(मनोज इष्टवाल ट्रेवलाग 19 मार्च 2020)
हिमालय दिग्दर्शन ढाकर शोध यात्रा भाग-2
पर्यटन विभाग ने एक सगुफ़ा छोड़ा डार्क टूरिज्म…! सभी की खोपड़ी अचकचा गयी कि आखिर यह डार्क टूरिज्म है क्या! हिमालय दिग्दर्शन यात्रा 2020 के प्रथम चरण में पलायन एक चिंतन के संयोजक ठाकुर रतन सिंह असवाल ने इसे नाम दिया ढाकर यात्रा..! ट्विन वैली रिसॉर्ट्स महाबगढ़ की वह शाम जो बॉन फायर के साथ उपजी उसमें अधीनस्थ संघ लोक सेवा आयोग के सचिव संतोष बडोनी ने सलाह दी कि क्यों न आप ढाकर यात्रा के बीच में शोध शब्द जोड़कर इसका मूल्यांकन करते हैं। इसे ढाकर यात्रा की जगह ढाकर शोध यात्रा बनाइये तो आपको इस क्षेत्र का वह डार्क टूरिज्म सामने दिखाई देगा। बात पते की थी इसलिए सबने रजामन्दी भरी और यात्रा का दूसरा चरण आज ट्विन वैली रिसॉर्ट्स से शुरू होता हुआ लम्बे पैदल मार्ग के लिए चल दिया।
मैं पिछले दो सालों से लम्बी पैदल यात्रा से बचने की कोशिश कर रहा था। मित्र राकेश बिजल्वाण जो कि एक फार्मेसी कंपनी का मालिक है ने लगभग झिड़कते हुए कहा था कि भाई जी..अभी से घुटने मत टेको आपसे हमें अभी बहुत कुछ पाना था। उसने फोन उठाया और किसी को फोन पर ही मेरे लिए ऐड़ी के लिए एंकल गार्ड, कमर के लिए कोरोसेट, घुटने व कोहनी के लिए नीगार्ड ऑर्डर करते हुए कहा कि कल सुबह आपका रुकसेक मुझे मेरे ऑफिस में दिखना चाहिए कोई इफ बट नहीं होनी चाहिए। उसकी आत्मीयता व ठाकुर असवाल व दिनेश कंडवाल जी का आदेश भला कहाँ टाल सकता था। यही सब इस यात्रा के लिए सहायक हुआ और आज ट्विन वैली रिसॉर्ट्स में अपने नी गार्ड व एंकल गार्ड बांधते हुए मुझे राकेश बिजल्वाण की टिप्स बरबस ही याद हो आई।
ट्विन वैली रिसॉर्ट्स से पहला पड़ाव लगभग दो किमी. दूर भरतपुर गांव बना। जहां दो परिवार हमारी जाती बिरादरी के केष्टवाल, तीन परिवार डोबरियाल, तीन परिवार देवल्याल व तीन परिवार नन्दा नेगी रहते हैं। यानि जमा-जमा कुल मिलाकर 12-13 परिवारों का गांव। बाकी परिवार अपना सामान बांधकर कोटद्वार भावर या अन्य मैदानी भू-भागों में प्लावित हो गए हैं।
हाथ में गाय बैलों को बांस की कुप्पी जिसे स्थानीय भाषा में बंसथोल्या कहते हैं व एक हाथ में तेल की बोतल थामे एक माता जी से गढ़वाली भाषा में हिमालय दिग्दर्शन टीम के संयोजक रतन असवाल ने पूछा कि राजा भरत की जन्मस्थली कहाँ है। श्रीमती डोबरियाल ने अपने मकान के पिछवाड़े की तरफ ऊंचा हाथ उठाते हुए कहा कि वो देखिए महाबगढ़ के नीचे वह झपन्याला हरित फलिंड पेड़ है, उसके चारों ओर चौंथरी (चबूतरा) है वही राजा भरत का जन्म स्थल माना जाता है।
फिर क्या था हम वहां से आगे बढ़े व देवल्याल पण्डितों के घर से ऊपर चढ़ते हुए नंदा नेगियों के घरों को लांघते हुए खेतों तक जा पहुंचे जहां से वह पेड़ दिखाई दे रहा था। मैं, रतन असवाल जी, मुकेश बहुगुणा व उनकी श्रीमती कुसुम बहुगुणा यहीं तक गए जबकि अधिवक्ता अमित सजवाण के नेतृत्व में ग्राम प्रधान धूरा-भरपूर पपेन्द्र रावत, नितिन काला, कृष्णा काला व फोटोजर्नलिस्ट हिमांशु बिष्ट उस चबूतरे की तरफ लपक पड़े जहां चक्रवर्ती राजा भरत का जन्म हुआ था। अमित सजवाण जी मुझसे मुखातिब होकर बोले- भाई साहब, आइये भारत बर्ष के ऐसे कर्मयोगी राजा की जन्मस्थली की मिट्टी चूम आएं। मैं बोला- आप हो आओ अमित भाई। हम यहीं इंतजार कर रहे हैं।
सारे युवा अमित सजवाण की अगुवाई में राजा भरत की जन्मस्थली की ओर बढ़ गए। जब ये लोग 300 मीटर दूर पहुँच गए तो मुझे ध्यान आया कि कल मैने ही तो यह बात रखी थी कि हम हस्तिनापुर के राजा दुष्यंत व गढ़वाल की बेटी शकुंतला के पुत्र भरत के जन्मस्थान की मिट्टी चूम कर आएंगे। मन ही मन पछतावा हुआ लेकिन भला मन कहाँ मानने वाला था मैंने वहीं खेत की मिट्टी उठाई व उसे चूमते हुए चक्रवर्ती सम्राट राजा भरत के प्रति पूरे मनोयोग से अपनी निष्ठा प्रकट की।
इस गांव की आर्थिकी मेरे हिसाब से सिर्फ बकरी पालन है। क्योंकि हर घर के खलियानों में उदयपुर अजमेरी बकरियों की दबड़ (बांस की खीपचियों से निर्मित बकरियों के लिए घिरा स्थान) बना हुआ था। यहां नीम्बू प्रजाति के फल बहुतायत मात्रा में दिखने को मिले।
मैं जब नीचे पहुंचा तो पाया ठाकुर रतन असवाल, दिनेश कंडवाल व प्रवीण भट्ट जी एक उम्रदराज महिला से बतिया रहे थे जबकि बगल में बैठी एक युवा महिला तौलिये से अपना मुंह ढके हुए थी। ये लोग कोरोना की वजह से हमारी पूरी टीम को स्वास्थ्य विभाग की टीम समझ रही थी। हमारा मकसद भी था कि हम जहां भी जाएं कोरोना वायरस की ग्रामीणों को जानकारी दे सकें। ये सभी भी वही काम कर रहे थे। युवा महिला जिनका नाम श्रीमती विधाता देवी था ने अतिथि देवी भव: की तर्ज पर सबको कहा कि चाय पीकर आगे की यात्रा कीजिये लेकिन ठाकुर रतन असवाल बोले-अभी डटकर नाश्ता करके आएं हैं इसलिए फिर कभी जरूर चाय पीने आएंगे।
मुझे उम्रदराज महिला श्रीमती कमला देवी देवल्याल बोली- लिम्बा ले जाओ रास्ते के लिए। मैं मना इसलिए नहीं कर पाया क्योंकि मुझे तो वह सच जानना था जो डार्क टूरिज्म के नाम पर भरतपुर नाम को उजागर क़र रहा था। उनकी बहू विधाता देवी हिंगोस लेकर लिम्बा (बड़े-बड़े अचारी नीम्बू) लेने चली गयी तो मैंने उनसे प्रश्न किया कि आपके ग्रामदेवता कौन हैं? तब उन्होंने बताया कि गांव के बीच में वो जो पीपल पेड़ के नीचे विराजमान हैं वह माहाब देवता हैं। मैं बोला तो गांव के ऊपर उस झपन्याले वृक्ष के नीचे कौन से देवता हैं तो वह बोली वह भी महाब देवता ही हैं, उन्हें भरत भी बोलते हैं।
तब तक एक वृद्धा श्रीमती मन्सरा देवी भी आ गयी थी वह बोली- उन्ही के नाम से इस गांव का नाम भरतपुर है। यह चौथी महिला थी जिन्होंने यह प्रमाणिक किया था कि वह चौंरी ही चक्रवर्ती राजा भरत की जन्मस्थली है।
यह थोड़ा अजीब था लेकिन आश्चर्यचकित कर देने वाला भी कि इस गांव में हमें एक भी मर्द मौजूदा समय पर हाजिर नहीं दिखा। दो एक पुरुष थे भी लेकिन उन्होंने इस विषय में कोई रुचि नहीं दिखाई कि उनके गांव में आखिर आया कौन है।
मेरी अड़वांस टीम जिसमें ठाकुर रतन सिंह असवाल, दिनेश कंडवाल, प्रवीण भट्ट, मुकेश बहुगुणा, श्रीमती कुसुम बहुगुणा, प्रणेश असवाल व सौरभ असवाल इत्यादि शामिल थे मुझसे काफी आगे अगले गंतब्य के लिए रवाना हो गए थे जबकि दूसरी टीम अभी भरत जन्मस्थली से लौटी नहीं थी। इसलिए मैं अकेले ही कंडियालगांव के लिए निकल पड़ा।
पलायन की मार इस क्षेत्र पर शायद कुछ ज्यादा ही पड़ी है। मटियाली-कांडाखाल-पौखाल-महाबगढ़ तक जहां भी जिस गांव पर भी नजर पड़ती उसके घर के आगे व पीछे के खेत तक बंजरों में तब्दील नजर आए। यही हाल भरतपुर गांव का भी है। यहां बस अंतर इतना है कि गांव के आस-पास के खेत हरे दिखे।
भरतपुर से तीखे ढाल के बाद कंडियालगांव दिखाई दिया जिसकी सरहद पर कखड़ा नामक वृक्ष के लाल-गुलाबी पत्ते मनमोहक लग रहे थे। यह गांव जखमोला जाति के 6-7 परिवारों का है। इनकी आजीविका भी वर्तमान में पशुपालन ही है। खेती के नाम पर मकानों के बगल तक उग आए लैटिना की झाड़ियां मानों मजाक उड़ा रही हों।
कंडियाल गांव में मेरी मुलाकात चन्द्रमोहन जखमोला, चैतराम जखमोला व अनिल कुमार जखमोला से हुई। उन्हें यह आश्चर्य हुआ कि शहरी जनमानस के लोग अलग-अलग धड़ों में बंटकर आखिर इस रास्ते आये हैं तो उसके पीछे का मकसद क्या है। हम सबकी एक ही जिम्मेदारी थी पहले नागरिक सुरक्षा की बात करना व उसके पश्चात ढाकर शोध यात्रा पर चर्चा।
हिमालय दिग्दर्शन टीम के संयोजक रतन असवाल ने सभी टीम मेम्बर्स के साथ चर्चा करके यह तय किया कि हम कोरोना वायरस को लेकर ग्रामीणों के बीच चर्चा जनजागरूकता भी पैदा करें। सच कहें तो यह एक अच्छी सोच भी थी। वैसे ज्यादात्तर लोग कोरोना वायरस का विज्ञापन अपने टेलीफोन की घण्टी से पहले सुन चुके थे।
अनिल कुमार जखमोला ने उन किंवदन्तियों का यहां जिक्र करते हुए महाबगढ़ से जुड़े कई प्रसंगों के बारे में जानकारी देते हुए बताया कि लोगों का मानना है कि महाबगढ़ में सतयुग द्वापर काल में बद्रीनाथ या केदारनाथ से एक विशाल शिलाखंड महाबगढ़ के आस-पास हेमकूट पर्वत पर तपस्या कर रहे ऋषियों का तप भंग करने के लिए किसी राक्षसी प्रवृत्ति की अदृश्य शक्ति द्वारा फैंका गया, जिसके महाब भगवान ने तीन टुकड़े कर दिए। उनमें एक टुकड़ा गंगोलगढ़, दूसरा टुकड़ा जोगीख्यात व तीसरा टुकड़ा हरषु जा गिरा।
चन्द्रमोहन जखमोला व चैतराम जखमोला ने महाबगढ़ किस राजा का रहा है इस पर चर्चा में जानकारी देते हुए बताया कि वे अपने पुराणों से सुनते आ रहे हैं कि जब राजा अजयपाल ने 52 गढ़ जीते तब इस गढ़ के राजा भाँधौ असवाल थे। जो मूलतः पहले असवालस्यूँ व बाद में सीला-भरस्वार से आकर यहां बसे हैं। लेकिन वे यह नहीं बता पाए कि यह सीला भरस्वार गांव है कहाँ? वे बताते कंडियाल गांव के उत्तर-पूर्व में स्थित पहाड़ी की ओर अंगुली उठाते हुए उन दो मकानों को दिखाते हैं, व कहते हैं पहले वह रानियों को निवास स्थल था जिसे रणेशा कहा जाता है। फिर हाथ को सीधे नाक की सीस्त में ले जाकर दो पहाड़ी टीलों को बताते हुए कहते हैं। वो देखिये…! वहां रहता था राजा भाँधौ असवाल! वहां आज भी उसके महल के खंडहर मौजूद हैं। वहां कुछ साल पहले तक ताम्र भांड, सोने चांदी के जेवर लोगों को मिलते रहते थे लेकिन जखमोला जी यह बताने में असमर्थ रहे कि कहां के किन लोगों को यह सब मिला।
अनिल जखमोला बोले कि उनके दादाजी बताया करते थे कि उस स्थान को लोग मालूबासा या भांदुबासा के नाम से पुकारते थे। यही से महाबगढ़ का गढपत्ति भाँधौ असवाल पूजा करने मालू की बेलों से निर्मित लगभग 15-16 किमी. लम्बे झूलापुल के माध्यम से पहुंचते थे। जिसे स्थानीय भाषा में मालू का मलसवा कहा जाता है।
उनका मानना है कि महाबगढ़ की शक्तियों से दिल्ली सल्तनत भी भय खाती थी। जब भी मुगल इस क्षेत्र से आक्रमण की सोचते महाब देवता धावड़ी लगाकर गढपत्ति भाँधौ असवाल को चेता देते थे। उनका मानना है कि औरंगजेब काल में जब दाराशिकोह की ढूंढ करने आये मुगल दुर्दान्त सैनिक रास्ता भटक गए तब वे इस क्षेत्र में आये। व महाब देवता की बुलन्द आवाज़ से घबरा गए थे। कहा जाता है तब गढ़वाल नरेश के आदेश पर भाँधौ असवाल सेना सहित कुमाऊं क्षेत्र के राजा से लोहा लेने गए थे ऐसे में मुगल महाबगढ़ पहुंचे व उस स्पटिक युक्त शिबलिंग को बर्छे-भालों से काटकर/उखाड़कर दिल्ली। दरबार ले गए। कहा जाता है वह लिंग आज मक्का मदीना में अवस्थित है।
क्रमशः….(इसी अंश में पढ़िएगा गोरखाकाल में राजा भगदयो असवाल व उसकी सात रानियों का कत्लेआम। मेनका आश्रम महेड़ा, मालन की 7 किमी पैदल यात्रा, कण्व ऋषि की तपस्थली किमस्यार (किमसेरा), गौतमी का आश्रम शकुन्तला -दुष्यंत गन्दर्भ विवाह मंडप मांडई इत्यादि बिषय पर)।