बेहद दुर्लभ व विलक्षण है “कफुवा” गायन शैली! रजनीकांत ने कफुवा में उतारा सोमेश्वर का हिमालयी सफर!
(मनोज इष्टवाल)
बस जरा सा अछूता सा..! बाकी सब की ऐसी वानगी की जब आप दृश्य देखें तब आपके रोयें रोंये पुलकित हो जायं ! जब आप नृत्य भावभंगिमा देखें तो श्रद्धा से हृदय नमन कर शीश झुका दे! यही कुछ तो एक धर्म संस्कृति का वह उद्गम है जो गंगा जमुना तमसा रुपिन सुपिन, चिनाब, सिन्धु, झेलम रावी, ब्यास, पतलीकूहल, पार्वती, पिन, मलाणा-नाला, फोजल, सर्वरी और सैज व कांगड़ा में आकर मानो बिनवा न्यूगल, गज और चक्की नदियों के उद्गम से निकलकर पूरे देश में बही हो!
रही जरा सा अछूता की बात तो वह यह है कि अभी भी समसू व सोमेश्वर के वृहद रूप पर शोध होना बाकी है! क्योंकि कभी यह दर्योधन बन जाता है तो कभी कुबेर तो कभी शिव ! कहीं यह आकर भेडाल (भेड चुगाने वाला चरवाह..! लेकिन सचमुच गोबिंद नेगी की सिनेमाफोटोग्राफी, व रजनीकांत सेमवाल के अभिनय निर्देशन से सजा यह गीत जब तक ऑडियो में था तब तक सिर्फ एक समाज बिशेष का गीत था क्योंकि तब इसे सुनने वाले सिर्फ हिमालयी क्षेत्र के वे लोग ही थे जिन्हें कफुवा जागर या गीत के बोल पता हैं! सच कहूँ तो जो टिपिकल कफुवा पर्वत क्षेत्र के लोग गाते हैं उसे सुनने समझने के लिए महीनों तक आपको उनका अनुशरण करना होगा व उनके बीच रहकर कफुआ के ब्यापक शब्द संसार को समझना होगा! इसके लिए नए प्रयास भी हुए हैं टीम ने मयंक आर्य को इसकी जिम्मेदारी दी ताकि गीत के बोल अंग्रेजी शब्दों के माध्यम से भी देश दुनिया तक पहुँचाये जा सकें। ।कफुवा व लामण शैली भले ही शुरुआती दौर में आपको गायन शैली में भाई-भाई लगें लेकिन यह दोनों बेहद अलग हैं! कफुवा देवतुल्य पुकार है जो बुग्यालों से गूंजती हिमालयी क्षेत्र के घर आंगनों तक पहुंचकर उतुंग हिमालय में विलीन हो जाती है जबकि लामण व छोड़े वीररस व प्रेम रस से तर्र होकर करुण रस की उस अगन को सुलगा देने में सफल होते हैं जिसे हम हुक कहते हैं! यह हुक कोयल सी कूक वाली तब लगती है जब दूर हिमालयी भू-भाग में बुग्यालों में विचरण करने वाले भेड़-बकरी पालक भेडाल अपने तम्बुओं से उठते धुंवे में दिल बहलाने के लिए इन्हें गाते हैं!
सचमुच जब यह कफुवा रंजीत सिंह के संगीत में सजा होगा तब इसको तरासने वाले जौहरी गीतकार/लेखक व गायक रजनीकांत के लिए यह उहापोह जरुर रही होगी कि इस बड़े वृहद व्यापक स्वरूप को कैसे मैं ख़ास से आम बनाकर पूरे उत्तराखंड की नहीं बल्कि पूरे देश व विदेश की सुर्ख़ियों में लाऊं! एक टीम तैयार हुई जिसमें सहायक निदेशक के रूप में सोहन चौहान ने हाथ बंटाते हुए रजनीकांत का बोझ हल्का करने के लिए हर सम्भव यत्न किये! इधर कैमरे के धनी गोबिंद नेगी की तिगड़ी जिसमें हरीश भट्ट, चन्द्रशेखर चौहान शामिल हैं सबसे बैठकर जरुर इस पर विचार बिमर्ष हुआ होगा फिर क्या था गोबिंद नेगी एंड पार्टी के पहाड़ी दगडया प्रोडक्शन के अभी धुरंधरों ने मिलकर जो टीम बनाई उसने सचमुच कमाल ही ढा दिया!
यह कहना बड़ा अटपटा सा है लेकिन सच कहने में भी कोई गुरेज नहीं! मैं स्वयं के प्रोडक्शन में चाहे दस कमियाँ रख दूँ लेकिन बतौर समीक्षक मैं मीन मेख निकालने में देरी नहीं करता और यही कारण भी है कि कई एल्बम जब बाजार में आते हैं तो वे मुझे लोकार्पण पर बुलाते तक नहीं हैं! लेकिन यह टीम हर बार कुछ ऐसा कर गुजरती है कि इनकी काबिलियत में ख़ुशी के साथ साथ काम देखकर जलन भी होने लगती है और डर यह लगने लगता है कि क्या ये लोग कुछ मेरे लिए भी छोड़ेंगे?
“कफुवा” के विमोचन पर बोलते हुए लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी ने रजनीकांत सेमवाल की खुलकर प्रशंसा की ! उन्होंने पहली बार इतना खुलकर बोला- कि शुरूआती दौर में जो रजनीकांत गढ़वाली संगीत में फ्यूजन का प्रयोग कर रहा था तब मैंने उसे टोका और उसे बुरा भी लगा लेकिन जो चीज मैं उत्तरकाशी जिले से चाह रहा था वह अब रजनीकांत बेहत्तर ही नहीं बल्कि उस से भी बेहत्तर इस टीम के साथ ला कर समाज को दे रहा है! उन्होंने कहा कि रजनीकांत को इस बात की प्रवाह नहीं करनी चाहिए कि इस गीत पर कितने लाइक, कितने व्यू आये क्योंकि यह काम उस सब से उठकर अलग है और यह बर्षों बाद भी लोगों के दिलों में रहेगा!
सिनेमाफोटोग्राफर गोबिंद नेगी ने इसे टीम वर्क मानते हुए कहा कि वास्तव में यह फिल्माना बेहद अलग था क्योंकि यह उस हर गीत से अलग था जिसका फिल्मांकन करना होता है! उन्होंने कहा यह सब ईश्वर की कृपा रही कि जब भी हम जहाँ भी गए मौसम ने साथ निभाया! वहीँ सहायक निर्देशक के रूप में काम कर रहे सोहन चौहान ने कि हमारे लिए यह सबसे बड़ी चुनौती थी कि हर शॉट्स वन टेक ओके हो क्योंकि इसका ज्यादात्तर फिल्मांकन देवता के जागड़े, पूजा या जात्रा के दौरान था वहां कलाकार नहीं बल्कि देवता के गण थे जिन पर देवता झूलता है ! उन्होंने कहा कि ऐसे में हमने काम को बेहद चौकन्ना होकर अंजाम दिया और जो हम कर पाए वह आपके सामने है!
“कफुवा” के अभिनेता/गीतकार/गायक व निर्देशक रजनीकांत सेमवाल की भूमिका वास्तव में इस गीत में बहुत बढ़-चढ़कर थी! दो नहीं बल्कि ऑडियो रिकॉर्डिंग से लेकर शूटिंग तक चार चार फील्ड में काम करना मामूली बात नहीं थी! लगभग 15 मिनट लम्बा यह जागर शैली का गीत फिल्माना भी ऐसा था कि देखने वाले बोरियत महसूस न करें! रजनीकांत बताते हैं कि कफुवा पर उन्होंने शोध कर जो पाया वह यह है कि सोमेश्वर पूर्व में एक भेडाल था जिन्होंने जंगलों में भेड़ चुगाते हुए चील को सांप को मारते व फिर जड़ी सुंघाते हुए जीवित करते हुए कई बार देख लिया था! यह उपक्रम करते देख उन्होंने अंत में चील को भगाकर मृत संजीवनी बूटी अपने कब्जे में कर ली जो बहुत बड़ी मायाबी विद्या कही जा सकती है! इसके बाद वे कब समसू कहलाये और कब सोमेश्वर बने यह पुरातन के गर्भ में समाया है लेकिन इतना जरुर है कि उन्होंने हमेशा हिमालयी क्षेत्र में अपना वास रखा व चमत्कारी देवता के रूप में प्रसिद्ध हुए!
बहरहाल यह तो सत्य है कि कुरु कश्मीर से महासू जौनसार बावर की धरती पर आये! क्या यह भी सत्य है कि कुरु कश्मीर से ही समसू यानि सोमेश्वर भी विभिन पड़ाव जिनमें कुरु कश्मीर, कुल्लू हिमाचल, जखोल, सांकरी, गंगाड, ओसला,बेकहलडाली, कसालीथात, रैथलावास, रैथल थात, पांगडियावास, चौंराथात, छालाथात, मुखुवा होते हुए गंगोत्री स्नान किया जिसे इस गीत में रजनीकांत ने बेहद संजीदे तरीके से उकेरा है!
पूरी टीम को शुभकामनाएं क्योंकि उन्होंने कहीं भी अंगुली खड़ी करने का मौक़ा नहीं दिया! ड्रोन से फिल्माए गए कुछ शॉट्स बेहद खूबसूरत दिखे साथ ही लोकदेवता का रजनीकांत को वचन देने का फिल्मांकन अद्भुत व अतुलनीय है!
कफुआ के फिल्मांकन में कई शॉट्स दिल छूते हुए दिखाई दिए! भेड़ों के बीच सोमेश्वर की भूमिका में अभिनय करते रजनीकांत सेमवाल को बर्फ के बीच फिल्माते हुए जो स्वर्णिम किरणें पीछा कर रही हैं वह कैमरा फाल्ट था या फिर देवता की कारामात कही नहीं जा सकती क्योंकि वह बिलकुल अलग रेशो पर भेड़ों के झुण्ड के साथ आगे बढ़ रही थी! रजनीकान्त ने एक खूबसूरती इसमें और डाली है वह यह कि जो सीटी वे मुंह से बजा रहे थे भेड़ें उन्हीं का अनुशरण कर रही थी मानों वह बर्षों इन भेड़ों के साथ हिमालयी बुग्यालों के पारंगत भेडाल हों!
उत्तरकाशी जनपद की लोकसंस्कृति की ऐसी वानगी शायद हर किसी ने महसूस न की हो जो मुझे नजर आई क्योंकि मैं यहाँ की लोक संस्कृति को बेहद करीब से महसूस करता हूँ ! इसमें रुपिन सुपिन (पर्वत क्षेत्र) घाटी लोक संस्कृति सभ्यता, यमुना घाटी लोक संस्कृति लोक सभ्यता व भागीरथी घाटी लोक संस्कृति लोक सभ्यता विराज मान दिखी! यह सुखद था कि यहाँ क्या महिलायें, क्या पुरुष सभी अपने लोक समाज के ताने बाने को बुनते लोक संस्कृति की धरोहर अपनी पोशाकों में अधिकत्तर दिखाई दिए जिनमें पुरुष ज्यादात्तर ठेठ अपनी पारम्परिक भेषभूषा जिसमें सिर में शिकोई, बदन में फर्जी, सूतण, कमर में लखोटा, कोट व कानों में दुरोटू पहने हुए दिखेंगे जबकि महिलायें सूतण, कुर्ती, पच्युड़ी (चौखाना धोती), फर्जी, फराग, सिर में ढान्टू/ ढान्टूली या लखुटी/पंटी (चौड़ी ऊनि दुपट्टा सा) और सदरी बननी नजर आएँगी जबकि कानों में गोखुरू या गुखुरु, नाक में बुलाक, कानों में लाबी, गले में टटूडी(लाल दानों की माला), खगई, चन्द्रिहार (चन्द्रहार) व अँगुलियों में पुलडी (अंगूठी) इत्यादि के साथ अपनी लोक संस्कृति के रंग बिखेर रहे थे! जिन्हें कफुवा की टीम के सिनेमाफोटोग्राफर गोबिंद नेगी ने बखूबी दर्शाने की कोशिश की है! “कफुवा” जैसी दुर्लभ गीत शैली को वास्तव में ऑडियो विजुअल के रूप में प्रदेश सरकार को भी संग्रहित करने की जिम्मेदारी लेनी चाहिए क्योंकि दिनों-दिन घटते भेड़-बकरी व्यवसाय के प्रचलन से वह दिन दूर नहीं जब यह गायन शैली अति दुर्लभ हो लुप्तप्राय: समझी जायेगी! यकीन मानिए यह गीत मैं कई बार देख चुका हूँ क्योंकि इसे समझने में ठीक उतना ही वक्त लगेगा जितना लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी के कई गीतों को सुनने समझने में लगता है यकीन जब आप इसके भाव विन्यास समझ जायेंगे तब कफुवा आपकी जुबान पर अमृत बन जाएगा!
मुझे यह कहते हुए जरा भी हिचक नहीं है कि ठेठ कफुवा अगर गाया जाता तब शायद न हम ऐसा फिल्मांकन देख पाते और न ही इस गीत के बोलों को समझ पाते इसे जिस तरह संगीत से फ्यूजन के सुप्रसिद्ध गायक रजनीकांत सेमवाल ने ठेठ स्वर में हल्की सी तब्दीली कर गाया है उन्होंने इसे ठेठ बादी गायन शैली राधाखण्डी का पुट दिया है जो सदियों से कानों को कर्णप्रिय लगती रही है। इसी में श्रीनगर के पंडवाज बन्धु भी काम करते आ रहे हैं। ऐसे ही कुछ अहम प्रयोग पहले भी होते आये हैं।लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी के गीत “ओटूआ बेलणा..!” किशन महिपाल के “किंगर का झाला घुघूती” व अमित सागर की “चैता की चैत्वाली” जैसा ही यह प्रयोग समझा जाना चाहिए क्योंकि इनके ठेठ गायन की विधा अगर आप लोक सुरों में सुन लें तो आपको लगेगा ये लोक सुर इन गीतों के साथ इन्साफ नहीं कर रहे हैं जबकि लोक में ब्याप्त सुर संगीत में नहीं ढले होने से गायन विधा से बिलकुल अलग सुनाई देते हैं! मुझे लगता है आपको भी यह गीत एक बात सुन लेना चाहिए! मुझे पूरा विश्वास है कि इसे सुनने के बाद या देखने के बाद आप इस पूरी टीम को अंतर्मन से शाबाश जरुर कहेंगे! लिंक खोलिये और देखिये-
35 बर्षों से पत्रकारिता के प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक व सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, पर्यटन, धर्म-संस्कृति सहित तमाम उन मुद्दों को बेबाकी से उठाना जो विश्व भर में लोक समाज, लोक संस्कृति व आम जनमानस के लिए लाभप्रद हो व हर उस सकारात्मक पहलु की बात करना जो सर्व जन सुखाय: सर्व जन हिताय हो.