(मनोज इष्टवाल)
कंधे में लंबा सा झोला आँखों पर चस्मा और सर में गोल कैप के साथ अपनी चाल में गजब की चपलता लिए लगभग 5 फिट लम्बे गिरीश तिवारी (जिन्हें उनके कुछ मित्र टूल्लू महाराज के नाम से पुकारते थे) का कद लखनऊ में पत्रकारिता करते समय से लेकर देहरादून आते-आते वक्त के बेहरहम थपेड़ों में ऐसा उलझा कि उनकी एकाकी भरी जिंदगी रहस्यमयी सी रही।
यूँ तो गिरीश दा अप्रैल 2014 में ब्रह्मलीन हो चुके हैं लेकिन कुछ तो ऐसा किसी का व्यक्तित्व होता है जो अक्सर उन्हें लाकर सामने खड़ा कर देता है। गिरीश तिवारी के ज्ञान का कोई सानी नहीं था। वे अक्सर जब अपनी रौ में होते थे तब उनके सामने जो भी पड़ता उसे यह तो ज्ञान हो ही जाता कि इस व्यक्ति व इसके व्यक्तित्व को हल्के में लेना सही नहीं है। कुछ मित्र उन्हें टुल्लू महाराज नाम से इसलिये पुकारा करते थे कि वह पीने के बाद अक्सर बहक जाया करते थे।
आज एक कवि की इन पंक्तियों ने बर्षों बाद गिरीश दा को फिर आगे ला खड़ा कर दिया । कवि महोदय शराबियों या शराब के शौकीन उन व्यक्तियों पर अपनी गर्मजोशी का खुमार उतार रहे थे जो शराब थकान मिटाने के लिए नहीं बल्कि खुद को मिटाने के लिए पीते दिखाई देते हैं। कवि कहते हैं:-
किया लेक्चर शुरू तो किसी की नहीं सुनता।लगे सुसु तो पैजामे का नाडा नहीं खुलता।
नेहरु कालोनी में कहीं क्रिराए अपर रह रहे गिरीश तिवारी के ख़ास मित्रों में तो नहीं लेकिन मित्रों में मैं भी रहा हूँ। उस ब्यक्ति में ऐसा जरूर कुछ था जो उसकी छटपहाट में दिखता था लेकिन जाने किन कारणों से वह अपने बिखरते स्वरुप को सम्भालने में नाकाम रहे। इसी नाकामी की वजह यह रही कि अंतिम समय से पूर्व वह शराबी हो गए थे और इतनी पीने लगे थे कि कई बार उनके मित्र उन्हें उठाकर घर तक छोड आते थे।
अपनी मृत्यु से कुछ माह पूर्व जब वह मेरे साथ उत्तरकाशी जिले के सरनौल गॉव के रेणुका मंदिर के जागडे में शामिल होने आये थे तब उन्हें नजदीक से जानने को कुछ समय मिला। यह व्यक्ति जिसे सूचना विभाग के कर्मी मेरी तरह ही निक्कमा समझते थे वास्तव में एक अच्छा बुद्धिजीवी था लेकिन किसी से भी अपनी ईगो के कारण समझौता न कर पाने के फलस्वरूप समाज से विरक्त होते गए।
मुझे अच्छे से पता है कि हमारे बहुत से मित्र उनकी शराब पीने की लत के कारण उन्हें टूल्लू महाराज के नाम से पुकारते थे। उनकी असमायिक मृत्यु बड़ी रहस्यमयी रही। मुझे अफ़सोस है कि अंतिम समय में उनके दर्शन नहीं कर पाया ।
उनका पार्थिक देह उनके रिश्तेदारों के पहुंचने का इंतजार करता रहा लेकिन अफसोस कि उनके सम्पर्क सूत्र में एक भी ऐसा व्यक्ति नहीं दिखाई दिया या फोन नम्बर नहीं मिला जो यह कह सके कि हां…ये हमारे अपने थे। आखिर कुछ पत्रकार मित्रों ने उनका अंतिम संस्कार किया।
तत्कालीन समय में जी न्यूज नेशनल में नरेश तोमर उत्तराखण्ड प्रभारी हुआ करते थे, उन्होंने आगे बढ़कर जिम्मा उठाया व गिरीश तिवारी की तेहरवीं से लेकर बार्षिक श्राद्ध तक देहरादून के दर्शन लाल चौक स्थित शिव मंदिर में ब्राह्मण भोज व पत्रकार भोज देकर उनके कर्मकांड संस्कार पूरे किए। सच मानिए उस दिन से नरेश तोमर मेरी नजर में बहुत सम्मान पा गए जबकि इस से पहले मैं नरेश को बोला करता था कि तेरी बॉडी लैंग्वेज पत्रकार वाली कम और मवाली वाली ज्यादा है।
बहुत समय बाद हमारे मित्र ने जब सोशल साइट पर पोस्ट पढ़ी कि गिरीश तिवारी की तेहरवीं तक हो गयी तब जाकर उनके पैतृक गांव में उनके परिजनों को ज्ञात हुआ कि गिरीश दा अब नहीं रहे। इस मौत के बाद मैंने यह ज्ञान दर्शन तो सीख ही लिया कि जब तक आप जिंदा है तब तक ही आप हैं वरना आपके ख़ाक में मिलते ही आप दुनिया समाज के लिए राख हैं।