क्यों पवित्र माना जाता है पइयां (पदम्) वृक्ष को? कृष्ण भगवान व गंगू रमोला से जुडी क्या है गाथा ?
(मनोज इष्टवाल)
देवभूमि उत्तराखंड की बात कहें तो यहाँ के जनमानस में हर पशु, पक्षी, पेड़-पौधे, कीट-पतंगे या ऋतुएं पूजनीय होते हैं और तो और यहाँ पशुधन के लिए जहरीला पौधा हो या फिर मनुष्यों के लिए बिषैला जानवर…! यहाँ हर एक को न्यायोचित्त सम्मान के साथ उसका अतिथि सत्कार हुआ है। अब ये मत कह दीजियेगा कि वह कैसे ? अगर ऐसा नहीं है तो फिर अंयार नामक पौधा व बिषधर नाग की पूजा का विधान भी यहाँ नहीं होता।
इन्हीं विधानों में से एक विधान के रूप में आज हम पदम नामक वृक्ष जिसे गढवाल में स्थानीय भाषा में पइयां कहते हैं, की गुणवता का बखान करते हैं व उसे द्वापर युगीन कृष्ण भगवान की लीलाओं के साथ उन जागर गाथाओं से जोड़कर उनके कालिय नाग अवतार में अवतरण की लोकगाथा या जागर गाथा से जोड़ते हुए पद्म नामक वृक्ष को पद्म नाग से जोड़कर उत्तराखंड की खूबसूरत वादियों घाटियों में बसे रमोली क्षेत्र के गढ़पति गंगू रमोला से जोड़कर इस रिसर्च का श्रीगणेश करते हैं।
बात द्वापर युग के अंतिम चरण से शुरू होती है। भगवान कृष्ण को स्वप्न में रमोली दिखाई देती है, जहाँ का प्रजापालक गंगू रमोला बेहद नास्तिक व क्रूर था। उसे घमंड हो जाता है कि वही देवता है और उसी से सम्पूर्ण हिमालयी क्षेत्र की श्रृष्टि चल रही है। जागरों के बखान में आता है कि वह पशुधन व कृषिधन से सर्वसम्पन्न था। उसके पास 12 बीसी बकरियां, नौ बीसी भेड़, गौ धन के गुठ्यार, भैंसों की मैर्वड्यूं (खरक) भरे पड़े थे। अन्न-धन इतना कि उसकी कई पीढियां बैठकर खा सकती थी लेकिन यह प्रजा-पालक अपने आगे आम जनता को कीड़े-मकोड़ों से अधिक नहीं समझता था। इसकी राणी मैणावती अद्वितीय खूबसूरत थी लेकिन 84 बर्ष बीत जाने के बाद भी गंगू रमोला की कोई औलाद नहीं थी।
पदम वृक्ष :- गढवाल मंडल में इसे पइयां नाम से पुकारा जाता है और इस वृक्ष की महत्तता यह है कि यह देव स्थान में अक्सर पाया जाता है। गढवाल मंडल के पौराणिक नाग मंदिरों में पदम् वृक्ष अवश्य होता है। जब यह पौधे के रूप में उगता है तब इसकी पूजा का एक विधान हुआ करता था। हम में से बहुत कम लोग जानते होंगे कि जिस के खेत या मुंडेर पर यह पदम् वृक्ष उगता था उसकी सूचना वह परिवार पूरे गाँव को देता था। वह परिवार ही नहीं बल्कि गाँव की महिलायें अगले दिन व्रत रखती थी व दीप धूप से उस वृक्ष की पूजा होती थी। वह परिवार रोट व प्रसाद बनाता व पूरे गाँव में उसे पदम् वृक्ष के धरती में आगमन की खुशियों के रूप में प्रसाद के रूप में बांटा जाता। फिर पंचमी के आगमन का इन्तजार होता व पूरे गाँव वाले उसी दिन से उस परिवार के घर आँगन में लोकगीत लगाने पहुँचते जो एक महीने तक लगाए जाते। गीतों की शुरुआत ही यहाँ से होती :-
- नै डाली पइयां जामी,
- सेरा कि मिन्डोली, नै डाली पइयां जामी
- एक पत्ती व्हे ग्याया, नै डाली पइयां जामी
- दुपत्ती व्हे ग्याया, नै डाली पइयां जामी
- द्यू कारा धुप्याणु, नै डाली पइयां जामी
- चला पाणी चार्योला, नै डाली पइयां जामी
- चला चौंरी चीण्योला, नै डाली पइयां जामी
- देव्तौं का सत नs, नै डाली पइयां जामी
अर्थ- पद्म का नया पेड़ उग आया है, सेरा अर्थात पानी वाले खेत के किनारे मुंडेर पर। एक पत्ती हो गया है, पद्म का नया पेड़ उग आया है, दोपत्ती हो गया है, पद्म का नया पेड़ उग आया है, दीप धूप करो, पद्म का नया पेड़ उग आया है, चलो पानी डालते हैं, पद्म का नया पेड़ उग आया है, चलो उसकी सुरक्षा दिवार चुनते हैं, पद्म का नया पेड़ उग आया है, देवताओं के आशीर्वाद से, पद्म का नया पेड़ उग आया है।
अब प्रश्न उठता है कि ये लोकगीत क्या द्वापर युग से चलता आ रहा है ? क्योंकि गंगू रमोला पर कोड उत्पन्न होने के बाद उसने द्वारिका नारायण के लिए साथ मंडेली चुन्नी थी जिन्हें आज सात सेम कहा जाता है। चौदह पद्म वृक्ष लगाए थे जिन्हें 14 मुखेम के नाम से जाना जाता है। तभी से इस पदम् वृक्ष की पवित्रता को सर्वोच्च माना जाता है।
गढ़-कुँमाऊ में देव पूजन के दौरान पद्मवृक्ष के पूजन की परम्परा है व सेमंद अर्थात दलदली जमीन (जहाँ पानी भी हो व मिटटी भी हो) में पूजन के दौरान पद्म वृक्ष की टहनियों से डोली बनाई जाती है, इसे पइयां न्यूतण (पदम् वृक्ष को आमन्त्रण) देना भी कहा जाता है। यह नागर्जा पूजन के दौरान भी होता है और इसे स्थानीय भाषा में “गस गाड़ना” (दूसरे का अहंकार व नजर उतारना) भी कहते हैं। इस दौरान सोहनी गरुड़ का आकाश में विचरण या सफ़ेद मूषक का धरती पर विचरण करना शुभ माना जाता है। इसकी लोककथा भगवान् कृष्ण के नागर्जा अवतार के अवतरण के समय आती है।
पुरानी परम्पराओं के अनुसार यदि किसी के खेत में पदम् वृक्ष उग आये तो उस वृक्ष की टहनी तब तक नहीं काटी जाती थी जब तक उसकी पूजा न हुई हो या फिर उसे निरंकार पूजा या होली के अवसर पर न्यौता न दिया गया हो। जिस भेड़ या बकरी पालक ने उसे बकरी-भेड़ चुगाते समय अपने जानवरों को काटकर खिलाया उसे पशुधन की हानि अवश्य होती थी, या तो भेड़ बकरियां रोगग्रस्त हो जाया करती थी या फिर उन्हें बाघ निवाला बना देता था। इस बिषय में कितनी सत्यता है यह कह पाना सम्भव नहीं है क्योंकि शायद ही वर्तमान के किसी भेड़ पालक या बकरी पालक ने इस बात पर कभी चिंतन मनन किया हो। जिस पदम् वृक्ष को नारायण पूजा में या होली पर न्योता दिया जाता है, कहते हैं वह पदम् वृक्ष अपनी उम्र पूरी कर देने के बाद भी उस धरती को आशीर्वाद देकर जाता है कि वह कालांतर में फले फूले व उस धरती में वास करने वाले इंसान की वंश वृद्धि हो। यह सत्य है जिसे मैंने अपने अनुभवों में बहुत करीब से जाना है।
अब लौटते हैं भगवान कृष्ण व गंगु रमोला की उस लोकगाथा पर…जिस से नागर्जा जागर उत्पन्न हुई है। श्रीकृष्ण के नागर्जा अर्थात नाग अवतार के बारे में देव पूजन की घडियाली शैली (डोंर-थाली के साथ गायी जाने वाली जागर) की जागरों में बर्णन मिलता है कि भगवान कृष्ण को जब स्वप्न में गंगू रमोला की रमोली दिखती है व प्रजा पर हो रहे उसके अत्याचार दीखते हैं तब वह व्यथित हो उठते हैं।नवः देखते हैं कि गंगू रमोला के आस-पास जितने भी छोटे बड़े राजा हैं वह यह सब देखकर भी उसका बाल न बांका कर सकते हैं, इसलिए मजबूरन कृष्ण द्वारिका से उत्तराखंड के लिए प्रस्थान करते हैं, उनकी माँ उन्हें रोकती हैं, रानियाँ रोकती हैं। माँ कहते है कि तेरे लिए वैसी हि रमोली द्वारिका में रच देंगे तू मत जा लेकिन भगवान कृष्ण भला कहाँ मानने वाले थे। उन्होंने ब्राहमण रूप रखा और आ पहुंचे गंगू रमोला की रमोली। इस दौरान यमुना तट पर उनकी भेंट बेहद खूबसूरत कुसुम्बा कोलिण से होती है जिस पर वह मोहित हो जाते हैं। कुसुम्बा कोलीण व कृष्ण की गाथा का पूर्व में लेख प्रकशित किया जा चुका है।
भगवान कृष्ण गंगू रमोला के महलनुमा घर पहुंचकर उस से रात्रि विश्राम हेतु आश्रय मांगते हैं व कहते हैं मुझे एक कुटिया बनाने के लिए अपनी रमोली में स्थान दे दो। गंगू रमोला दुत्कार के साथ कहता है कि मैं न किसी को ब्राह्मण मानता हूँ, न देवता अत: यहाँ से दफा हो जा ! यह कहकर वह अपनी 12 बीसी बकरियों व नौ बीसी भेड़ों को लेकर बग्लोसी पर्वत शिखर की ओर भैंसों के खरक डांडा की मर्वड्यों के लिए निकल जाता है। उसके बदन में ऊनि वस्त्र दौंखा है व सिर में टोपी जिसके पोरों पर खाजा रखे हुए हैं, कंधे पर कुल्हाड़ी व कमर पर सूतण के लटका फरसा है। वह रमसूर्या जोड़ी, छ: सूर्या बांसुरी व नौ सूर्या बांसुरी लेकर अपनी मदमस्ती में बग्लोसी डांडा से पंवाली कांठा की ओर विचरण पर निकल जाता है।
अगली सुबह भगवान श्रीकृष्ण सोचते हैं कि क्यों न इसकी कमजोर नस पकड़ी जाय वह आकाशचर गरुडी को गारुड़ी विद्या से बुलाते हैं व उसे कहते हैं कि उसे वह स्वर्ण रूप दे देंगे वह पूरी रमोली के आकाश से चक्कर लगाकर यह ढूंढने की कोशिश करे कि गंगू रमोला का भाग्य क्या है जो ये किसी के कब्जे में नहीं आ सकता। गरुड़ व उसके सहचर पक्षी पूरी रमोली खंगाल देते हैं लेकिन कुछ बिशेष नहीं ढूंढ पाते। फिर कृष्ण मूसक को आदेश देते हैं कि वह उसका रूप चांदी की तरह चमकदार बना देगा वह पूरी जमीन खोदे व उसके महल के कोने-कोने का निरिक्षण करके बताये कि आखिर इसका भाग्य है कहाँ ? लेकिन मूसक अर्थात चूहा भी अपनी पूरी फ़ौज के साथ यह सब ढूँढने में नाकाम हो जाता है।
अगली सुबह भगवान कृष्ण ब्राहमण भेष में राणी मैनावती के महल पहुँचते हैं। राणी मैनावती अतिथि सत्कार करती है तो भगवान् कृष्ण चौसठ वेद व नौगजी पत्तडा निकालकर गणत करते हुए कहते हैं कि राणी जा तुझे आशीर्वाद है कि तेरे इस उम्र में जौंळ पुत्र (जुड़वा बेटे) हों। जिनमें शक्ति और भक्ति दोनों परिपूर्ण हों। राणी मैनावती प्रसन्न होकर कहती है कि है ब्राह्मण अन्न धन के रूप में तुम्हे क्या चाहिए मांगों ? भगवान कृष्ण गायों के आँगन घूमता है। महल छान मारता है लेकिन उन्हें गंगू का भाग्य नहीं दीखता। अंत में उन्हें ऊँचे थान में बंधी चांदा-बेडू भैंसे दिखती हैं। वह मंद-मंद मुस्कराते हैं व समझ जाते हैं कि गंगू का भाग्य कहाँ है। वह राणी मैनावती से कहती हैं कि आप अपनी दोनों भैंसे अन्यत्र बाँध दे मुझे इनका कीला (खूंटा) चाहिए व बिना देरी किये भगवान पद्म वृक्ष अर्थात पइयां वृक्ष के उस कीले को उखाड़ देते हैं। कहते हैं चांदा-बेडू भैंस पत्थर बन जाती हैं। सारी भेड़ बकरियां गौ इत्यादि पत्थरों में तब्दील हो जाते हैं। पूरे महल में दूब उग जाती है। अन्न को कोठार भूसे में तब्दील हो जाते हैं। स्वर्ण आभूषण लोहे में तब्दील हो जाते हैं व पंवाली कांठा गए गंगू रमोला पर कोड़ निकल आता है। ब्राह्मण भेष में आये कृष्ण अलोप होकर द्वारिका लौट आते हैं।
अब गंगू रमोला दर-दर भटकता हुआ ब्राह्मणों के आगे शरणागत होता है। ब्राह्मण गणत करके कहते हैं कि जिस ब्राहमण को तूने जगह नहीं दी वह द्वारिका नारायण भगवान श्रीकृष्ण थे अत: तुझ पर सर्प दोष लगा है। अत: तुझे अब सात मंडेली (मंदिर) चुनने पड़ेंगे व उनमे अपने भाग्य वृक्ष पदम को उत्पन्न करना पड़ेगा लेकिन जैसे ही आज वह मंदिर चुनता दूसरी सुबह सब वह उजड़े हुए मिलते। गंगू रमोला ने यह कर्म कई बार किया लेकिन हमेशा यही होता रहा। थक-हार कर रोता बिलखता गंगू आखिर कृष्ण शरणागत हुआ व भगवान कृष्ण का स्मरण कर उनसे अपने किये गए कृत्य की क्षमा याचना मांगी व कहा कि वह अब सच्चा प्रजापालक बनेगा। 26 नवम्बर चतुर्थी के दिन आखिरकार भगवान श्रीकृष्ण ने गंगू रमोला को कालिया नाग के रूप में उसी स्थान पर दर्शन दिए जिस स्थान पर आज सेम का नागर्जा मंदिर अवस्थित है। उन्होंने गंगू को न सिर्फ उसका भाग्य लौटाया बल्कि 84 बर्ष की अवस्था में उनका यौवन लौटाया व बाद में मैनावती के गर्भ से सिदुवा-विदुआ रमोला भी पैदा हुए। गंगू रमोला की प्रार्थना पर श्रीकृष्ण भगवान ने उन्हें भी अपने विराजमान स्थान पर स्थान दिया व तब से भगवान नारायण की पूजा में गंगू रमोला भी सम्मिलित माने जाते हैं।
माना जाता है कि तभी से पइयां अर्थात पदम् वृक्ष पूजनीय माना जाता है! भगवान श्रीकृष्ण के नौ रूप अनंत, वासुकी, शेष, पदम, कम्बल, शंख, दृष्टराष्ट्र, तक्षक व कालीय रूप को नागवंश के रूप में उत्तराखंड में पूजा जाता है व पद्म वृक्ष की छाल का स्वरूप भी नाग की केंचुली की तरह माना जाता है।