Sunday, April 27, 2025
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पहाड़ों में एक माह बाद क्यों मनाई जाती है मंगसीरी व रिख बग्वाळ (दीवाली)..!

पहाड़ों में एक माह बाद क्यों मनाई जाती है मंगसीरी व रिख बग्वाळ (दीवाली)..!

(मनोज इष्टवाल)

अब आप कहेंगे कि भला ऐसा भी कभी होता है कि बग्वाळ अर्थात दिवाली मनाने की अलग अलग परम्पराएं हों! एक माह बाद तो सिर्फ रवाई जौनपुर जौनसार व यमुना-तमसा के आर-पार ले क्षेत्र में ही बूढ़ी दिवाली का चलन है फिर यह मंगसीरी व रिख बग्वाळ भला कहाँ से आ गयी! इस सब पर मेरा यही कहना है कि हम इन सबको मनाते तो हैं लेकिन उसकी गहराई तक कभी नहीं जाते! यह ऐसे जय घोष हैं या विजय पताकाओं की बग्वाळ कहलाती हैं जिन्हें हमारे सूरमाओं ने अपनी सरहदों के विस्तार को बढाने के बाद विजयी रोशनी के रूप में जश्न का रूप दिया है और उनका अनुशरण हर उस क्षेत्र ने किया है जहाँ भी उनकी भूमिका रही है!

मंगसीरी व रिख बग्वाल!

मंगसीरी बग्वाळ व रिख बग्वाळ एक ही युद्ध की देन है जिसे जीतने के बाद यह विजयी जश्न के रूप में गढवाल के कुछ क्षेत्रों में मनाया गया! राजा भले ही एक थे जो श्रीनगर की गद्दी पर आसीन थे लेकिन 52 गढ़ के गढ़पतियों ने इसे पूरी तरह अंगीकार नहीं किया वरना यह दीवाली या बग्वाळ सम्पूर्ण गढवाल में जरुर मनाई जाती! लेकिन यह भी सत्य है कि कभी गंगा घाटी ही नहीं बलि तमसा-यमुना से लेकर उत्तरी-पूर्वी नयार से लेकर रामगंगा क्षेत्र तक गढवाल के सम्पूर्ण क्षेत्रों में कहीं मंगसीरी बग्वाल तो कहीं रिख बग्वाल मनाई जाती थी जिसमें बलि देने की परम्परा थी! नयार घाटी क्षेत्र में इसे रिख बग्वाल इसलिए कहा जाता था क्योंकि यह लोदी रिखोला की द्वापा जीत को जोड़कर देखी जाती थी! वहीँ चौन्दकोट में गोर्ला थोकदार बग्वाल व रिंगवाड़ा रावत इगास नहीं मनाते थे! कहा जाता है कि इस दिन इन दोनों थोकदारों को अपने अपने नेतृत्व में बड़ी हार का सामना करना पड़ा था! इतिहास के गर्त में और क्या छुपा है उस पर अभी शोध की अत्यंत आवश्यकता है!

सन 1627-28 में राजा महिपत शाह के राज्यकाल में गढ़भूमि को दो ऐसे सूरमा सेनापति मिले जिनकी युद्ध कौशलता व बहादुरी के किस्से न सिर्फ गढवाल में बल्कि दिल्ली दरबार तक प्रचलित थे! इन्हीं के बदौलत राजा महिपत शाह ने सिरमौरी रियासत का बड़ा हिस्सा जौनसार-बावर,  सिलाई-फते पर्वत से हाटकोटी-रोहडू तक, कुमाऊं के द्वाराहाट क्षेत्र, व सुदूर तिब्बत के द्वापाघाट तक अपना राज्य विस्तार किया!

सिरमौर रियासत में इनके कहर को इतना दर्दनाक बताया जाता था कि वहां की राजपूताना महिलाओं ने प्रण कर लिया था कि वे तब तक अपने बाल नहीं बांधेंगी व घाघरे पर नाड़ा नहीं डालेंगी जब तक वह लोदी रिखोला व माधौ भंडारी के खून से अपने बाल नहीं धो लेती! वहीँ यहाँ के राज घराने के सूरमाओं ने यह तय कर लिया था कि वह अपने मकानों की धूर तब तक नहीं चुनेंगे जब तक इन्हें परास्त नहीं कर लेते! दुर्भाग्य से न माधौ भंडारी और न ही लोदी रिखोला को सिरमौर रियासत कभी हरा पाई बल्कि इसके उलट लोदी रिखोला ने सिरमौर राज्य तहस नहस कर राजा मान्धाता प्रकाश से कलापीर का नगाड़ा व बदरीनाथ की ध्वज पताका छीन ली व उनकी पुत्री से विवाह कर गढ़ बैराट (जौनसार) में रहने लगा! (सिरमौर राज्य की सीमाएं –उत्तरी सीमा जुब्बल एवं बालसोंन राज्य तक, दक्षिणी पश्चिमी सीमा पंजाब की पहाड़ियों तक, पूर्वी सीमा गढ़वाल राज्य के कालसी बैराटगढ़ तक)

इस विजय के बाद गढवाल राजा के वजीरों व सलाहकारों ने राजा के ऐसे कान भरे कि राजाज्ञा से गोपनीय तौर पर लोदी रिखोला को मारने का षड्यंत्र रचा गया और उन्हें दिल्ली द्वार उखाड़ लाने की आज्ञा दी गयी! जिसे वे उखाड़ भी लाये लेकिन उनका अभिमंत्रित भाला किसी ने छुपा दिया! किंवदंती है कि राजा ने दिल्ली द्वार ले आने वाले लोदी रिखोला से पूछा कि उसने द्वार किससे उखाड़ा तक लोदी ने जबाब दिया – अपने भाले से..! भाला कहाँ है? यह पूछे जाने पर लोदी को लगा कि वह भाला वहीँ भूल गया और भाला लेने चल दिया लेकिन रास्ते में मुख्यमार्ग में गड्डा खुदा होने व रात्रि समय दिखाई न देने पर लोदी रिखोला गड्डे में जा गिरे जहाँ जहरीले भाले पहले से खड़े किये गए थे जिनसे गुद जाने से उनकी मौत हो गयी! लोदी रिखोला की माँ मैंणा देवी ने राजा को श्राप दिया कि तू व तेरा राजमहल इसी अलकनंदा में समा जाए यह एक माँ की बद्दुआ है! कालान्तर में हुआ भी वही ..राजमहल अलकनंदा में समा गया! कहा जाता है कि आज भी दिल्ली दरवार रिखणीखाल ब्लाक मुख्यालय के आस-पास कहीं है! लोदी रिखोला कुमाऊँ क्षेत्र के आक्रमणों को रोकने के लिए इस क्षेत्र में नियुक्त थे इसका प्रमाण यह है कि आज भी रिखोला नेगियों के इस क्षेत्र में बड़खेत तल्ला-मल्ला, झर्त, कुमालडी, धामधार सहित कई गाँव हैं!

यह तो सिर्फ एक सार था लेकिन असली कहानी मंगसीरी बग्वाळ या रिख बग्वाळ पर आकर ठहर जाती है! सन 1627-28 के दौरान तिब्बती लुटेरों का गढवाल राज्य की सीमान्त क्षेत्रों (टकनौर, पैनखंडा, दसोली)  में बड़ा भय था जिसे देखते हुए राजा ने तिब्बत के राजा को कई बार इस सम्बन्ध में चेतावनी पत्र भी भेजा लेकिन अपने मद में चूर तिब्बती राजा द्वारा राजाज्ञा की अवेहलना की गयी! फलस्वरूप राजा द्वारा अपने महानायक माधौ सिंह भंडारी व सेनापति लोदी रिखोला के नेतृत्व में तिब्बत फतह के लिए चमोली के पैनखंडा व उत्तरकाशी के टकनौर क्षेत्र से बड़ी सेना को द्वापा तिब्बत आक्रमण के लिए भेजा! आक्रमण माणा-नीती-चोरहोती होकर छपराड़ यानी दापाघाट के राजा काकुआमोर पर किया गया! यहाँ एक सन्दर्भ यह भी आता है कि राजा द्वारा माधौ सिंह भंडारी को इस युद्ध से वापस बुला लिया गया था क्योंकि तब लंगूर गढ़ी पर भी आक्रमण हुआ था लेकिन इसके प्रमाण नहीं मिलते! पूरा साल गुजर गया लेकिन श्रीनगर से मीलों दूर तिब्बत से कोई खबर नहीं मिल पाई! 12 बग्वाल 16 श्राद्ध भी निकल गए लेकिन जब इस सेना के सेनापतियों का कोई संदेश नहीं पहुंचा तो क्या माधौ भंडारी का मलेथा व क्या लोदी रिखोला का बयाली गाँव..सब जगह मातम पसर गया! पूरा कार्तिक माह निकलने को था! दीवाली में भी पहाड़ का अन्धेरा छंटने का नाम नहीं ले रहा था! आखिर एक दिन एक दूत राजदरबार में संदेश लेकर पहुंचता है कि विजयी सेना तिब्बत फतह कर लौट रही है व महासेनापति माधौ सिंह भंडारी ने संदेश भिजवाया है कि श्रीनगर पहुँचने पर बग्वाली जश्न की तैयारी हो!

जेसुअट पादरी अन्तानियों के विवरण अनुसार राजा महीपति शाह के राजकाल में गढदेश ने तिब्बत पर आक्रमण के समय 11000 बंदूकें व 20 छोटी तोपों से आक्रमण किया था! इस से यह स्पष्ट होता है कि गढ़नरेश के पास भी बन्दूक चलाने वाले व तोप संचालन वाले सैनिक मौजूद थे!

वहीँ अगर मौलाराम के कृतित्व की बात हो तो उन्होंने 1635 में महीपति शाह व 1753 ई. में प्रदीप शाह के पास सवा लाख फ़ौज होने की बात कही है! वहीँ जेसुअट पादरी अन्तानियों के अनुसार तिब्बत आक्रमण में महिपत शाह की सेना में 20 हजार पैदल सैनिक, 11 हजार बन्दूकची व 20 तोपची सैनिकों का दल मौजूद था! इस से यह आभास होता है कि तिब्बत तब शक्तिशाली राष्ट्र हुआ करता था!

यहाँ एक प्रसंग यह भी आता है कि तिब्बत के साथ गढ़सेना ने तीन राजाओं के राजकाज में लड़ाइयाँ लड़ी हैं! इनमें राजा मानशाह, श्यामशाह और महीपति शाह प्रमुख हैं! इस युद्ध में सेनापति लोदी रिखोला की मुख्य भूमिका रही जिन्होंने अपने दो जनरल चमोली गढ़वाल के रडवा गाँव पट्टी खदेड़ के भीम सिंह बर्त्वाल, उदय सिंह बर्त्वाल (उदय सिंह को कहीं कहीं शीतल सिंह बर्त्वाल भी लिखा गया है) के साथ भयंकर लड़ाई लड़ी! जिसमें तिब्बत का राजा काकुवामोर मैदान छोड़कर भाग खड़ा हुआ व बाद में माधौ सिंह भंडारी से संधिपत्र पर हस्ताक्षर किये जिसके अनुसार तिब्बत के राजा गढ़ नरेश महीपति शाह को सवा सेर सोना व एक चौसिंगा मेंढा देना स्वीकार किया !

बताया जाता है कि तिब्बत फतह कर सेना वहां राजा की राजाज्ञा का इन्तजार करती रही! बाद में लंगूर गढ़ से लौटे महीपति शाह के महानायक माधौ सिंह भंडारी द्वारा राजाज्ञा के अनुसार जनरल भीम सिंह बर्त्वाल व उदय सिंह बर्त्वाल को दापा का राजकाज चलाने का राजशाही फरमान सुनाया व सेना लेकर वापस लौटे! बदरीनाथ के विधायक मनोज रावत जानकारी देते हुए बताते हैं कि इस विजय में बर्त्वाल भाई काफी सोना व जेवर लेकर लौटे थे! व उन्होंने दापा पर लगभग 20 बर्ष बहुत सुंदर तरीके का सुशासन किया! जब वह यह आश्वस्त हो गए कि अब तिब्बती सेना उनके कब्जे में है और वहां की सुंदरियां उनकी सगी! तब वे लापरवाह से हो गए जिसका फायदा तिब्बतियों ने गोपनीय सूचनाओं के आदान प्रदान से ल्हासा के लामा तक पहुंचाई! ल्हासा के लामा द्वारा बड़ी सेना के साथ जनरल भीम सिंह बर्त्वाल व उदय सिंह बर्त्वाल की टुकड़ी पर आक्रमण किया! चूँकि गढ़वाल सीमा यहाँ से दूर थी व आक्रमण ऐसे समय में किया गया था जब हिमालयी भू-भाग ज्यादातर बर्ष से ढका रहता है अत: गढवाल राजा से सहायता पहुंचना मुश्किल था इसलिए इनकी टुकड़ी ने बहादुरी से लड़ते हुए  ल्हासा के लामा की बिशाल सेना के दांत खट्टे कर दिए! विजयी मद में चूर जनरल बर्त्वाल उस रात सूरा और सुन्दरी में डूबे रहे जिसका फायदा उठाते हुए ल्हासा के लामा ने इनके सर कलम कर दिए और दापा पर पुनः अधिकार प्राप्त कर लिया!

इससे पूर्व जब माधौ सिंह भंडारी व लोदी रिखोला की सेना कार्तिक माह के अंतिम चरण में श्रीनगर विजय होकर लौटी तब वह अपने साथ राजमहल के सुंदर स्वर्णकलश उठा ले आये जो राजा महीपति शाह के राजमहल में सुशोभित रहे! राजा ने खुश होकर सेनापति लोदी रिखोला को उपहार स्वरूप मानिकनाथ का डांडा, मंगरौ का सेरा, कालौं की कोठी, लालुड़ी गढ़, जाखीगढ़ दिया!

बताया तो यह भी जाता है कि जनरल भीम सिंह बर्त्वाल व उदय सिंह बर्त्वाल की मौत की खबर सुनकर राजा महीपति शाह ने पुनः माधौ सिंह भंडारी व लोदी रिखोला के नेतृत्व में फ़ौज भेजकर दापा के राजा काकुवामोर का सर कलम करवाया और लौटने पर जश्न स्वरुप मंगसीरी बग्वाळ मनाई गयी! वहीँ लोदी रिखोला के अधिपत्य क्षेत्र में रिख बग्वाळ मनाई गयी! आज भी उत्तरकाशी क्षेत्र में माधौ सिंह भंडारी के विजय जुलुस की मंगसीरी बग्वाळ मनाई जाती है जबकि लोदी रिखोला की रिख बग्वाळ अब कम क्षेत्रों में ही मनाई जाती है! मुझे आज भी ध्यान है कि बचपन में आज से लगभग 35 बर्ष पूर्व तक हमारे क्षेत्र में भी एक माह बाद यह बग्वाळ मनाई जाती थी! उत्तरकाशी के गंगा व गाजणा घाटी व टिहरी गढवाल के बूढाकेदार क्षेत्र में मंग्सीरी बग्वाल आज भी धूमधाम से मनाई जाती है!

क्या है इगास पर्व…!

भैलो रे भैलोखेला रे भैलो बग्वाल की राति, खेला भैलो बग्वाल की राति, लछमी को बास जगमग भैलो की हर जगा सुवास स्वाला पकोड़ों की हुई च रस्याल सबकु ऐन इनी रंगमती बग्वाल नाच रे नाचा खेला रे भैलो अगनी की पूजामन करा उजालो भैलो रे भैलो।

संजय चौहान बताते हैं कि-

“उत्तराखंड के गढवाल मंडल में दीपावली के ठीक ग्यारह दिन बाद एक और दीपावली मनाई जाती है जिसे ईगास बग्वाल कहा जाता है। इस दिन पूर्व की दो बग्वालों की तरह पकवान बनाए जाते हैं, गोवंश को पींडा ( पौस्टिक आहार ) दिया जाता है, बर्त खींची जाती है तथा विशेष रूप से भेलो खेला जाता है।“

बड़ी बग्वाल की तरह इस दिन भी दिए जलाते हैं, पकवान बनाए जाते हैं। यह ऐसा समय होता है जब पहाड़ धन-धान्य और घी-दूध से परिपूर्ण होता है। बाड़े-सग्वाड़ों में तरह-तरह की सब्जियां होती हैं। इस दिन को घर के कोठारों को नए अनाजों से भरने का शुभ दिन भी माना जाता है। इस अवसर पर नई ठेकी और पर्या के शुभारम्भ की प्रथा भी है। इकास बग्वाल के दिन रक्षा-बन्धन के धागों को हाथ से तोड़कर गाय की पूंछ पर बांधने का भी चलन था। इस अवसर पर गोवंश को पींडा (पौष्टिक आहार) खिलाते, बैलों के सींगों पर तेल लगाने, गले में माला पहनाने उनकी पूजा करते हैं। इस बारे में किंवदन्ती प्रचलित है कि ब्रह्मा ने जब संसार की रचना की तो मनुष्य ने पूछा कि मैं धरती पर कैसे रहूंगा? तो ब्रह्मा ने शेर को बुलाया और हल जोतने को कहा। शेर ने मना कर दिया। इसी प्रकार कई जानवरों पूछा तो सबने मना किया। अंत में बैल तैयार हुआ। तब ब्रह्मा ने बैल को वरदान दिया कि लोग तुझे दावत देंगे, तेरी तेल मालिश होगी और तुझे पूजेंगे।

पींडे के साथ एक पत्ते में हलुवा, पूरी, पकोड़ी भी गोशाला ले जाते हैं। इसे ग्वाल ढिंडी कहा जाता है। जब गाय-बैल पींडा खा लेते हैं तब उनको चराने वाले अथवा गाय-बैलों की सेवा करने वाले बच्चे को पुरस्कार स्वरूप उस ग्वालढिंडी को दिया जाता है।

 

— बर्त परम्परा!

बग्वाल के अवसर पर गढ़वाल में बर्त खींचने की परम्परा भी है। ईगास बग्वाल के अवसर पर भी बर्त खींचा जाता है। बर्त का अर्थ है मोटी रस्सी। यह बर्त बाबला, बबेड़ू या उलेंडू घास से बनाया जाता है। लोकपरम्पराओं को शास्त्रीय मान्यता देने के लिए उन्हें वैदिक-पौराणिक आख्यानों से जोड़ने की प्रवृत्ति भी देखी जाती है। बर्त खींचने को भी समुद्र मंथन की क्रिया और बर्त को बासुकि नाग से जोड़ा जाता है।

— भैलो खेलने का रिवाज !

ईगास बग्वाल के दिन भैला खेलने का विशिष्ठ रिवाज है। यह चीड़ की लीसायुक्त लकड़ी से बनाया जाता है। यह लकड़ी बहुत ज्वलनशील होती है। इसे दली या छिल्ला कहा जाता है। जहां चीड़ के जंगल न हों वहां लोग देवदार, भीमल या हींसर की लकड़ी आदि से भी भैलो बनाते हैं। इन लकड़ियों के छोटे-छोटे टुकड़ों को एक साथ रस्सी अथवा जंगली बेलों से बांधा जाता है। फिर इसे जला कर घुमाते हैं। इसे ही भैला खेलना कहा जाता है।

परम्परानुसार बग्वाल से कई दिन पहले गांव के लोग लकड़ी की दली, छिला, लेने ढोल-बाजों के साथ जंगल जाते हैं। जंगल से दली, छिल्ला, सुरमाड़ी, मालू अथवा दूसरी बेलें, जो कि भैलो को बांधने के काम आती है, इन सभी चीजों को गांव के पंचायती चौक में एकत्र करते हैं। सुरमाड़ी, मालू की बेलां अथवा बाबला, स्येलू से बनी रस्सियों से दली और छिलो को बांध कर भैला बनाया जाता है। जनसमूह सार्वजनिक स्थान या पास के समतल खेतां में एकत्रित होकर ढोल-दमाऊं के साथ नाचते और भैला खेलते हैं। भैलो खेलते हुए अनेक मुद्राएं बनाई जाती हैं, नृत्य किया जाता है और तरह-तरह के करतब दिखाये जाते हैं। इसे भैलो नृत्य कहा जाता है। भैलो खेलते हुए कुछ गीत गाने, व्यंग्य-मजाक करने की परम्परा भी है। यह सिर्फ हास्य विनोद के लिए किया जाता है। जैसे अगल-बगल या सामने के गांव वालों को रावण की सेना और खुद को राम की सेना मानते हुए चुटकियां ली जाती हैं, कई मनोरंजक तुक बंदियां की जाती हैं। जैसे- फलां गौं वाला रावण कि सेना, हम छना राम की सेना। निकटवर्ती गांवों के लोगों को गीतों के माध्यम से छेड़ा जाता है। नए-नए त्वरित गीत तैयार होते हैं।

— भैलो गीत!

भैलो के कुछ पारम्परिक गीत इस प्रकार है… सुख करी भैलोधर्म को द्वारीभैलो धर्म की खोलीभैलो जै-जस करी सूना का संगाड़ भैलोरूपा को द्वार दे भैलो खरक दे गौड़ी-भैंस्यों कोभैलोखोड़ दे बाखर्यों कोभैलो हर्रों-तर्यों करीभैलो।

कब मनाई जाती है ईगास बग्वाल!

गढ़वाल में चार बग्वाल होती है, पहली बग्वाल कर्तिक माह में कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि को। दूसरी अमावश्या को पूरे देश की तरह गढ़वाल में भी अपनी आंचलिक विशिष्टताओं के साथ मनाई जाती है। तीसरी बग्वाल बड़ी बग्वाल के ठीक 11 दिन बाद आने वाली, कर्तिक मास शुक्ल पक्ष की एकादशी को मनाई जाती है। गढ़वाली में एकादशी को ईगास कहते हैं। इसलिए इसे ईगास बग्वाल के नाम से जाना जाता है। चौथी बग्वाल आती है दूसरी बग्वाल या बड़ी बग्वाल के ठीक एक महीने बाद मार्गशीष माह की अमावस्या तिथि को। इसे रिख बग्वाल कहते हैं। यह गढ़वाल के जौनपुर, थौलधार, प्रतापनगर, रंवाई, चमियाला आदि क्षेत्रों में मनाई जाती है।

 

क्यों मनाई जाती है ईगास बग्वाल!

इसके बारे में कई लोकविश्वास, मान्यताएं, किंवदंतिया प्रचलित है। एक मान्यता के अनुसार गढ़वाल में भगवान राम के अयोध्या लौटने की सूचना 11 दिन बाद मिली थी। इसलिए यहां पर ग्यारह दिन बाद यह दीवाली मनाई जाती है। रिख बग्वाल मनाए जाने के पीछे भी एक विश्वास यह भी प्रचजित है उन इलाकों में राम के अयोध्या लौटने की सूचना एक महीने बाद मिली थी। वहीं दूसरी मान्यता के अनुसार दिवाली के समय गढ़वाल के वीर माधो सिंह भंडारी के नेतृत्व में गढ़वाल की सेना ने दापाघाट, तिब्बत का युद्ध जीतकर विजय प्राप्त की थी और दिवाली के ठीक ग्यारहवें दिन गढ़वाल सेना अपने घर पहुंची थी। युद्ध जीतने और सैनिकों के घर पहुंचने की खुशी में उस समय दिवाली मनाई थी। रिख बग्वाल के बारे में भी यही कहा जाता है कि सेना एक महीने बाद पहुंची और तब बग्वाल मनाई गई और इसके बाद यह परम्परा ही चल पड़ी। ऐसा भी कहा जाता है कि बड़ी दीवाली के अवसर पर किसी क्षेत्र का कोई व्यक्ति भैला बनाने के लिए लकड़ी लेने जंगल गया लेकिन उस दिन वापस नहीं आया इसलिए ग्रामीणों ने दीपावली नहीं मनाई। ग्यारह दिन बाद जब वो व्यक्ति वापस लौटा तो तब दीपावली मनाई और भैला खेला।

जबकि हिंदू परम्पराओं और विश्वासों की बात करें तो ईगास बग्वाल की एकादशी को देव प्रबोधनी एकादशी कहा गया है। इसे ग्यारस का त्यौहार और देवउठनी ग्यारस या देवउठनी एकादशी के नाम से भी जानते हैं। पौराणिक कथा है कि शंखासुर नाम का एक राक्षस था। उसका तीनो लोकों में आतंक था। देवतागण उसके भय से विष्णु के पास गए और राक्षस से मुक्ति पाने के लिए प्रार्थना की। विष्णु ने शंखासुर से युद्ध किया। युद्ध बड़े लम्बे समय तक चला। अंत में भगवान विष्णु ने शंखासुर को मार डाला। इस लम्बे युद्ध के बाद भगवान विष्णु काफी थक गए थे। क्षीर सागर में चार माह के शयन के बाद कार्तिक शुक्ल की एकादशी तिथि को भगवान विष्णु निंद्रा से जागे। देवताओं ने इस अवसर पर भगवान विष्णु की पूजा की। इस कारण इसे देवउठनी एकादशी कहा गया।

 

कुमाऊं में इगास को बूढी दीवाली क्यों कहा जाता है!

मूलतः कुमाऊं का समाज बूढी दीवाली को ठेठ रामचन्द्र जी के राजतिलक की जानकारी उनके राजतिलक के 11वें दिन बाद मिलने से जोड़ते हैं! यही किंवदंती गढवाल में भी इगास को लेकर यहाँ के जनमानस में प्रचलित हैं लेकिन यह सच है कि दीपावली से हटकर बूढी दीवाली, इगास, मंगसीरी बग्वाल, रिख बग्वाल व देव बग्वाल सभी किसी न किसी राजतिलक से जुडी बड़ी विजयी उपलब्धियों से जुडी हुई हैं! कुमाऊं की बूढ़ी दीवाली को देव बग्वाल के रूप में भी जाना जाता है!

1673 से मनाई जाती है कुमाऊं में बूढी दीवाली!

ऐतिहासिक सन्दर्भों का अगर बिश्लेषण किया जाय तो यहाँ की देव बग्वाल या बूढी दीवाली को कुमाऊं के राजा बाजबहादुर चंद से जोड़कर देखा जाता है जिसने सबसे अधिक 40 बर्ष तक राज किया! वह 1638 में गद्दी में बैठा व 1678 तक उसने निष्कलंक राज किया! कत्युरी शासकों के बाद वह सबसे शक्तिशाली राजा माना गया जिसने जोहार-दारमा दर्रों पर अधिकार कर वहां के शक वंशज (शौका) राजाओं को अपने अधीन कर तिब्बत के कई हिस्सों पर अधिकार किया, उसने कई बार गढ़वाल पर आक्रमण किया व विजयी हासिल की! उसने पाली-पछाऊँ पर अधिकार किया व मनीला से निर्वासित जीवन यापन कर रहे कत्युरी वंशजों का राज्य से निष्कासन किया! और तो और उसने तराई क्षेत्र में बड़ी विजय हासिल कर अपना राज्य विस्तार नगीना धामपुर तक फैलाया!

अल्मोड़ा के चंद वंशज राजा बाज-बहादुर चंद ने गढ़वाल का जूनागढ़ विजय कर रणदेवी के रूप में माँ नंदा को अपने साथ ले आये! और उसे अपनी कुलदेवी के समान मानकर उसकी पूजा अर्चना की व उसे अल्मोड़ा के सिंहासन पर विराजमान किया! कहा जाता है कि माँ नंदा को अल्मोड़ा में स्थान देने का राजा का स्वप्न पूरा होते ही यहाँ दीवाली का जश्न मनाया गया जिसे बूढी दीवाली कहा जाता है!

इतिहासकारों का मानना है कि 1673 में कुमाऊं नरेश बाज बहादुर चंद (1638-78) ने गढ़वाल के जूनियागढ़ (दशौली) के प्रसिद्ध दुर्ग को फतह कर लिया और फिर नंदा की मूर्ति को डोले के साथ अल्मोड़ा लाकर मल्ला महल (वर्तमान कलक्ट्रेट परिसर) में स्थापित कर दिया। इस संबंध में जनश्रुति है कि राजा बाज बहादुर ने ऐसा अपने तांत्रिक गुरु की सलाह पर किया था। कहा जाता है कि जब वह मूर्ति को लेकर कुमाऊं लौट रहा था तो कोट-डंगोली (बैजनाथ) नामक स्थान पर विश्राम करने के पश्चात जमीन पर रखा डोला उठाया नहीं जा सका। राजा ने नंदा को भी कुलदेवी के बराबर प्रतिष्ठा देने की प्रतिज्ञा करते हुए स्तुति की। तब से नंदा रणचंडी महिषमर्दिनी स्वरूप में पूजी जाने लगी।

एक अन्य मान्यता के अनुसार मूर्ति दो भागों में विभक्त हो गई। तब राजा ने स्थानीय पंडितों के परामर्श से मूर्ति के एक हिस्से को पास ही स्थित कोट भ्रामरी के मंदिर में रख दिया। भ्रामरी कत्यूर वंश में पूज्य देवी थीं और उनका मंदिर कत्यूरी जमाने के किले (कोट) में स्थित था। वहां भ्रामरी शिला रूप में विराजमान थीं। आज भी मंदिर में भ्रामरी की शिला और नंदा देवी की मूर्ति अवस्थित है। यहां नंदा अब कोट की माई के नाम से जानी जाती है। लोगों का मानना है कि माँ की मूर्ती मल्ला महल के राजसिंहासन में रखी गयी और उसका राजतिलक हुआ! यह उपक्रम दीपावली से 11वें दिन बाद राजपुरोहित के कहे अनुसार किया गया इसलिए इसे दीपोत्सव के रूप में प्रचलित किया गया जो कालान्तर में बूढ़ी दीवाली कहलाई।

 

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