Sunday, September 8, 2024
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गुड़ की चास और पीठे की पाक पर निर्भर है पहाड़ी मिष्ठान अरसे का स्वाद।

(मनोज इष्टवाल)

फोटो- सुरेंद्र सिंह कंडारी

पहाड़ के जन मानस का साथ यह मिष्ठान जाने कितनी सदियों से देता आ रहा है, तब भी जब गढ़वाल के राजा की राजधानी श्रीनगर थी और तब भी जब राजा टिहरी आ बसे। यह आदिकाल से राजाओं के भोज्य पदार्थों में शामिल रहा है और राज खानदान की मेहमाननवाजी का मिष्ठान । जिसे बाहरी मेहमान बेहद पसंद करते थे लेकिन राज रसोई ने आखिर मावे से मिष्ठान की उत्पत्ति कर उसे चीनी या मीठे के राब में मिलाकर में मिलाकर सबसे जलेबी व सिंगौड़ी मिष्ठान को गढ़वाल में 18वीं सदी में परिचित करवाया।

श्रीनगर से राजा के साथ ही राज मिष्ठान सिंगौड़ी टिहरी और टिहरी से अल्मोड़ा गई। श्रीनगर से राजा के साथ ही यह बननी समाप्त हुई तो टिहरी डूबने के बाद टिहरी से। मात्र अल्मोड़ा ने सिंगौड़ी मिठाई की लाज अभी भी बचाकर रखी हुई है, लेकिन अरसा तब भी हर जगह गढवाळी समाज में रहा और आज भी गढवाळी समाज के साथ सदियों से है।

फोटो- सुरेंद्र सिंह कंडारी

इसे बनाने की विधि यों तो बड़ी सरल लगती है लेकिन उतनी भी सरल नहीं जितनी हम समझा देते हैं कि गुड़ को उबालकर उसका लिक्विड बनाया और उसमें चावल का कूटा हुआ आटा मिलाया। उसे आटे की तरह गूंथा गोलियां बनाई और हल्का सा चपेडकर खोलते तेल में डाल दिया तो बन गया अरसा।

दरअसल अरसे के निर्माण में सब्र और संयम दोनों जितने आपके साथ हैं यह उतना ही सुंदर बनेगा। यह पहला ऐसा मिष्ठान पदार्थ है जो महीनों तक खराब नहीं होता। अरसा निर्माण के लिए आपको कुछ मानकों को ध्यान में रखना होता है। माना आपने एक भेली से अरसे निर्माण करने हैं तो आपको पहली रात तीन माणा (डेढ़ किलो) चावल भिगोकर रखने होंगे जिन्हें अगली सुबह ओखली में कूटकर उसका आटा बनाया जाता है। कूटते समय कंडाली (बिच्छू घास) भी कूटे हुए चावल के साथ रखने का रिवाज है। इसे दो कारणों से रखा जाता है । पहला यह कि किसी का दाग नजर न लगे जबकि दूसरा कारण इसे लोग हरपणा (ऊपरी हवा) से जोड़कर देखते हैं। इधर यह चावल ओखली में कूटे जाने शुरू होते हैं उधर गुड़ को तेज आंच में चूल्हे पर गर्म कर उसका लिक्विड तैयार किया जाता है। जैसे-जैसे वह पकना शुरू होता है गुड़ पर उबाल आता है। उसके झाग जिसे फ़ीणा कहा जाता है जिसे झाबे से अलग कर दिया जाता है। जब गुड़ लार का रूप ले लेता है तब एक थाली में पानी डालकर उसमें उसकी टेस्टिंग होती है। लारनुमा गुड़ को थाली में डालकर उसका यह निरीक्षण किया जाता है कि अगर गुड़ फैल रहा है तो समझिए अभी पाक पूरी तरह तैयार नहीं हुआ और अगर गुड़ हाथ से पकड़कर गोली में तब्दील होना शुरू हो जाय तो सोच लेना चाहिए अरसे का पाक तैयार है। उसे फौरन चूल्हे से उतार दिया जाता है व उसमें चावल का कूटा गया आटा मिलाकर तेजी से डबळई (लकड़ी के डंडों) से रौंदा जाता है। इस बात का पूरा पूरा ध्यान रखा जाता है कि ऐसे में आते में गोले न पड़ें। दबळई घुमाने वालों के पसीने छूटने लगते हैं। इधर महिलाएं थाली के या परात के एक कोने में कड़वा तेल (सरसों का तेल) रखती हैं और उसे अपनी हथेली पर मलती है तो दूसरी तरफ चूल्हे में बड़ी कड़ाई में गर्म खोलते तेल के खौलने का इंतजार किया जाता है।

तेल खोला नहीं कि गूंथे गए आटे की रोटी बनाने जैसी छोटी छोटी गोलियां बनाई जाती हैं और उन्हें हथेली पर चपेडकर तेल में डाला जाता है फिर उसके सुर्ख लाल होने का इंतजार किया जाता है। उनके लाल रंगत में आते ही पता चल जाता है कि अरसा बनकर तैयार हो गया है।गर्म गर्म अरसा खाने का मजा ही अलग है लेकिन इसे आधा ही खाएं तो अच्छा क्योंकि ज्यादा खाने में यह आपके पेट का राग बिगाड़ सकता है।

इस तरह अरसा बनाया जाता है जो शादी विवाह या शुभ कार्यों में लड़की के मायके से ससुराल कंडी के रूप में देने का प्रचलन रहा है। पौड़ी गढ़वाल व भावर क्षेत्र के ऊपरी इलाकों के अरसे कभी बहुत प्रसिद्ध हुआ करते थे अब यही अरसे खाड़ी आगराखाल (टिहरी गढ़वाल) के प्रसिद्धि पा रहे हैं जो अब देहरादून जैसे महानगर में ज्यादात्तर हलवाइयों की दुकानों में आपको मिल जाते हैं। आगराखाल ने अभी भी अपनी मिष्ठान की पुरानी संस्कृति को जीवित रखा है। इसीलिए आगराखाल की रबड़ी पूरे देश में प्रसिद्ध है। टिहरी गढ़वाल के कुछ क्षेत्रों की इस बारे में तारीफ करनी होगी कि उन्होंने अपनी लोक संस्कृति को जिंदा रखा हुआ है। अरसा भी उसी लोकसमाज व लोकसंस्कृति का एक हिस्सा जो है।

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35 बर्षों से पत्रकारिता के प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक व सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, पर्यटन, धर्म-संस्कृति सहित तमाम उन मुद्दों को बेबाकी से उठाना जो विश्व भर में लोक समाज, लोक संस्कृति व आम जनमानस के लिए लाभप्रद हो व हर उस सकारात्मक पहलु की बात करना जो सर्व जन सुखाय: सर्व जन हिताय हो.
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