Sunday, September 8, 2024
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पहाड़ों में एक माह बाद क्यों मनाई जाती है मंगसीरी व रिख बग्वाळ (दीवाली)..!

(मनोज इष्टवाल)

अब आप कहेंगे कि भला ऐसा भी कभी होता है कि बग्वाळ अर्थात दिवाली मनाने की अलग अलग परम्पराएं हों! एक माह बाद तो सिर्फ रवाई जौनपुर जौनसार व यमुना-तमसा के आर-पार ले क्षेत्र में ही बूढ़ी दिवाली का चलन है फिर यह मंगसीरी व रिख बग्वाळ भला कहाँ से आ गयी! इस सब पर मेरा यही कहना है कि हम इन सबको मनाते तो हैं लेकिन उसकी गहराई तक कभी नहीं जाते! यह ऐसे जय घोष हैं या विजय पताकाओं की बग्वाळ कहलाती हैं जिन्हें हमारे सूरमाओं ने अपनी सरहदों के विस्तार को बढाने के बाद विजयी रोशनी के रूप में जश्न का रूप दिया है और उनका अनुशरण हर उस क्षेत्र ने किया है जहाँ भी उनकी भूमिका रही है!

मंगसीरी बग्वाळ व रिख बग्वाळ एक ही युद्ध की देन है जिसे जीतने के बाद यह विजयी जश्न के रूप में गढवाल के कुछ क्षेत्रों में मनाया गया! राजा भले ही एक थे जो श्रीनगर की गद्दी पर आसीन थे लेकिन 52 गढ़ के गढ़पतियों ने इसे पूरी तरह अंगीकार नहीं किया वरना यह दीवाली या बग्वाळ सम्पूर्ण गढवाल में जरुर मनाई जाती!

सन 1627-28 में राजा महिपत शाह के राज्यकाल में गढ़भूमि को दो ऐसे सूरमा सेनापति मिले जिनकी युद्ध कौशलता व बहादुरी के किस्से न सिर्फ गढवाल में बल्कि दिल्ली दरबार तक प्रचलित थे! इन्हीं के बदौलत राजा महिपत शाह ने सिरमौरी रियासत का बड़ा हिस्सा जौनसार-बावर,  सिलाई-फते पर्वत से हाटकोटी-रोहडू तक, कुमाऊं के द्वाराहाट क्षेत्र, व सुदूर तिब्बत के द्वापाघाट तक अपना राज्य विस्तार किया!

फाइल फोटो

सिरमौर रियासत में इनके कहर को इतना दर्दनाक बताया जाता था कि वहां की राजपूताना महिलाओं ने प्रण कर लिया था कि वे तब तक अपने बाल नहीं बांधेंगी व घाघरे पर नाड़ा नहीं डालेंगी जब तक वह लोदी रिखोला व माधौ भंडारी के खून से अपने बाल नहीं धो लेती! वहीँ यहाँ के राज घराने के सूरमाओं ने यह तय कर लिया था कि वह अपने मकानों की धूर तब तक नहीं चुनेंगे जब तक इन्हें परास्त नहीं कर लेते! दुर्भाग्य से न माधौ भंडारी और न ही लोदी रिखोला को सिरमौर रियासत कभी हरा पाई बल्कि इसके उलट लोदी रिखोला ने सिरमौर राज्य तहस नहस कर राजा मान्धाता प्रकाश से कलापीर का नगाड़ा व बदरीनाथ की ध्वज पताका छीन ली व उनकी पुत्री से विवाह कर गढ़ बैराट (जौनसार) में रहने लगा! (सिरमौर राज्य की सीमाएं –उत्तरी सीमा जुब्बल एवं बालसोंन राज्य तक, दक्षिणी पश्चिमी सीमा पंजाब की पहाड़ियों तक, पूर्वी सीमा गढ़वाल राज्य के कालसी बैराटगढ़ तक)

इस विजय के बाद गढवाल राजा के वजीरों व सलाहकारों ने राजा के ऐसे कान भरे कि राजाज्ञा से गोपनीय तौर पर लोदी रिखोला को मारने का षड्यंत्र रचा गया और उन्हें दिल्ली द्वार उखाड़ लाने की आज्ञा दी गयी! जिसे वे उखाड़ भी लाये लेकिन उनका अभिमंत्रित भाला किसी ने छुपा दिया! किंवदंती है कि राजा ने दिल्ली द्वार ले आने वाले लोदी रिखोला से पूछा कि उसने द्वार किससे उखाड़ा तक लोदी ने जबाब दिया – अपने भाले से..! भाला कहाँ है? यह पूछे जाने पर लोदी को लगा कि वह भाला वहीँ भूल गया और भाला लेने चल दिया लेकिन रास्ते में मुख्यमार्ग में गड्डा खुदा होने व रात्रि समय दिखाई न देने पर लोदी रिखोला गड्डे में जा गिरे जहाँ जहरीले भाले पहले से खड़े किये गए थे जिनसे गुद जाने से उनकी मौत हो गयी! लोदी रिखोला की माँ मैंणा देवी ने राजा को श्राप दिया कि तू व तेरा राजमहल इसी अलकनंदा में समा जाए यह एक माँ की बद्दुआ है! कालान्तर में हुआ भी वही ..राजमहल अलकनंदा में समा गया! कहा जाता है कि आज भी दिल्ली दरवार रिखणीखाल ब्लाक मुख्यालय के आस-पास कहीं है! लोदी रिखोला कुमाऊँ क्षेत्र के आक्रमणों को रोकने के लिए इस क्षेत्र में नियुक्त थे इसका प्रमाण यह है कि आज भी रिखोला नेगियों के इस क्षेत्र में बड़खेत तल्ला-मल्ला, झर्त, कुमालडी, धामधार सहित कई गाँव हैं!

फाइल फोटो

यह तो सिर्फ एक सार था लेकिन असली कहानी मंगसीरी बग्वाळ या रिख बग्वाळ पर आकर ठहर जाती है! सन 1627-28 के दौरान तिब्बती लुटेरों का गढवाल राज्य की सीमान्त क्षेत्रों (टकनौर, पैनखंडा, दसोली)  में बड़ा भय था जिसे देखते हुए राजा ने तिब्बत के राजा को कई बार इस सम्बन्ध में चेतावनी पत्र भी भेजा लेकिन अपने मद में चूर तिब्बती राजा द्वारा राजाज्ञा की अवेहलना की गयी! फलस्वरूप राजा द्वारा अपने महानायक माधौ सिंह भंडारी व सेनापति लोदी रिखोला के नेतृत्व में तिब्बत फतह के लिए चमोली के पैनखंडा व उत्तरकाशी के टकनौर क्षेत्र से बड़ी सेना को द्वापा तिब्बत आक्रमण के लिए भेजा! आक्रमण माणा-नीतीचोरहोती होकर छपराड़ यानी दापाघाट के राजा काकुआमोर पर किया गया! यहाँ एक सन्दर्भ यह भी आता है कि राजा द्वारा माधौ सिंह भंडारी को इस युद्ध से वापस बुला लिया गया था क्योंकि तब लंगूर गढ़ी पर भी आक्रमण हुआ था लेकिन इसके प्रमाण नहीं मिलते! पूरा साल गुजर गया लेकिन श्रीनगर से मीलों दूर तिब्बत से कोई खबर नहीं मिल पाई! 12 बग्वाल 16 श्राद्ध भी निकल गए लेकिन जब इस सेना के सेनापतियों का कोई संदेश नहीं पहुंचा तो क्या माधौ भंडारी का मलेथा व क्या लोदी रिखोला का बयाली गाँव..सब जगह मातम पसर गया! पूरा कार्तिक माह निकलने को था! दीवाली में भी पहाड़ का अन्धेरा छंटने का नाम नहीं ले रहा था! आखिर एक दिन एक दूत राजदरबार में संदेश लेकर पहुंचता है कि विजयी सेना तिब्बत फतह कर लौट रही है व महासेनापति माधौ सिंह भंडारी ने संदेश भिजवाया है कि श्रीनगर पहुँचने पर बग्वाली जश्न की तैयारी हो!

जेसुअट पादरी अन्तानियों के विवरण अनुसार राजा महीपति शाह के राजकाल में गढदेश ने तिब्बत पर आक्रमण के समय 11000 बंदूकें व 20 छोटी तोपों से आक्रमण किया था! इस से यह स्पष्ट होता है कि गढ़नरेश के पास भी बन्दूक चलाने वाले व तोप संचालन वाले सैनिक मौजूद थे!

वहीँ अगर मौलाराम के कृतित्व की बात हो तो उन्होंने 1635 में महीपति शाह व 1753 ई. में प्रदीप शाह के पास सवा लाख फ़ौज होने की बात कही है! वहीँ जेसुअट पादरी अन्तानियों के अनुसार तिब्बत आक्रमण में महिपत शाह की सेना में 20 हजार पैदल सैनिक, 11 हजार बन्दूकची व 20 तोपची सैनिकों का दल मौजूद था! इस से यह आभास होता है कि तिब्बत तब शक्तिशाली राष्ट्र हुआ करता था!

यहाँ एक प्रसंग यह भी आता है कि तिब्बत के साथ गढ़सेना ने तीन राजाओं के राजकाज में लड़ाइयाँ लड़ी हैं! इनमें राजा मानशाह, श्यामशाह और महीपति शाह प्रमुख हैं! इस युद्ध में सेनापति लोदी रिखोला की मुख्य भूमिका रही जिन्होंने अपने दो जनरल चमोली गढ़वाल के रडवा गाँव पट्टी खदेड़ के भीम सिंह बर्त्वाल, उदय सिंह बर्त्वाल (उदय सिंह को कहीं कहीं शीतल सिंह बर्त्वाल भी लिखा गया है) के साथ भयंकर लड़ाई लड़ी! जिसमें तिब्बत का राजा काकुवामोर मैदान छोड़कर भाग खड़ा हुआ व बाद में माधौ सिंह भंडारी से संधिपत्र पर हस्ताक्षर किये जिसके अनुसार तिब्बत के राजा गढ़ नरेश महीपति शाह को सवा सेर सोना व एक चौसिंगा मेंढा देना स्वीकार किया !

बताया जाता है कि तिब्बत फतह कर सेना वहां राजा की राजाज्ञा का इन्तजार करती रही! बाद में लंगूर गढ़ से लौटे महीपति शाह के महानायक माधौ सिंह भंडारी द्वारा राजाज्ञा के अनुसार जनरल भीम सिंह बर्त्वाल व उदय सिंह बर्त्वाल को दापा का राजकाज चलाने का राजशाही फरमान सुनाया व सेना लेकर वापस लौटे! बदरीनाथ के विधायक मनोज रावत  जानकारी देते हुए बताते हैं कि इस विजय में बर्त्वाल भाई काफी सोना व जेवर लेकर लौटे थे! व उन्होंने दापा पर लगभग 20 बर्ष बहुत सुंदर तरीके का सुशासन किया! जब वह यह आश्वस्त हो गए कि अब तिब्बती सेना उनके कब्जे में है और वहां की सुंदरियां उनकी सगी! तब वे लापरवाह से हो गए जिसका फायदा तिब्बतियों ने गोपनीय सूचनाओं के आदान प्रदान से ल्हासा के लामा तक पहुंचाई! ल्हासा के लामा द्वारा बड़ी सेना के साथ जनरल भीम सिंह बर्त्वाल व उदय सिंह बर्त्वाल की टुकड़ी पर आक्रमण किया! चूँकि गढ़वाल सीमा यहाँ से दूर थी व आक्रमण ऐसे समय में किया गया था जब हिमालयी भू-भाग ज्यादातर बर्ष से ढका रहता है अत: गढवाल राजा से सहायता पहुंचना मुश्किल था इसलिए इनकी टुकड़ी ने बहादुरी से लड़ते हुए  ल्हासा के लामा की बिशाल सेना के दांत खट्टे कर दिए! विजयी मद में चूर जनरल बर्त्वाल उस रात सूरा और सुन्दरी में डूबे रहे जिसका फायदा उठाते हुए ल्हासा के लामा ने इनके सर कलम कर दिए और दापा पर पुनः अधिकार प्राप्त कर लिया!

इससे पूर्व जब माधौ सिंह भंडारी व लोदी रिखोला की सेना कार्तिक माह के अंतिम चरण में श्रीनगर विजय होकर लौटी तब वह अपने साथ राजमहल के सुंदर स्वर्णकलश उठा ले आये जो राजा महीपति शाह के राजमहल में सुशोभित रहे! राजा ने खुश होकर सेनापति लोदी रिखोला को उपहार स्वरूप मानिकनाथ का डांडा, मंगरौ का सेरा, कालौं की कोठी, लालुड़ी गढ़, जाखीगढ़ दिया!

बताया तो यह भी जाता है कि जनरल भीम सिंह बर्त्वाल व उदय सिंह बर्त्वाल की मौत की खबर सुनकर राजा महीपति शाह ने पुनः माधौ सिंह भंडारी व लोदी रिखोला के नेतृत्व में फ़ौज भेजकर दापा के राजा काकुवामोर का सर कलम करवाया और लौटने पर जश्न स्वरुप मंगसीरी बग्वाळ मनाई गयी! वहीँ लोदी रिखोला के अधिपत्य क्षेत्र में रिख बग्वाळ मनाई गयी! आज भी उत्तरकाशी क्षेत्र में माधौ सिंह भंडारी के विजय जुलुस की मंगसीरी बग्वाळ मनाई जाती है जबकि लोदी रिखोला की रिख बग्वाळ अब कम क्षेत्रों में ही मनाई जाती है! मुझे आज भी ध्यान है कि बचपन में आज से लगभग 35 बर्ष पूर्व तक हमारे क्षेत्र में भी एक माह बाद यह बग्वाळ मनाई जाती थी! उत्तरकाशी के गंगा व गाजणा घाटी व टिहरी गढवाल के बूढाकेदार क्षेत्र में मंग्सीरी बग्वाल आज भी धूमधाम से मनाई जाती है!

बहरहाल सन्दर्भ बहुत हैं लेकिन उन्हें इतिहास के पन्नो पर उकेरने वाले चंद ही इतिहासकार व साहित्यकार रहे! यह आश्चर्यजनक और अचंभित कर देने वाला ही संस्मरण कहा जाएगा कि राज्य निर्माण के 19 बर्षों बाद भी हमारी किसी भी सरकार ने अपनी विरासतों के सामाजिक व सांस्कृतिक मूल्यों की कतई भी परवाह नहीं की वरना आज का हर युवा दिवाली के एक माह बाद मनाही जाने वाली मंगसीरी व रिख बग्वाळ को भी दीवाली की तरह एक वीरता पर्व के रूप में अवश्य मनाता!

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35 बर्षों से पत्रकारिता के प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक व सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, पर्यटन, धर्म-संस्कृति सहित तमाम उन मुद्दों को बेबाकी से उठाना जो विश्व भर में लोक समाज, लोक संस्कृति व आम जनमानस के लिए लाभप्रद हो व हर उस सकारात्मक पहलु की बात करना जो सर्व जन सुखाय: सर्व जन हिताय हो.
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