Saturday, July 27, 2024
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19वीँ सदी के शुरुआत तक ज्वाल्पा देवी में लगता था गढ़वाल मंडल का सबसे बड़ा मेला..!

(मनोज इष्टवाल)

आंकड़े जुटाने के बाद कई बार आप स्वयं में चौंक जाते हैं ऐसा ही कुछ यहाँ भी नजर आता है। पौड़ी कोटद्वार रोड पर पौड़ी से लगभग 30 किमी. दूरी पर मुख्य मार्ग से बायीं ओर नयार नदी के छोर पर अवस्थित माँ ज्वाल्पा का भव्य मंदिर 100 बर्ष पूर्व भी लगभग यथावत ही था। काल परिवर्तन के साथ भले ही मंदिर के आस-पास बहुत सा निर्माण कार्य हुआ है लेकिन मुख्य मंदिर से ज्यादा छेड़छाड़ की गई हो ऐसे प्रमाण नहीं मिलते। मुख्य मंदिर की छत्त जरुर अब सीमेंट की हो गयी है जबकि पूर्वत फटालों से निर्मित थी व उसकी पुरानी पत्थर की दीवारों पर ही सीमेंट लेपी गयी है।

कफोला बिष्ट समुदाय की थाती के इस देवता के मैती थपलियाल व ससुरासी अंथवाल हैं। चूँकि देवी की स्थापना उस दौर में हुई जब पूरा गढ़वाल मंडल 52 गढ़ों में विभक्त था और उनके अलग अलग थोकदार थे, इसलिए कफोला बिष्ट थोकदार होने के कारण इसे कफोलों की थाती व अंणथ्वालों की भूमि यानि माटी की देवी माना गया है।
थपलियाल इसे अपनी दिशा ध्याण यानि बेटी स्वरूपा देवी समझते हैं अत: वे इसके मायके वाले हुए। खातस्यूं, कफोलस्यूं और चौन्दकोट के थपलियाल इसे पूजते हैं जबकि पुजारी अणथ्वाल वंशज हैं। कफोलस्यूं की थाती में आ बसने के कारण इसे लगभग कफोलस्यूं का हर प्राणी अपनी कुलदेवी मानता है लेकिन बिशेषत: कफोला बिष्ट जाति को इसकी हर बर्ष पूजा देनी ही होती है।

बर्ष 1909 में एक सर्वे के अनुसार ज्वाल्पा देवी की अष्टबलि मेले में जुटने वाली भीड़ गढ़वाल मंडल के मेलों में हर बर्ष सबसे ज्यादा जुटने वाली भीड़ मानी गयी है. तब सिर्फ गढ़-कुमाऊ की सीमा पर स्थित बिनसर महादेव जिसे चौथान बिनसर मेले के रूप में जाना गया है वहां 8000 से 10000 भीड़ जुटती थी जबकि इडवालस्यूं बिल्बकेदार में बिखोती मेले में भी लगभग 8000 की भीड़ जुटती थी, लेकिन ग्रामीण परिवेश में होने वाले मेलों में जेठ माह में ज्वाल्पा अष्टबली में पूरे गढ़वाल मंडल में सबसे ज्यादा भीड़ जुटती थी जिसकी संख्या 5000 थी। इसके बाद असवालस्यूं मुंडन महादेव (खैरालिंग/मुंडनेश्वर) में जेठ माह में मुंडनमेले के आयोजन में 3000 की भीड़ जुटती थी।

आज ज्वाल्पा में कहाँ अष्टबलि मेला लगता था कोई नहीं जानता लेकिन मुंडन मेला बदस्तूर जारी है जिसमें अब हजारों हजार की संख्या में लोग जुटते हैं। कफोलस्यूं के समाज को मेलों की लोकसंस्कृति बचाने के लिए एक अनूठी पहल तो करनी ही होगी ताकि यह मेला पुन: शुरू किया जा सके।

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