Sunday, July 20, 2025
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क्यों पुकारे जाते हैं गढवाल के राजा बोलान्दा बद्री ! क्या इसी वजह से हुआ था राजा के पैर में कोढ़!

(मनोज इष्टवाल)

वह राज्य जिसका क्षेत्रफल लगभग 33 हजार वर्ग किमी. (वर्तमान में  गढ़वाल मण्डल का कुल क्षेत्रफल 32,448.3 वर्ग किमी) रहा! जो क्षेत्र तब मैदानी राज्यों व राजाओं की नजर में आदिवासी क्षेत्र कहलाता था व एक बेहद गरीब राज्य! आखिर अचानक ऐसा क्या हुआ कि मैदानी भू-भाग के राजा सब इतने से अदने राज्य व राजा के आगे घुटने पर आकर एक सुर में बोल पड़े- जै बोलान्दा बद्री…! जय बद्री बिशाल।

ज्ञात हो कि गढ़वाल राज्य क्षत्रियों का राज था। दूसरी शताब्दी ई.पू. के आसपास कुनिंद राज्य भी विकसित हुआ।  बाद में यह क्षेत्र कत्यूरी राजाओं के अधीन रहा, जिन्होंने कत्युर घाटी, बैजनाथ, उत्तराखंड से कुमाऊं और गढ़वाल क्षेत्र में 6 वीं शताब्दी ई. से 11 वीं शताब्दी ई. तक राज किया! बाद में चंद राजाओं ने कुमाऊं में राज करना शुरू किया, उसी दौरान गढ़वाल कई छोटी रियासतों में बाँट गया! 

अब यहाँ प्रश्न यह उठता है कि जब यहाँ कत्यूरी राज्य 11वीं सदी तक रहा तब 888 ई. तक यहाँ सूर्यवंश के राजा भानुप्रताप का राज कैसे था? प्रश्न यह भी उठता है कि तब कनकपाल राजा के वंशजों ने कैसे सम्पूर्ण गढवाल पर राज किया? आइये इस पहेली को संक्षेप में सुलझाए देते  हैं। दरअसल भानुप्रताप स्वयं भी कत्यूरी सूर्यवंशी राजा हुआ लेकिन वह सम्पूर्ण गढवाल के राजा नहीं थे बल्कि सिर्फ उनके अधीन चाँदपुर गढ़ था जो गैरसैण जाने वाले रास्ते में है! और कत्यूरी मुख्य शाखा तब जोशीमठ में हुआ करती थी,जो 6वीं शताब्दी के बाद से 11वीं शताब्दी तक बैधनाथ अर्थात बैजनाथ कुमाऊं में राजधानी शिफ्ट कर रहने लगे थे और तब इनका गढवाल क्षेत्र से एकाधिकार छूट गया था व इन्हीं के ज्यादात्तर वंशजों ने अपने आप को अलग अलग गढ़ों का स्वतंत्र राजा घोषित कर दिया था! यूँ तो कत्यूरी राज्य 13वीं सदी तक चलता रहा लेकिन धीरे-धीरे क्षीण होते हुए इसकी 600 शाखाएं आम राजपूतों के मध्य विभिन्न जाति नामों से पुकारी जाने लगी। सोलहवीं सदी के अंत तक कत्यूरी वंशज का प्रभुत्व एकदम समाप्त हो गया।

 कत्यूरी वंश के बारे में ज्यादात्तर इतिहासकारों की राय है कि वे अयोध्या  के सूर्यवंशी राजा शालिवाहन  के वंशज  हैं। किन्तु, बहुत से इतिहासकार उन्हें कुनिन्दा शासकों से जोड़ते हैं तथा कुछ इतिहासकार उन्हें खस मूल से भी जोड़ते हैं, जो सत्य प्रतीत नहीं होता क्योंकि शक यानि शौका जनजाति गढवाल क्षेत्र में बहुत बाद में आकर बसी है। कत्यूरी राजाओं ने ‘गिरीराज चक्रचूड़ामणि’ की उपाधि धारण की थी।

सूर्यवंशी राजा भानुप्रताप ने बद्री-केदार दर्शन को आये मालवा के चन्द्रवंशी राजकुंवर कनकपाल अपनी एकलौती पुत्री का विवाह कर उन्हें अपना राज चांदपुर गढ़ी जिसका विस्तार तब बदरीनाथ क्षेत्र तक माना गया, दहेज स्वरूप भेंट कर दिया और स्वयं संन्यास धारण कर लिया। कहा तो यह भी जाता है कि राजा कनकपाल बड़ा प्रतापी हुआ व उसने 64 छोटी बड़ी गढ़ियाँ जीतकर गढवाल राज्य की स्थापना की लेकिन यह तर्क गले नहीं उतरता क्योंकि राजा अजयपाल को गढवाल का पहला राजा माना जाता है जिसने सैकड़ों छोटी गढ़ियाँ व 52 गढ़पतियों पर विजय हासिल कर ही 1519 में गढवाल राज्य की स्थापना कर श्रीनगर गढ़वाल में राजधानी बनाई जोकि राजा कनकपाल के बाद 37 वीं पीढ़ी बाद के राजा हुए।

इतना कुछ होने के बावूजद भी राजा अजयपाल भी बोलान्दा बद्री नहीं कहलाये बल्कि बोलान्दा बद्री की पदवी पाने वाले उनकी 8वीं पीढ़ी बाद राजा पृथ्वीपाल शाह  के पुत्र मेदनीशाह हुए। अब यह एक और संदेह हटा देते हैं कि पाल के सन्तति शाह कैसे हुए तो आपको जानकारी दे दें कि राजा अजयपाल के परपौत्र बहादुर शाह ने दिल्ली के राजा की शेर से आत्मरक्षा की थी व दिल्ली सल्तनत की ओर से उन्हें शाह की उपाधि से सम्मानित किया गया। 

बहरहाल ऐतिहासिक सन्दर्भों को त्यागकर अब आते हैं बोलान्दा बद्री मेदनीशाह के कार्यकाल पर! राजा मेदनिशाह ने सन 1676 से लेकर 1699 तक राज किया! राजा मेदनीशाह से पूर्व हर कुम्भ में उनके वंशज ही सबसे पहले हरिकुन्द हरिद्वार में कुम्भ स्नान किया करते थे! यही धार्मिक परम्परा लगातार सैकड़ों बर्षों से चली आ रही थी, लेकिन राजा मेदनीशाह के राज्यकाल में मैदानी भू-भागों के धनाढ्य व बाहुबली राजाओं ने ऐलान कर दिया कि अगर इस बार भी एक छोटा सा पहाड़ी गढवाली  राजा पहले स्नान करने आया तो उसे युद्ध में जो राजा परास्त करेगा वही पहले स्नान का हकदार होगा। 

इस संदर्भ में  टिहरी रियासत के राजघराने के ठाकुर भवानी प्रताप सिंह  बताते हैं कि यह बात वह अपने पुरखों से भी सुनते आये हैं व कई इतिहासकारों ने इसे अपनी पुस्तकों में भी छापा है। उन्होंने टिहरी राजा के वजीर हरिकृष्ण रतूड़ी की पुस्तक का सन्दर्भ देते हुए कहा कि उन्होंने भी अपनी पुस्तक गढ़वाल की दिवंगत विभूतियों में इस बात का जिक्र पृष्ठ संख्या 190 में किया हुआ है साथ ही सुप्रसिद्ध साहित्यकार गोविन्द चातक की पुस्तक गढवाली लोकगीत में भी इसका जिक्र है। उन्होंने कहा राजा मेदनीशाह का आवाहन “मेरी गंगा व्हेली त मीमा ऐली” आज भी आम जन के बीच चर्चाओं में है।

ऐतिहासिक सन्दर्भों के आधार पर यह बात सत्य है कि राजा मेदनिशाह को जब मैदानी राजाओं की इस घोषणा का पता चला तब उन्होंने अपने सन्देशवाहक को भेजकर कहला दिया कि वे कुम्भ क्षेत्र में किसी भी तरह का रक्तपात नहीं चाहते अत: जिस राजा का भी मन हो वह पहले स्नान कर सकता है। अगर मैं इसका सच्चा हकदार हुआ तो मेरी गंगा होगी तो स्वयं ही मेरे पास आएगी। कहते हैं मैदानी भू-भाग के राजाओं ने राजा कि इस नादानी का खूब उपहास उड़ाया क्योंकि भला बहती नदी भी कभी उलटी बहेगी? 

राजा मेदनीशाह व उनकी फ़ौज का डेरा गंगा से दूर चांडी में था। पर्व के सुबह राजा मेदनिशाह ने प्रचंड आवाज में गंगा माँ को आवाज देते हुए कहा कि हे गंगा अगर तू मेरी है, तो मेरे पास आने के बाद ही अपनी दिशा में बहेगी! ब्रह्ममुहूर्त पर सभी राजा गंगा स्नान से पूर्व पूजा पाठ करके जैसे ही गंगा स्नान को हरिकुंड में उतरे गंगा लोप हो गयी। हरिकुंड में मछलियां तड़प-तड़प कर दम तोड़ने लगी। क्योंकि गंगा ने अपनी दिशा बदली और चांडी क्षेत्र की ओर चल पड़ी जहाँ राजा मेदनीशाह का तम्बू गढ़ा हुआ था। राजा ने गंगा जी की पूजा की व कुम्भ स्नान किया। यह चमत्कार देखकर सभी मैदानी भू-भाग के राजा गढवाल नरेश मेदनीशाह के पास गए व उनसे क्षमा याचना कर उन्हें सच्चा बोलान्दा बद्री कहकर उन्हें सम्मान दिया। तब से वर्तमान तक गढवाल नरेश बोलान्दा बद्री कहलाये व यही कारण भी है कि गाडू घड़े का तेल आज भी सबसे पहले राज घराने से ही बद्रीनाथ में चढ़ता है।

कहा यह भी जाता है कि डीएम तोडती मछलियों ने राजा को श्राप दिया व तभी से राजा के पैरों में कोढ़ उत्पन्न हुआ! सत्य क्या है, यह अतीत के साथ इतिहास के पन्नों में सुरक्षित है लेकिन यह घटना सचमुच आज भी किसी चमत्कार से कम नहीं है।

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