(मनोज इष्टवाल ट्रेवलाग 14 दिसम्बर 2014)
कुछ मित्र आज बैठकर टांग-खिंचाई रहे थे…अरे यार नेपाल -1 का कैसा रिपोर्टर है जो नेपाली/गोरखाली नहीं जानता। मैंने आखिर कहा आप क्या जानते हो। तो राजेन्द्र जोशी बोले – नालापानी में इतना बड़ा झलसा होता है हर साल…उसके बारे में बताओ। तुझे कुछ पता तो होता नहीं है। यार आप लोगों के कटाक्ष मेरी पत्रकारिता को चुनौती थी यह मजबूरी भी थी अब झेलो इस लेख को…..!
जैसा कि हम सभी जानते हैं कि नेपाल नरेश पृथीनारायण द्वारा सन 1765 में अपने सेनापति अमर सिंह थापा के सानिध्य में कुमाऊ के कई हिस्सों को जीत लिया गया था तत्पश्चात उनके पुत्र 1771 में राज संभालने के पांच बर्ष पश्चात् स्वर्ग सिधार गए थे उनके पुत्र राणा रणबहादुर तब बाल्यावस्था में थे और उनकी पत्नी राजेन्द्र लक्ष्मी व उनके भाई बलबहादुर शाह ने सारा साम्राज्य संभाला!
इसी दौरान रमा और धरणी (गढ़वाल नरेश के दूत) नेपाल यात्रा पर गए और वहां के राजपुरोहित की पुत्री को विवाह ले आये! जिससे श्रीनगर दरवार में कोहराम मच गया और राजा के फैसले ने शांत गढ़ राज्य में गोरखा आक्रमण को न्यौता दे डाला! अगर इस लेख को ज्यादा विस्तार दूंगा तो लेख ज्यादा विस्तृत हो जाएगा , फिर भी सन्दर्भवश यह लिखना पड रहा है ..! हस्ती दल चौतरिया और सेनापति अमर सिंह थापा के नेतृत्व में नेपाली सेना कुमाऊ अल्मोड़ा रौंदती हुई रामगंगा पार आ पहुंची लेकिन राजा की मृत्यु का समाचार सुनकर वापस लौट गई तब राणा रण बहादुर मात्र 19 बर्ष के थे!
पुन: 1792 में नेपाली सेना (30-35) हजार सैनिक) तराई भावर को रौंदते हुए गढ़वाल के लंगूर इलाके में प्रवेश कर गए तब तक श्रीनगर दरवार के मुंह लगे मंत्रियों की कूटिनीति के शिकार हुए महाबगढ़ के गढ़पति भंधौ असवाल को भी ठीक बयेली गाँव के वीर भड भौं रिखोला के पुत्र लोदी रिखोला भड की मौत की तरह ये धोखे से मरवा चुके थे !
गढ़वाल नरेश इस आक्रमण के लिए तैयार नहीं थे क्योंकि तब तक यह राज छिन-भिन्न की स्थिति में था! आखिर 25 हजार सालाना नजराने के बाद हस्ती दल चौतरिया और सेनापति अमर सिंह थापा वापस लौटे लेकिन जाते-जाते लंगूर परगना हरदेव जोशी (कुमाऊ) को हस्तगत कर गए जो तराई भावर के सिग्गडी में जा बसे थे! अगले बर्ष नजराना न पहुँचने से खफा फिर 1794 में आक्रमण हुआ लेकिन उसे गढ़वाल राजा ने नाकाम कर दिया! पुन: 1797 में दो तरफ़ा आक्रमण किया गया एक ग्वालदम के रास्ते तो दूसरा भावर के रास्ते लेकिन अस्वालों के अधीन भैंरो गढ़ी पर नेपाली सेना विजयी न पा सकी जबकि दूसरी तरफ ग्वालदम से हुए आक्रमण में नेपाली सेना श्रीनगर तक चढ़ आई थी लेकिन बहुमूल्य उपहारों के साथ राजा प्रधुमन शाह ने उन्हें डेढ़ लाख की धनराशी और 12 लोग गुलामों के रूप में देकर विदा किया और तीन माह से भैरों गढ़ी पर ढेरा डाले नेपाली सेना को आखिर बिना विजयी के वापस लौटना पड़ा!
सन 1802 में आये बिनाश्कारी भूकंप ने गढ़वाल के एक तिहाई हिस्से को बुरी तरह तहस-नहस कर दिया था ..मौका मिलते ही हस्ती दल चौतरिया व सेनापति अमर सिंह थापा ने चौतरफा आक्रमण कर दिया ..!
हरिद्वार लांघती एक टुकड़ी देहरादून के लिए दूसरी ग्वालदम जोशीमठ से श्रीनगर के लिए तीसरी तराई लांघते हुए भैंरों गढ़ी होते हुए और चौथी कांडी-कश्याली होते हुए ऋषिकेश के लिए निकल पड़ी ! इस युद्ध में गोरखा सेना को सबसे ज्यादा जान हानि भैरों गढ़ी में ही हुयी जिसके गढ़पति भजन सिंह असवाल को आखिर लम्बी लड़ाई के बाद अपनी शहादत देनी पड़ी!
कथा लम्बी है इसलिए पूरा विवरण ठीक नहीं है ! आखिर जनवरी 1804 में राजा प्रद्युमन शाह को मौत के घाट उतारने के बाद गोरखा राज एक क्षत्र पूरे गढ़वाल पर हो गया जिसमें हिमाचल नाहन भी शामिल था!
अब आते हैं इनके राज-काज के तरीके पर…! औरतों बच्चों को बेचने के लिए हरिद्वार का चंडी घाट व बौंसाल काण्ड गाँव (पौड़ी) नयार के किनारे रानीहाट नामक स्थान सबसे मुफीद जगह थी! जो ज्यादा जोर अजमाइश करते उन्हें बेरहमी से क़त्ल किया जाता रहा ! .आखिर ब्रिटिश फ़ौज ने 29 मई 1814 में खलंगा किले पर घेराबंदी करने की योजना बनाई! ब्रिटिश फ़ौज के मेजर जनरल गिलेस्पी के नेतृत्व में 3,513 जवानों ने मोर्चा संभाला लेकिन उन्हें विफलता हासिल हुई जबकि उस समय सेनापति अमर सिंह थापा श्रीनगर उनका पुत्र रणजोर सिंह नाहन का राज-काज देख रहे थे और खलंगा (नालापानी किला) उनके पोते बलबहादुर सिंह थापा को हस्तगत था, गोरखा सेना ने न सिर्फ अंग्रेजी सेना को भारी नुक्सान पहुंचाया बल्कि स्थानीय जनता में भी खूब मारकाट मचाई! उनके गुप्तचरों का मत था कि स्थानीय लोगों ने ही अंग्रेजो को यहाँ बुलाया है! कहते हैं कि मेजर कैली व मेजर लुडलो ने जब किले में फतह की तो उन्होंने लिखा-“The hole area was a slaughter house strewed with the bodies of dead and wonded, and the dissevered limbs of those who has been torn to pieces by the bursting of the shells.”
बेहद भयावह इस काल में गोरखा राज्य ने जो जुल्म किये उनका कई जगह इतिहासकारों और स्थानीय चारणों ने खूब वर्णन किया! असफलता हासिल होते’ देख आखिर मेजर जनरल गिलेस्पी द्वारा दिल्ली से और फ़ौज के लिए रिक्वेस्ट की गई! आखिर चार डिविजन जनरल ओछटरलनी द्वारा देहरादून के लिए मार्च की गई जिनमें मिस्टर फेजर थर्ड डिविजन (14 अक्तूबर 1814), लेफ्ट. कर्नल मओवि (मौबी) 53 वींरेजिमेंट के साथ सहारनपुर होते हुए , लेफ्ट. कर्नल यंग तिमली होते हुए और मेजर कैली व लुडलो मोहन्ड होते हुए देहरादून पहुंचे! 24 अक्तूबर 1814 को सुबह साढे चार बजे कर्नल मौबी द्वारा 1300 पैदल सैनिक, 300 घुडसवार, व पांच हल्की तोपों के साथ किले पर धावा बोला गया लेकिन सेना उसे भेद न पाई! सेना ने खलंगा किले के लगभग 500 मीटर दूरी ठारापानी में डेरा डालकर किले की रैकी करने में ही भलाई समझी! साल के घनघोर जंगलों से आच्छादित इस किले तक पहुँचने के गोपनीय रास्ते यहाँ के ग्रामीणों तक को पता नहीं थे जिसके कारण ऐसी दिक्कतें आई!
26 अक्टूबर 1814 में मेजर जनरल जिलेस्पी ठारापानी नामक सैन्य छावनी आ धमका! इस बार मेजर जनरल जिलेस्पी ने किले के अंदर के सैनिकों की गुप्त सूचना जुटाई तो वह हैरत में पड़ गया कि मात्र तीन साढ़े तीन सौ सैनिकों को मिलाकर जिनमें पुराना गोरखा रेजिमेंट नामक मगर जाति के सैनिकों के साथ गढवाली सैनिक भी शामिल थे, के अलावा लगभग इतने ही असैनिक भी हैं जिनमें बच्चे बूढ़े व स्त्रीयां शामिल हैं! लेकिन एक अन्य इतिहासविद्ध के अनुसार खलंगा गढ़ में मात्र 100 सैनिक पुराना गोरखा रेजिमेंट के हैं जबकि बाकी बोरखा (जिनमें ज्यादात्तर गढ़वाली सैनिक हुए ) रेजिमेंट के सैनिक व अन्य “आई माई र केटा-केटी जम्मागरी (बूढ़े नारी बच्चे) इत्यादि थे! यही आंकलन जौन प्रेम्बल, विलियम, वाल्टन व “गुलदस्त तवारीख” इत्यादि का भी था!
मेजर जनरल जिलेस्पी ने किलेबंदी के लिए किले को चारों ओर से घेरने के लिए पांच दल बनाए जिनमें पहले दल का नेतृत्व जौन फास्ट के नेतृत्व में 363 भारतीय सैनिकों अफसरों के साथ डांडा लखौन्ड से होकर, दूसरी टुकड़ी मेजर कैली 521 भारतीय सैनिकों, अफसरों व 20 भारतीय पायोनियर सैनिकों के साथ खलंगागढ़ी से दो मील दूर उत्तर की ओर खरसाली गाँव से, तीसरी टुकड़ी कैप्टन जौन कैम्पबेल 283 भारतीय सैनिक व अफसरों के साथ सौंग नदी के पास पूर्व की ओर डांडे पर स्थित अस्टाल बस्ती से , चौथी टुकड़ी लेफ्टिनेंट कर्नल कारपेंटर 53वीं ब्रिटिश रेजीमेंट की दो कम्पनियों व भारतीय पैदल सेना की पांच कम्पनियों के 588 गढ़ी के नीचे ठारापानी से गढ़ी की ओर सीढ़ियों से व अंतिम टुकड़ी ले. कर्नल कारपेंटर व मेजर लडलो ठारापानी के तप्पड पर 100 आयरिश ड्रेगन व 991 भारतीय सैनिकों की सुरक्षित टुकड़ी के साथ किले पर आक्रमण करेगा!
31 अक्टूबर दो बजे रात भारी तोपों व बंदूकों से आक्रमण किया गया जिनमें 12 पोंड की दो तोपें, छ: पोंड की दो तोपें, दो छोटी मोटार्स व दो अन्य तोपें ठारापानी पहुंचाई गयी व इनसे आक्रमण किया गया! जिसमें मेजर जनरल जिलेस्पी के सीने में गोली लगी, लेफ्टिनेट ओ ओ हारा, तथा कैप्टन बायर्स सहित चार अफसर मारे गए! 18 घायल हुए जिनमें कई अफसर बाद में मर गए! ननकमीशंड अफसरों व सैनिकों में 30 अन्य ढेर हुए, 100 डिसमेंटल सैनिकों में ज्यादात्तर बाद में मर गए! कैप्टन वेंसीटार्ट के अनुसार 31 अफसर व 750 सैनिक मारे गए! यह सचमुच बहुत बड़ी पराजय थी!
तीसरा युद्ध की शुरुआत 27 दिन बाद हुई जिसकी कमान मौबी ने सम्भाली!
लेफ्ट. कर्नल मओवि (मौबी) के नेतृत्व में विभिन्न सैन्य टुकड़ियों का संचालन कारपेंटर, मेजर बालडोक, कैप्टन बक, कैप्टेन कोल्टमैन, मेजर इंग्लेबाय, कैप्टन पार्कर, लेफ्टनेंट हेरिंगटन, कैप्टन लौन कैम्पबेल, लेफ्टिनेंट लक्सफोर्ड इत्यादि के नेतृत्व में 27 नवम्बर 1814 को एक बजे के आस पास किया गया! लेकिन ढाक के तीन पात ..! इस हमले में फिर भारी नुक्सान हुआ जिसमें चार अंग्रेज अफसर मारे गए व सात घायल हुए! 33 सैनिक मारे गए व 636 बुरी तरह जख्मी व घायल हुए! जो अफसर या सैनिक गढ़ी के अंदर घुसते समय मारे गए उनकी लाशें इतनी बुरी तरह काटी गयी थी कि उन्हें देखते ही मुस्लिम सैनिकों में भय ब्याप्त हो गए! आँखें निकाल दी गयी थी, हाथ पाँव सर अलग अलग टुकड़ों में बंटे थे जिस से यह अनुमान लगाया गया कि यह पुरानी गोरखा रेजिमेंट के मगर, तमांग, पुन्न, सुब्बा इत्यादि की दरिंदगी का शिकार हुए हैं!
अंतिम युद्ध के बारे में दो धारणाएं कायम हुई हैं जिसमें कुछ इतिहासकारों का मानना है कि यह 30 नम्वबर 1814 में हुआ जबकि कुछ इसे 4 दिसम्बर भी बताते हैं! यों तो भारी तोपों से 29 नवम्बर को ही सारी खलंगा गढ़ी धाराशायी हो गयी थी लेकिन इस पर 30 को तब अधिकार मिला जब बलभद्र थापा अपने बचे खुचे सैनिकों के साथ गढ़ी छोड़कर यह ललकारते हुए निकला कि तुम कभी गढ़ी पर कब्जा नहीं कर सकते थे मैं खुद छोड़कर जा रहा हूँ! बलबहादुर थापा तब किले से रुक्सत हुए जब वहां राशन और पानी नहीं रहा. कुछ औरतों और बच्चों के साथ निकले बलबहादुर यमुना पारकर जौन्ठ गढ़ पहुंचे..अब तक गढ़वाली एकत्र हो गए थे और उन्होंने उन्हें यहाँ से खदेड़ा जबकि दूसरी और कर्नल एक हजार सैनिकों के साथ इनका पीछा करता रहा. बलबहादुर और उनके सिपाही महिलाओं सहित जब जौनसार स्थित बैराठगढ़ पहुंचे तो उन्हें जौनसारियों द्वारा घेराबन्दी कर मार डाला गया! लेकिन बलभद्र अपने कुछ विश्वासपात्र सैनिकों के साथ बचता-बचाता पंजाब जा पहुंचा जहाँ वह राजा रणजीत सिंह की सेना में शामिल हुआ!
कर्नल केलि लिखते हैं जब वे 30 नवम्बर 1814 को प्रातः चार बजे गढ़ी में घुसे! तब वहां दुर्गन्ध और करुणा से उनका सिर चकराने लगा! कराहटें जहाँ पानी पानी चिल्ला रही थी वहीँ सात शव बिना डाह संस्कार के जाने कब से एक स्थान पर रखे थे जिन पर कीड़े कुलबुला रहे थे! दो छोटे से स्थान पर 86 शव पड़े थे! घायलों की अवस्था बेहद दर्दनाक थी जिनमें ज्यादात्तर महिलायें व बच्चे थे! कुल 97 शवों का डाह संस्कार किया गया जबकि 90 घायलों को अस्पताल पहुंचाया गया! कुछ दफनाये गए शव ऐसे भी थे जिनके हाथ पाँव बाहर लटक रहे थे! इस तरह इस दुखद गोरखा राज का अंत होना बताया गया है!