(मनोज इष्टवाल)
वाह रे मेरे प्रदेश…! जिसके नाम की रोटी सभी राजनेता व अधिकारी कर्मचारी खूब भकोर-भकोर कर खाए जा रहे हैं वहां उत्तराखंड संस्कृत अकादमी और उर्दू अकादमी तो है लेकिन यहाँ रह रहे जनमानस की भाषा-बोली की कोई भी अकादमी नहीं है! हाँ…पूर्व में प्रदेश के यशस्वी मुख्यमंत्री स्व. नारायण दत्त तिवारी के काल में जरुरी ऐसी एक अकादमी का गठन हुआ था जिसे यहाँ के अफसरों ने फाड़ फूंककर डस्ट बिन में डाल दिया है!
सलूट है दिल्ली सरकार के मुख्यमंत्री व आम आदमी पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक अरविन्द केजरीवाल व उप मुख्यमंत्री दिल्ली सरकार मनीष सिसोदिया को जिन्होंने केंद्र में गढवाली-कुमाउनी जौनसारी भाषा अकादमी का गठन कर लगभग 30 लाख उत्तराखंड वासियों को सम्मान दिया है! यह घोषणा 20 नवम्बर 2016 को उत्तराखंड एकता मंच दिल्ली के प्रवासी उत्तराखंडियों द्वारा दिल्ली के रामलीला मैदान में शक्ति प्रदर्शन के दौरान लाखों की भीड़ में उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने की थी, जिसका प्रतिफल पूरे तीन साल बाद अब जाकर उत्तराखंड वासियों को मिला है!
आपको जानकारी दे दें कि इससे पूर्व 14 मार्च 2016 को उत्तराखंड एकता मंच दिल्ली का एक शिष्ट मंडल ने दिल्ली सरकार के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल से मुलाक़ात कर ज्ञापन सौंपा था जिसमें लिखा था कि जब पंजाबी, सिन्धी, उर्दू, भोजपुरी व मैथली के लिए अलग-अलग अकादमी का गठन किया जा सकता है तब लगभग 30 लाख उत्तराखंडी जनसमुदाय के लिए क्यों नहीं! इस शिष्ट मंडल में डीपीएमआई के विनोद बचेती, दिग्मोहन नेगी, संजय नौडियाल, निशांत रौथाण, अनिल पन्त, शशि मोहन कोटनाला, विजय फुलारा, नरेंद्र रावत, जगदीश जोशी इत्यादि शामिल थे! तब अरविन्द केजरीवाल द्वारा आश्वासन दिया गया था कि जल्दी ही इस अकादमी का गठन हो जाएगा और अब आखिरकार उसका गठन हो ही गया है!
दिल्ली के उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने उत्तराखंडी संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए एक समिति का गठन किया है। इस समिति का काम होगा गढ़वाली, कुमाऊंनी और जौनसारी भाषा और संस्कृति को बढ़ावा देना। समिति का उपाध्यक्ष उत्तराखंड के लोकप्रिय गायक, जनकवि और गीतकार हीरा सिंह राणा को बनाया गया है।
आम आदमी पार्टी दिल्ली सरकार द्वारा जिस तरह से गढ़वाली कुमाउनी जौनसारी भाषा अकादमी का गठन किया गया है उससे पूरे उत्तराखंडी समाज में ख़ुशी की लहर है और स्वाभाविक सी बात है कि आगामी विधान सभा चुनाव जब भी दिल्ली में होंगे उसका लाभ आम आदमी पार्टी लेगी! इसे भले ही लोग वोट की राजनीति कहें लेकिन ऐसे वोट में हर्ज नहीं गर्व समझना चाहिए जहाँ आपका व आपके समाज का मूल्यांकन हो! यह बात उत्तराखंड सरकार को भी समझनी चाहिए कि सिर्फ हवाई घोषणाओं से काम नहीं चलता! बर्षों से उत्तराखंड में गढ़वाली कुमाउनी भाषा संस्थान या अकादमी की मांग चल रही है! पूर्व में नारायण दत्त तिवारी सरकार द्वारा एक भाषा साहित्य अकादमी बनाई भी गयी थी जिसने कुछ समय तक काम भी किया लेकिन वाह रे…उत्तराखंड के राजनेता व अफसरों ….! जाने वह संस्थान गधे की सींग के मानिंद कहाँ गायब हो गया!
आम आदमी पार्टी की सरकार ने इतना तो कर ही दिया है कि उत्तराखंड प्रदेश की सरकार को एक ऐसा आइना हाथ में थमा दिया है जिसमें शक्ल देखते ही यह दिखने लगे कि उस उन जनांदोलनों का क्या हुआ जो “कोदा झंगोरा खायेंगे उत्तराखंड बनायेंगे” के नारे के साथ उत्तराखंड वासियों ने शुरू किया था? आखिर कब तक हमें अपनी बोली भाषा की उपेक्षा अपने ही प्रदेश में सहनी पड़ेगी!
अब सरकार में बैठे नुमाइंदे इस बात का दावा करना शुरू कर देते हैं कि यहाँ हर घाटी वादी में यहाँ की बोली भाषा बदल जाती है जिससे एक राय बना पाना सम्भव नहीं है! मेरा मानना है कि आप भी एक ईमानदार पहल करके तो देखो! क्योंकि जब राजे रजवाड़ों के समय हमारी बोली नहीं थी बल्कि एक भाषा के रूप में प्रचलित थी तब हमें दिक्कत नहीं हुई तो अब कैसी दिक्कत क्योंकि आप गढ़वाल कुमाऊँ के जितने भी राजवंशी ताम्रपत्र व सन्नतें या राजाज्ञा हैं उन्हें पढ़ लीजिये वे यहाँ के राजवंशियों द्वारा कुमाउनी गढ़वाली भाषा में लिखी हुई मिलती हैं या फिर ब्रह्मी लिपि में!
ऐसे कई इतिहासकार हैं जिन्होने इसे भाषा का दर्ज देकर कई प्रमाण भी प्रस्तुत किये हैं जिनमें मूर्धन्य साहित्यकार गोविन्द चातक, डॉ. नन्द किशोर ढौंडियाल, अंग्रेजी लेखक गियर्सन, सुनीति कुमार चटर्जी, हिंदी के प्रथम डिलीट डॉ. पीताम्बर दत्त बडथ्वाल, मोहन बाबुलकर, भजन सिंह “सिंह”, अवोधबन्धु बहुगुणा, डॉ. हरिदत्त भट्ट शैलेश, डॉ. गुणानन्द जुयाल इत्यादि जाने कितने साहित्यकार लेखकों ने अपने अपने संस्मरणों में प्रमाणिकता के साथ कहा है कि गढवाली बोली नहीं बल्कि भाषा है ! गढवाली श्रीनगरी भाषा को राजभाषा का दर्जा प्रदान है! फिर भी यहाँ के कुछ कामरेडी साहित्यकार व विद्वान् इसे बोली बनाकर रखने में ही खुश हैं व सरकार उन्हीं की हाथों की कठपुतली बनी हुई हुई! डॉ. नन्द किशोर ढौंडियाल तो प्रमाणिकता से कहते हैं कि 1850 से पहले हिंदी वजूद में ही नहीं थी!
अब जबकि दिल्ली सरकार द्वारा गढ़वाली-कुमाउनी जौनसारी भाषा अकादमी का गठन कर दिया है तब भी हमारे नेताओं में इतना डीएम नहीं है कि वे दिल्ली की अरविन्द केजरीवाल सरकार की प्रशंसा कर सकें उल्टे उनके आरोप हैं कि यह वोट की राजनीति है! मेरा कहना है कि अगर यह वोट की राजनीति है तब उत्तराखंड सरकार द्वारा छट पूजा पर अवकाश क्या वोट राजनीति नहीं है जबकि अपने लोकत्यौहार हाशिये पर खिसक चुके हैं!
उम्मीद है उत्तराखंड सरकार दिल्ली की अरविन्द केजरीवाल सरकार से सबक लेकर उत्तराखंड की बोली-भाषा संरक्षण हेतु प्रयास करेगी व शीघ्र ही उत्तराखंड में भी हमें भाषा साहित्य संस्थान दिखाई देगा जिसमें उत्तराखंड में बोली जाने वाली सभी बोलियों के संरक्ष्ण व संवर्धन के साथ यहाँ की गढवाली कुमाउनी बोलियों को भाषा के रूप में प्रवर्तित कर उसे राज्य भाषा का दर्जा देगी!