से मस्तक पीड़ा विकार जिन्दगी भर के लिए मिट जाते हैं व बालों को आने वाले समय में कोई रोग नहीं लगता! ऐसा ही प्रचलन मैंने जौनसार बावर क्षेत्र में भी देखा है जहाँ के बच्चे (लड़के/लडकियां) अपने बाल कटवाने टोंस पार हिमाचल में रेणुका देवी मंदिर जाया करते हैं! यह आश्चर्यजनक भी है कि जिस लड़की या महिला के बाल यहाँ ज्यादा आकर्षक व लम्बे दीखते हैं उन्हें अगर आप पूछ लो कि क्या आपने बचपन में रेणुका में अपने बाल चढ़ाए थे तब वह कहेंगी- तुम्हें कैसे पता?
देवबन जोकि उत्तराखंड राज्य के उत्तरकाशी जिले का सीमान्त क्षेत्र (हिमाचल से लगा हुआ) है, यहाँ पहुँचने के लिए आपको अगर नजदीकी पैदल रास्ता देखना है तो हनोल महासू देवता के मंदिर के दर्शन कर टोंस नदी पार कर ठडियार पहुँचिये! यहाँ पहुचने के लिए मूलतः तीन रास्ते हैं एक आराकोट से बाल्चा होकर देवबन, दूसरा ठडियार होकर देवबन व तीसरा लोहासु होकर देवबन! यहाँ कुकरेडा, बेगल, बंखवाल, बुटोथ्रा, बिजोटी, बोगमेर, मोरा, इंद्री, देवती (ठडियार होते हुए देवबन) भुताणु मेंजोली, किरोली, पावली, गमरी, इशाली, ठुनारा, कलीच (लोहासु होकर देवबन), किंवा, मोंडा बर्नाली, ड्गोली, माकुड़ी, दुचाणु, किराणु, मोंडा बलावट, भोगपुर, जोटादी, दारा (बाल्चा होते हुए देवबन) गाँव के लोग तो पहुँचते ही पहुँचते हैं!
ओगमर गांव के डॉ. ए एस चौहान बताते हैं कि देवबन जाने के लिए पवासी देवता की पालकी बामसु थान, सरास व बलचा गांव होकर जाती है। सरास उनका पैतृक गांव है। इसके अलावा क्षेत्र के भंकवाड़, बुथोत्रा, बिजोती, बिन्द्री, थली, ओटाठा, भुटाणु, मैंजती, थुनरा, चिंवा, झोटाडी, धारा इत्यादि गांवों के लोग भी यहां जात्रा पर आते हैं।
ठडियार में वहां के देवता को प्रणाम कर आप जंगल-जंगल होते हुए पट्टी मासमोर के परथीर नामक स्थान पर पहुँचते हैं, जहाँ वन विभाग का एक खूबसूरत बँगला है! यहाँ भी आप रात्री बिश्राम कर सकते हैं! यहाँ से अर्थात ठडियार से देवबन पहुँचने के लिए आपको 12 किमी. पैदल चलना पड़ता है वह भी खड़ी चढ़ाई के साथ..! जिसे आप 6 से 8 घंटे लगाकर आराम से चढ़ लेते हैं! यहाँ पहुँचने के बाद आपको घनघोर देवदार मंत्रमुग्ध कर देते हैं ! आपको लगने लगता है कि आप किसी तिलिस्मी दुनिया में प्रवेश कर चुके हैं! यहाँ वन्य जीव जंतुओं का अघोषित कलरव व झींगरों की मीठी तान तब आपको सुखद लगती है जब आप समूह के साथ यहाँ विचरण कर रहे हों अन्यथा अकेले में यहाँ होना यकीनन एक बड़ा साहस का काम है क्योंकि यहाँ की आवोहवा में भले ही आपको कुछ न दिखाई दे लेकिन आपको आभास होने लगता है कि आपके साथ कई अन्य अदृश्य शक्तियाँ भी यहाँ विचरण कर रही हैं!
देवदारों के झुरमुटों के मध्य आपको एक सुन्दर सा बुग्याल दिखाई देता है जो एक से डेढ़ किमी. के दायरे में फैला हुआ है व उसमें कुछ पुराने बिशाल देवदार वृक्ष खड़े दिखाई देते हैं जो एक दूसरे के बीच फासला बनाए हुए होते हैं! बस यहीं आपको रात गुजारनी होती है क्योंकि इसी स्थान पर पवासी देवता का मंदिर व कैईलाथ देवता का थान है जिनके वश में पर्वत क्षेत्र की सभी बनदेवियाँ, मातृकाएं, परियां, एड़ी-आँछरियाँ होती हैं या यूँ कहें जो उन्हीं के साथ यहाँ निवास करती हैं तो कोई अलग बात नहीं है!
आप यहाँ अगर और जल्दी पहुंचना चाहते हैं तब आप मैन्द्र्थ नामक स्थान में चार भाई महासू की माँ देवलाडी को नमन कर कच्ची सडक से टोंस पार कर अपने वाहन से बंगाण क्षेत्र में प्रवेश कर तलवाड़ होते हुए कुकरेड़ा पहुँच सकते हैं! यहाँ से अभी नयी रोड इस क्षेत्र के कई गाँवों को लिंक करती हुयी आगे बढ़ रही है उम्मीद है कि अगले बर्ष तक यह सड़क आपका देवबन तक पहुँचने का मार्ग आधा कर देगी!
देवबन पहुंचकर सचमुच आपकी पूरे सफर की थकान दूर हो जाती है व आपको लगने लगता है कि सचमुच आप देव लोक में विचरण कर रहे हैं जहाँ की दुनिया ही अलग है! यहाँ पहुंचकर हर मनुष्य स्वत: ही प्रकृति के अनुकूल अनुशासित होकर कार्य करने लगता है! यह जंगल या यहाँ मेले में पहुँचने वाले लोग ज्यादात्तर बंगाण, पिंगल, मसमोर पट्टी के हजारों लोग होते हैं जो श्रद्धा से चार भाई महासू के एक भाई पवासिक महाराज जिन्हें पवासी बोलते हैं को माथा टेकने आते हैं व कैईलाथ देवता से मातृका दोष मुक्ति की कामना करते हैं! यहाँ के पुजारी नौटियाल हैं जो डगोली गाँव के हैं जिनमें पंडित नागचंद, जैदत्त, लक्ष्मी नन्द, देवीराम इत्यादि प्रमुख हैं! यहाँ बनदेवियाँ, मातृकाएं, परियां, एड़ी-आँछरियाँ की पूजा मुख्यतः केदारपाती, छामरा, श्रीफल, कढ़ाई, मिठाई इत्यादि से की जाती है! यहाँ बकरा या फाटी बलि प्रचलन भी था! हो सकता है यह प्रचलन अभी भी हो! यदि आप भी ऐसी ही कुछ मानसिक विकार जैसी बीमारियों से त्रस्त अपने को समझते हैं तो पवासी महाराज या कैईलाथ देवता की मन्नत मान लीजिये व उनके नाम का उच्याणा (मनौती का रूप्या/श्रीफल) रख लीजिये उसके बाद अगर आपको स्वास्थ्य लाभ होना शुरू हुआ तो अगले साल जून तक इन्तजार कीजिये और इस मेले में पहुंचकर अपनी बिमारी से आप निजात पा सकते हैं! ऐसा दावा यहाँ पहुँचने वाला हर श्रद्धालु यात्री व पुजारी लोग करते हैं!