Saturday, July 27, 2024
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उत्तराखंड के निरक्षर जागरियों को मुंह जुबानी याद है पृथ्वी का उत्पत्ति काल! क़्या आप भी जानते हैं?

* पृथ्वी का उत्पत्ति काल 01 अरब 80 करोड़ बर्ष

* सृष्टि संरचना में नौवीं सृष्टि में मानव जन्म। अर्थात मानव को अभी 10 लाख बर्ष हुए 

(मनोज इष्टवाल)

पृथ्वी के कत्प

किरण सक्रियता के आधार पर हमारी पृथ्वी की वर्तमान आयु १ अरब ८० करोड़ वर्ष आंको गई है। भारतीय ज्योतिष के अनुसार आज, १९९७ ई० में कल्प सौर गताब्द १ अरब ९७ करोड २९४९०८ वर्ष हो गए हैं। भारतीय ज्योतिष की गणानुसार पृथ्वी की जो आयु निश्चित की गई है, वह किरण सक्रियता के आधार पर निकाली गई आयु से केवल ११ करोड़ साढे २९ लाख वर्ष अधिक है। पर उसमें प्रतिवर्ष एक वर्ष की वृद्धि बताई गई है, जबकि किरण-सक्रियता पर आधारित गणना इतनी सूक्ष्म नहीं है।

भूगर्भविज्ञान के अनुसार प्रिकैम्बियन शिलापरतों का, जिनमें अतिशय कोमलांगी जीवों और पादपों के जीवाश्मों के सांचे सर्वप्रथम मिलते हैं १ अरब ५० करोड़ वर्ष पहले निर्माण हुआ था। कहीं इस पृथ्वी पर प्राणियों को सर्वप्रथम सृष्टि थी। भारतीय ज्योतिष के अनुसार आज १९९७ ३० में सृष्टि सौर गताब्द १० अरब ५५ करोड ८८५०९८ हो गए हैं। अर्थात् सर्वप्रथम जीवसृ‌ष्टि आज के १ अरब पौने ५६ करोड वर्ष पहले आरंभ हुई। भारतीय मनीषियों को पता था कि मुख्यतः जीव- सृष्टि सूर्य पर निर्भर है। इसलिए उन्होंने इस गणना को सौर (सूर्य की) सृष्टि नाम दिया है।

पृथ्वी की उत्पत्ति से पूर्व

पृथ्वी की उत्पत्ति से पूर्व की स्थिति के सम्बन्ध में आर्य मनीषियों की जो धारणा थी, उसे ऋग्वेद के प्रसिद्ध नासदीय सूक्त (१०/११/१२९) में इस प्रकार व्यक्त किया गया है।
उस काल में अमत् नहीं था. सत् भी नहीं था। पृथ्वी थी और व्योम तथा लोक ही थे। तब यहां कौन रहता था? वह्माण्ड कहां था गम्भीर जल (गहरा समुद्र) भी कहां था उस समय न अमात्य था और नत्रा और दिवस भी नहीं थे। वायु से शून्य, केवल आत्या के अवलम्ब से श्वास-प्रश्वास वाले एक मात्र वहा की ही सता थी। उसके अतिरिक्त सर्वत्र शून्य ही था। सर्वत्र तय व्याप्त था। कुछ भी जान था। केवल काही तप की शक्ति के प्रभाव में विद्यमान् था। कालान्तर में उस बाहिरकी इच्छा शक्ति जागी।

प्रकृति का रहस्य कोई नहीं जानता फिर उसका वर्णन कौन कर सकता है? इस सृष्टि की उत्पति का कारण क्या है? देवगण थी इन मुष्टियों के पश्चात् ही उत्पन्न हुए, फिर कौन जानता है यह सृष्टि कहां से उत्पन्न हुई? इन्हें किसने रथा? इन गृष्टियों का जो स्वायों है, वह परम व्योम में स्थित है। वहीं इस रचना के सम्बन्ध में जानता होगा। पर यह भी सम्भत है कि वह भी इस संबंध में कुछ न जानता हो।

अनादिकाल से चली आती इस अनुत्तरित जिज्ञासा के क्रम में एक अन्य ऋषि की धारणा को ऋग्वेद १०/१०/१२१ में इस प्रकार व्यक्त किया गया है-

जिस किसी के द्वारा भी सृष्टि (प्रजा) की रचना हुई हो, उसे प्रजा-पति ‘क’ मान सकते हैं। उस प्रजापति ‘क’ की प्रेरणा से सर्वप्रथम हिरण्यगर्भ (शाश्वत-ऋत) उत्पन्न हुए। उन्होंने पृथ्वी आदि समस्त भूतों को नियमित किया। उनकी महिमा से हिमाच्छादित पर्वत उत्पन्न हुए। समुद्र से मुक्त पृथ्वी (स्थल) भी उन्हीं की कृति है। समस्त दिशाएं उनकी भुजाओं के समान हैं। उन्होंने पृथ्वी और ऊंचे आकाश को अपनी महिमा से दंड किया। अन्तरिक्ष में जल (मेष) की रचना की। गगन में सूर्य की स्थापना की। जिस असीम जल (समुद्र) ने प्रलय के समय समस्त भुवनों को आच्छादित कर लिया था, उसी जल. से. अग्नि और आकाश की उत्पत्ति हुई। उसी से देवों (और समस्त प्राणघारियों) का आधार प्राणवायु भी उत्पन्न हुआ। जल ने अपने बल से अग्नि को प्रकट किया। उस प्रजा-पति ‘क’ की महिमा सर्वत्र है।

मानव जीवधारियों में सबसे कनिष्ठ

वर्तमान् विज्ञान के अनुसार पृथ्वी पर डेढ़ करोड़ या अधिक वर्ष पहले प्रि-कैम्ब्रियन कल्प में पादपों और जीव-जन्तुओं की उत्पत्ति आंरभ हो गई थी और तब से अब तक इनका निरन्तर विकास होता रहा है। किन्तु मानव पृथ्वी पर केवल १० लाख वर्ष पूर्व ही पहले-पहल दिखाई दिया। इस प्रकार मानव पृथ्वी के प्राणियों में से सबसे कनिष्ठ है। यह तथ्य भारतीय मनीषियों को अनेक शतियों पहले विदित हो गया था। श्रीमद् भागवत पुराण ३/१० के अनुसार-

‘है प्रकार की प्राकृत सृष्टिय सृष्टियों के पश्चात् सातवीं प्रधान वैकृति सृष्टि में स्थावर पादपों। की सृष्टि हुई। इनका संचार नीचे, जड़ से ऊपर की ओर र होता है। इनमें प्रायः ज्ञानशक्ति प्रकट नहीं रहती। ये भीतर ही भीतर केवल स्पर्श का अनुभव करते हैं तथा इनमें से प्रत्येक में कुछ विशेष गुण होता है। पादप है वर्गों में विभाजित हैं। १. वनस्पति, २. ओषधि, ३. लता, ४. त्वकसार, ५. वीरूध और ६. डुम।’

आठवीं सुष्टि तिर्यग योनियों अर्थात् पशु-पक्षियों की है। इन्हें काल का ज्ञान नहीं होता, तमोगुण की अधिकता के कारण ये केवल खाना-पीना, मैथुन करना, सोना आदि ही जानते हैं। इन्हें सूंघने मात्र से वस्तुओं का बोध हो जाता है। इनके हृदय में विचारशक्ति या दूरदर्शिता नहीं होती। पशुओं में दो खुरों वाले, एक खुर वाले तथा पांच नखों वाले जीव आते हैं। उड़ने वाले जीव पक्षी कहलाते हैं, ये कई प्रकार के हैं।

इनके पश्चात् नौवों सृष्टि मानवों की हुई, यह एक ही प्रकार की है। इनके आहार का प्रवाह ऊपर (मुंह) से नीचे की ओर होता है। मनुष्य रजोगुण प्रधान, कर्मपरायण, और दुःख-रूप विषधी में ही सुख मानने वाले हैं।

इम उदाहरण से यह भी प्रकट होता है कि भारतीय मनीषियों को शतियों पहले यह पता लग गया था कि सभी मानव केवल एक ही ‘योनि’ के हैं अर्थात् एक दूसरे से सन्तान उत्पन्न करने में सक्षम एक ही प्रजाति के हैं, जब कि पशु-पक्षियों में विभिन्न प्रजातियां होने के कारण वे एक-दूसरे से सन्तान उत्पन्न नहीं कर सकते।

अवतारों की व्याख्या में भी कुछ व्यक्ति विकासवाद देखते हैं। प्रथम अवतार माथ्य को माना गया है। अर्थात् सबसे पहले जलजीव उत्पन्न हुए। द्वितीय अवतार कर्म को उन जीवों का प्रतिनिधि बताया जाता है जिन्हें जल प्रिय था, पर धीरे-धीरे स्थल पर भी चलने लगे थे। तीसरा अवतार बाराह उन जीवों का प्रतिनिधि माना जाता है जो स्थल पर रहते थे, पर जिन्हें जल-क्रीडा में बड़ा आनन्द आता था। बौथा अवतार नरसिंह पशुकोटि से मानवकोटि की ओर आनेवाले जीवों का प्रतिनिधि है, जिसमें पशुओं की क्रूरता तब तक चली आती थी। पांचवां अवतार वामन मनुष्य-रूप में आने पर भी। पूर्ण विकसित शरीर वाला नहीं था। छठा अवतार श्रीराम पूर्ण विकसित, कर्तव्य-परायण मनुष्य का प्रतिनिधि है। उसमें वीरता, धैर्य, सभी गुण हैं, पर जीवन में आनन्दोल्लास का समावेश नहीं है। आठवां अवतार श्रीकृष्ण जीवन में आनन्दोल्लास, महाभारत के युद्ध में न्यायप्रियता और राजनीतिक कुशलता तथा दार्शनिकता का एक साथ समन्वय दिखानेवाला आदर्श महामानव है।

महाभारत १/६५ में तथा पुराणों में मानवादि के संभव (उत्पत्ति) के वर्णन में कहा गया है-

पहले ब्रह्माजी ने अपने मन से ही छः महर्षि उत्पन्न किए। ब्रह्मा के इन मानसपुत्र महर्षियों के नाम हैं-मरीचि अत्रि अंगिरा, पुलस्त्य पुलह और कतु। मरीचि के पुत्र कश्यप से समस्त प्रजाएं (मैथुनी सृष्टि) उत्पन्न हुई। ब्रह्मा के एक अन्य मानस पुत्र दक्ष की पहले १३ कन्याएं हुई। इन्होंने देव, दानव, राक्षस, असुर, अप्सरा, गन्धर्व, नाग, सुपर्ण, रुद्र, मरुद्रण और गौ को जन्म दिया। पीछे दक्ष ने अपनी पत्नी वीरिणी के गर्भ से ५० कन्याएं उत्पन्न की। इनमें से उसने १० धर्म को, २७ चन्द्रमा को तथा १३ कश्यप को समर्पित कर दीं। इनकी सन्तान विश्व भर में फैल गई।

महाभारत और पुराणों में वर्णित संभव-संबंधी आख्यान से विदित होता है कि इन प्रन्यों में मानव-समाज का वर्णन उस स्थिति से आरंभ किया गया है, जब वह पूर्णतः सभ्य बन चुका था। मानव आश्रमों, प्रामों या नगरों में रहते थे, शिक्षा का प्रचार था, धार्मिक प्रवृत्तियां थी, तपोनिष्ठ व्यक्तियों का सम्मान था, पारिवारिक, सामाजिक एवं राष्ट्रीय कर्तव्यों के प्रति जनता सजग थी। प्रारंभ में पशु-कोटि से धीरे-धीरे ऊपर उठकर मानव कब और किस प्रकार इस सभ्य कोटि तक पहुंचा इसका कोई उल्लेख महाभारत और पुराणों में नहीं है। वेद, रामायण, ब्राह्मण ग्रन्द आरण्यक, उपनिषद सूत्र प्रन्ध आदि सभी पूर्ण उन्नत मानव का ही वर्णन करते हैं, आदिम मानव का नहीं, जिसे वर्तमान समय में प्राग्-इतिहास का महत्वपूर्ण अंग माना जाता है।

महाभारत और पुराणों में मानव नर-नारियों से पशु-पक्षियों, अन्य जीव-जन्तुओं, यहां तक कि पादपों की भी उत्पत्ति बताई गई है। कथावाचक प्रायः इसका समाधान इस प्रकार करते हैं-कपिला आदि को गौ आदि पालतू पशुओं को जन्म देने वाली कहा गया है. इसका तात्पर्य है कि कपिला आदि ने इन पशुओं को पालतू बनाया था।

इसी प्रकार पुलह ऋषि की सन्तान में शरभ, सिंह, व्याध, रीछ, ईहामृग (भेड़िया) की गणना की गई है। इसका तात्पर्य है कि पुत्वह ऋषि के आश्रम में ये हिंसक पशु भी अपनी क्रूरता भुलाकर, पालतू पशुओं के समान रहते थे और ऋषि को अपनी सन्तान के समान प्यारे थे। इसी प्रकार सुरसा से सपों की, अनला, सहा और वीरूप्या से तीन प्रकार की वनस्पतियों की उत्पत्ति का भी समाधान किया जाता है।

इस प्रकार की व्याख्या से श्रद्धालु श्रोताओं की जिज्ञासा तो शान्त हो जाती है, फिर भी लाखों वर्षों में धीरे-धीरे इन जीवधारियों के शरीर और स्वभाव का जिस प्रकार विकास हुआ उनकी अत्यन्त रोचक गाया प्रकट नहीं होती। इस गाया को प्रकट किया है आधुनिक विकासवाद के सिद्धान्त ने। प्राग् इतिहास में आदिम सर्ग का भी अध्ययन किया जाता है, जिसमें मानव के जीवन के विकास की चर्चा होती है।

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