Tuesday, October 21, 2025
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टुंडाचौडा के मांझियों को सैल्यूट! — सड़क बनाने के लिए ग्रामीणों नें उठाये गैंती और फवाडे, श्रमदान से पहाड़ काटकर बना रहे हैं गांव की सड़क…!

(ग्राउंड जीरो से संजय चौहान)!
कुछ साल पहले आई एक हिंदी फिल्म ‘द माउन्टेन मांझी’ ने दुनिया को दिखाया था की किस प्रकार बुलंद होंसलों के जरिये भी अकेले ही पहाड़ को काटकर सडक बनाई जा सकती है। लाॅकडाउन के दौरान ऐसा ही कुछ कर दिखाया है उत्तराखंड के सीमांत जनपद पिथौरागढ़ के गंगोलीहाट तहसील के टुंडाचौरा के ग्रामीणों नें। आजादी के सात दशक बीत जाने के बाद भी ये गांव सड़क सुविधा से नही जुड पाया था। जिस कारण नाराज ग्रामीणों नें लाॅकडाउन का सदुपयोग करते हुए सड़क निर्माण के लिए खुद गैंती, फवाडे और कुदाल उठाये। ग्रामीण बीते 12 दिनों से पहाड काटकर सड़क निर्माण कर रहे हैं। ग्रामीणों का लक्ष्य तीन किलोमीटर सड़क बनाने की है। सड़क निर्माण के लिए ग्रामीणों ने अपनी कृर्षि भूमि भी दान कर दी है। सड़क बनने से एक नहीं बल्कि चार गांव और एक इंटर कॉलेज भी लाभान्वित होगा। आज सड़क निर्माण के 12 वें दिन पड़ोसी गाँव इटाना, दुगई आगर ग्राम सभा के ग्रामीणों का सहयोग भी इन्हें मिल गया है। ग्रामीणों के इस अनुकरणीय पहल की चारों और भूरी भूरी प्रशंसा भी हो रही है।
— गांव में सडक न होने से ग्रामीणों को हो रही थी परेशानी!
पिथौरागढ़ के गंगोलीहाट तहसील के टुंडाचौरा में सड़क न होने से ग्रामीणों को बेहद परेशानी का सामना करना पड रहा था। आज भी गाँव के ग्रामीणों को अपनी रोजमर्रा की वस्तुओं को पीठ पर लादकर लाना पडता है।सड़क न होने से आपातकालीन परिस्थितियों में गाँव के अधिकतर बीमार व्यक्तियों और गर्भवती महिलाओं को समय पर अस्पताल पहुंचाना ग्रामीणों को दुष्कर साबित होता है। ऐसी स्थिति में डोली के सहारे ही बीमार लोगों को सडक तक पहुंचाया जाता है। बरसों से ग्रामीण सडक की मांग करते आ रहें हैं। गाँव के ग्रामीणों की आंखे सड़क के इंतजार में पथरा गई थी। इसलिए ग्रामीणों ने खुद ही श्रमदान से सडक बनाने का फैसला किया।
17 साल बाद गांव लौटे पति पत्नी नें बदल डाली गांव की तस्वीर, रिवर्स माइग्रेशन की बनें मिसाल..!
पिछले साल ग्राम पंचायत चुनावों से पहले गांव के युवा गोविंद सिंह और उनकी पत्नी जो 17 सालों से बाहर नौकरी कर रहे थे नें अपनी नौकरी छोड़ कर वापस अपने गांव लौटे थे। रिवर्स माइग्रेशन की उम्मीदों को पंख लगाने के सपने को साकार करने के लिए दोनों पति पत्नी गांव लौटे थे। जबकि असल में गांव वापस लौटने के पीछे उद्देश्य था गांव का विकास करना। जिसके लिए ग्राम प्रधान के चुनावों में गोविंद सिंह की पत्नी मनीषा देवी ने चुनाव लड़ा और जीत हासिल की। चुनाव जीतने के बाद गोविन्द सिंह, उनकी पत्नी ग्राम प्रधान मनीषा देवी और युवाओं की बैठक कर गांव के विकास का खाका तय किया गया और एक सुनियोजित तरीके से गांव में विकास कार्य शुरू किए गये। सर्वप्रथम गांव में क्षतिग्रस्त बिजली के खंभों और झूलते तारों को सही किया गया। तत्पश्चात गांव में वृहद्ध सफाई अभियान चलाकर ग्रामीणों को स्वच्छता का संदेश देते हुये जागरूक किया गया। इसके बाद गांव की क्षतिग्रस्त पेयजल लाइन की मरम्मत और सुधारीकरण किया गया। ग्रामीणों को सरकारी योजनाओं की जानकारी बैठक, फोन, फेसबुक पेज के माध्यम से भी दी जा रहीं है। गांव के पारंपरिक जलस्रोत में पानी की कमी न हो इसलिए बरसात से पहले ही गांव में खंतिया, चाल, खाल का निर्माण किया गया ताकि बरसात के पानी का संग्रहण हो और जलस्रोत रीचार्ज हो सकें। जिससे गांव को खेती और बगीचे के लिए भी प्रचुर मात्रा में पानी उपलब्ध हो सके। इन कार्यों के धरातल पर पूर्ण होने के बाद गांव को सडक सुविधा से जोड़ने के लिए ग्रामीणों नें श्रमदान से सडक निर्माण की हामी भरी। तत्पश्चात सड़क निर्माण कार्य शुरू हुआ। सही मायनों में देखा जाय तो गोविन्द सिंह और उनकी पत्नी मनीषा देवी नें रिवर्स माइग्रेशन की उम्मीदों को पंख लगायें हैं और लोगों के सामने एक उदाहरण प्रस्तुत किया है कि यदि पहाड जैसे बुलंद हौंसला लिये पहाड़ के पुरूषो का पुरूषार्थ जाग जाये और मात्रृशक्ति ठान ले तो कोई भी कार्य असंभव नहीं है। यहाँ तक कि वे पहाड़ को काटकर सड़क भी बना सकते हैं।
दशरथ मांझी नें भी पहाड काटकर अकेले ही बना डाली थी सडक…!
आपको बताते चलें की इसी तरह से द माउन्टेन मांझी फिल्म में भी बुलंद होंसलों वाले दशरथ मांझी की कहानी को जीवंत किया गया था। दशरथ मांझी जो बिहार में गया के करीब गहलौर गांव के एक गरीब मजदूर थे। इनकी शादी फाल्गुनी देवी हुई थी। एक दिन अपने पति के लिए खाना ले जाते समय उनकी पत्नी फाल्गुनी पहाड़ के दर्रे में गिर गयी और उनका निधन हो गया। अगर फाल्गुनी देवी को अस्पताल ले जाया गया होता तो शायद वो बच जाती यह बात उनके मन में घर कर गई। उन्होनें केवल एक हथौड़ा और छेनी लेकर अकेले ही 360 फुट लंबी 30 फुट चौड़ी और 25 फुट ऊँचे पहाड़ को काट के एक सड़क बना डाली। 22 वर्षों के परीश्रम के बाद, दशरथ की बनायी सड़क ने अतरी और वजीरगंज ब्लाक की दूरी को 55 किलोमीटर से 15 किलोमीटर कर दिया था।
वास्तव मे देखा जाय तो भले ही दुनिया मंगल पर कदम रख चुकी हो पर उत्तराखंड के पहाड़ के कई गांव आज भी सड़कों से महरूम हैं। आजादी के सात दशक बीत जाने के बाद भी यदि किसी गाँव के लोग आज भी सड़क की बाट जोह रहें हैं तो इससे दुःखद स्थिति और कुछ नहीं हो सकती। सडक विहीन पहाड़ के इन गांवो की समस्याएँ आज भी पहाड़ जैसी हैं। ऐसे में गांवो में सड़कें हों तो ग्रामीणों की आधी समस्याओं का निराकरण वैसे ही हो जाता है। सरकार को भी चाहिए की ग्रामीणों की पीडा का संज्ञान लेकर ग्रामीणों की न्यायोचित मांग को पूरा करके उनकी समस्या का निदान करने की दिशा में यथासंभव कदम उठायें ताकि एक निश्चित समयावधि में ग्रामीणों की समस्याओं का समाधान हो सके।
पहाड़ के हर गाँव में छोटी-छोटी समस्याओं का अंबार लगा हुआ है यदि हम गोविन्द सिंह जैसे युवाओं के प्रयासों से सीख लें तो उन समस्याओं का निराकरण आसानी से हो सकता है। पहाड़ जैसा हौंसला लिए टुंडाचौडा के मांझियों को हजारों हजार सैल्यूट।
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35 बर्षों से पत्रकारिता के प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक व सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, पर्यटन, धर्म-संस्कृति सहित तमाम उन मुद्दों को बेबाकी से उठाना जो विश्व भर में लोक समाज, लोक संस्कृति व आम जनमानस के लिए लाभप्रद हो व हर उस सकारात्मक पहलु की बात करना जो सर्व जन सुखाय: सर्व जन हिताय हो.
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