क्यों प्रचलन में है हिमालयी भू-भाग में बोगठया की ऊन का बना दौंखा?
(मनोज इष्टवाल)
उत्तराखंड के लगभग पांच जिलों की अगर भौगोलिकता को देखा जाय तो वह मध्य हिमालय से लेकर उच्च हिमालय की बसासत में जीवन-यापन करने वाले घाटियों वादियों के लोग हैं जिनके गांव जून माह में भी गर्मी का अहसास नहीं कर पाते। ऐसे हिमालयी लोग हिम के तम में अपनी ठंडक की कम्पकम्पी छुपाने के लिए ज्यादात्तर हाथ से बुने ऊनी वस्त्रों को धारण करते हैं। ये वस्त्र हर घाटी में अपना नाम बदल देते हैं। रूपिन सूपिन व तमसा यमुना घाटी व भागीरथी घाटी में अर्थात देहरादून व उत्तरकाशी के ऐसे ऊनि वस्त्रों में पशुचारकों या भेड़ पालकों के मध्य (बोगठया (ब्वखट्या/बकरा/मैरिनो) की ऊन से बने इस अंग वस्त्र को मूलतः चोडा/च्योडा बोला जाता है जबकि इसी के ऊन से बने अंग वस्त्र को चमोली/रुद्र प्रयाग जिले में दौंखा पौड़ी जिले के कई मध्य हिमालयी क्षेत्रों में त्यूँखा व पिथौरागढ़ व बागेश्वर जिले के उच्च क्षेत्रों में इसे खौपि नाम से जाना जाता है।
दौंखा बोगठया के बालों से बनता है जो पशुचारकों जिन्हें चमोली व रुद्र प्रयाग जनपद में पाल्सी नाम से व जौनसार, जौनपुर, रवाई, पर्वत व गौमुख क्षेत्र में भेडाल बोला जाता है उनके पहनावे में प्रयुक्त होता है व उसे यहां चोडा बोला जाता है। रुद्रप्रयाग, चमोली जिले में दौंखा व पौड़ी गढ़वाल के राठ क्षेत्र में यही वस्त्र त्यूँखा कहलाता है जिसे भांग के रेशे से बनाया जाता रहा है व इसमें बकरे की ऊन की मिलावट होती है।
केदारनाथ क्षेत्र के पूर्व विधायक मनोज रावत बताते हैं कि वे दौंखा इसलिए धारण करते हैं, ताकि हमारी लोक संस्कृति का यह अभिन्न अंग वस्त्र हमारी शान बनी रहे। हमारे पशु पालन व्यवसायियों में मूलतः भेड़ व बकरी पालन व्यवसाय ज्यादा प्रफुल्लित रहा है, जो छ: माह तक हिमालयी बुग्यालों में घर से दूर रहते हैं व ठंड बारिश व बर्फ के लिए यह अंग वस्त्र सबसे अधिक माकूल ही क्योंकि इसमें न बर्फ ठहरती न बारिश और न ठंड का ही असर होता है।
मोढ या मौर शब्द का प्रयोग भले ही अब उत्तराखंड में कम सुनाई देता हो लेकिन ये शब्द मूलतः भैंस पालकों के लिए प्रयुक्त होता रहा है जो गांव से दूर बुग्यालों में अपने भैंस चुगाते हैं व छानियों में ज्यादात्तर जीवन यापन करते हैं, उनका भी दौंखा पहनावे का अंग वस्त्र है। हो न हो जौनसार बावर क्षेत्र का लोकगीत “मामा मौर सिंगा” भी इसी शब्द की उपज हो।
दौंखा का ऊन क्योंकि बकरे की ऊन से निर्मित होता है इसलिए इसमें मुलायम होने की कम गुंजाइश होती है। यह शरीर पर धारण वस्त्र के ऊपर पहनने के बादजूद भी चुभन पैदा करता है। पहले- पहल इसे पहनने से असहजता महसूस होती है लेकिन धीरे-धीरे इसे पहने रखना आदत सी हो जाती है। इसका एक वैज्ञानिक तर्क यह भी दिया जाता है कि इस वस्त्र को धारण करने वाले लोगों की त्वचा बेहद मुलायम रहती है व कठोर से कठोर सर्दी में भी त्वचा खुश्क नहीं होती। देहरादून व उत्तरकाशी जिले के मध्य व उच्च हिमालयी भू भाग में जीवन यापन करने वाले लोग कोट या जैकेट के स्थान पर चोडा व पैंट के स्थान पर इसी ऊन का जंगेल पहनते हैं।
पिथौरागढ़ जिले के दारमा, जोहार व चौंदास घाटी के उच्च हिमालयी भू भाग व बागेश्वर जिले के कपकोट पिंडारी क्षेत्र में इसी ऊन से निर्मित वस्त्र को खौपि नाम से पुकारा जाता है। इसे शायद नीति माणा घाटी में भी खौपि नाम से ही पुकारा जाता है। यह वस्त्र भोटिया रं जनजाति के लोगों के प्रचलन में ज्यादा है। यह भी चोडा की तरह दो मीटर से अधिक लंबाई लिए होता है। खौपि लोक पहनावे में अब सफेद खादी वस्त्र से भी निर्मित किया जाता है। दौंखा और खौपि व चोडा में अंतर सिर्फ यह है कि दौंखा आधी बाजू का होता है, जबकि खौपि व चोडा पूरी आस्तीन का।
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