Thursday, October 30, 2025
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नंदाकिनी नदी का जल क्यों नहीं चढ़ता मंदिरों देवस्थलों में…!

 क्यों स्थानीय लोग नहीं पिया करते थे/हैं इसका जल..?

(मनोज इष्टवाल ट्रेवलाग नंदा राज जात 2013)

(बात अचम्भित करने वाली है, क्योंकि आज अचानक नंदा देवी राज जात 2013 के दौरान लिखी डायरी के पन्ने पलट रहा था कि देखा नंदाकिनी नदी के जल पर मैंने बहुत ही सूक्ष्म कोई नोटिंग लिखी हुई है। उस नोटिंग को पढ़ा तो लगा आप सभी से इस बात को शेयर करना चाहिए। )

माँ नंदा के मायके के क्षेत्र में बहने वाली नदी नंदाकिनी के बारे में क्षेत्रीय विद्वानों व पंडितों ने जो जानकारी दी थी कि नंदाकिनी नदी का उदगम रूपकुंड से होने के कारण इस नदी के पानी को आज भी सूतक समझा जाता है, क्योंकि रूपकुंड में आज भी हजारों-हजार नरकंकाल पड़े हैं व राजा यशधवल की पत्नी व माँ नंदा की बहन बल्लभा का यात्रा के दौरान गंगतोली गुफ़ा में प्रसव होना माना गया है जिसे वर्तमान में बल्लभा स्वीलडा के नाम से पुकारा जाता है। कहते हैं प्रसव के दौरान जिस घास के बिछौने को इस्तेमाल किया गया, उसे तत्कालीन समय में यहीं रूपकुंड के समीप से नंदाकिनी नदी में बहा दिया गया था।  यही कारण है कि तब से नंदाकिनी के जल से न आचमन होता है, न यह जल किसी मंदिर में चढ़ाया जाता है, और न ही यह किसी देवकार्य में इस्तेमाल किया जाता है।  स्थानीय लोगों का तो यह भी कहना है कि अधिकतर क्षेत्रवासी इस जल को पीने के पानी के रूप में भी इस्तेमाल में नहीं लाते। 

(रूपकुंड से निकलती नंदाकिनी नदी की  परिकल्पना)

यह कितनी बड़ी बिडम्बना की बात है कि नंदाकिनी नदी के अलकनंदा में मिलते ही इसका जल पवित्र हो जाता है लेकिन इसे जब और जहाँ तक नंदाकिनी अस्तित्व में है, वहां तक परित्याज्ञ माना गया है, जबकि आज पूरी नंदाकिनी में जाने कितनी लाशें बहकर आती हैं।  जाने कितने शहरों के मलद्वार नदी में खुलते हैं! जाने कितने प्रसवों के कपडे बहाए जाते हैं! कितनी चिताएं जलाई जाती हैं!  प्रदूषित होती गंगा आज भी जीवनदायिनी माँ गंगे है। एक समय था कि इसकी पवित्रता को लेकर समाज बेहद गम्भीर था,अगर ऐसा नहीं होता तो नंदाकिनी के इतिहास में ये अध्याय न जुड़ा होता। 

(नंदानगर के पास नंदाकिनी नदी)
जहाँ माँ नंदा के मायके वाले नंदाकिनी के जल को सिर्फ इसलिए परित्याज्य मानते हैं कि उसके उद्गम के पास  माँ नंदा की बहन बल्लभा का यात्रा के दौरान गंगतोली गुफ़ा में प्रसव हुआ था, जिसके बेहद करीब रूपकुंड से नंदाकिनी का उद्गम माना जाता है।  वहीँ दूसरी ओर देश की राजधानी दिल्ली यमुना नदी का इतना दूषित जल पीने को मजबूर हैं, कि क्या कहा जाय।  यमुना में प्रतिदिन कई टन मल-मूत्र बहता है। जाने कितनी सड़ी-गली मानव जानवरों की लाशें उसमें बहती हैं, लेकिन कई बार इस पानी को फिल्टर कर पीने योग्य बनाया जाता है।
वहीँ यही मिलती-जुलती कहावत रुपिन-सुपिन नदी के परित्याज्य जल की भी है। जो भराडसर ताल या देवक्यार बुग्याल के हिमनदों से निकलकर बहती हैं व नैटवाड़ के संगम में तमसा यानि टोंस नदी के रूप में जन्म लेती हैं, और आगे चलकर यमुना में मिलती हैं।  कहा जाता है कि ये ऋषि त्रिशंकु की दोनों आँखों से बहे वो अश्रु हैं जो उन्होंने ज़िंदा ही स्वर्ग जाते समय पत्नी की पुकार पर बहाए थे। ऋषि विश्वामित्र द्वारा अपने तप-बल से त्रिशंकु ऋषि को स्वर्ग भेज कर एक नए स्वर्ग लोक की स्थापना का परपंच रचा था जिसमें ऋषि विश्वामित्र सफल नहीं हो पाए, तब से ऋषि त्रिशंकु स्वर्ग और धरती के मध्य ही लटक रहे हैं, ऐसा कहा जाता है। इस प्रकरण को गुजरे हजारों हार साल हो गए हैं लेकिन आज भी इन दोनों नदियों का जल परित्याज्य है। स्थानीय लोगों का मानना है कि इन नदियों का जल लगातार साल भर पीने से व्यक्ति पर कोढ उत्पन्न हो जाता है। 
 
सवाल अब भी वहीँ ज़िंदा है कि उस काल में जल को कितना पावन माना जाता रहा होगा? उसकी जलधाराओं में जरा भी गंदगी होने से उसका परित्याग किया जाता रहा है? यह तथ्य व इसकी प्रमाणितकता बहरहाल जो भी हो लेकिन यह सत्य है कि आदिकाल से चली आ रही यह परंपरा आज भी जस की तास हैं। आज देश की कोई भी ऐसी नदी नही है जो मैदान में नालों में बहते सैकड़ों गंदगी के अम्बार में न डूबी हों फिर भी उसके जल से मानव अपनी प्यास बुझा रहा है!
मेरा मानना है कि रानी बल्लभा के मृतक पुत्र को सूतक समझकर नंदाकिनी के जल का परित्याग करना या फिर ऋषि त्रिशंकु के नेत्रों के जल से जन्मीं रुपिन-सुपिन नदी के जल का परित्याग करना मात्र इन दो उदाहरणों तक ही सीमित नहीं होगा! कहीं न कहीं इन नदियों के जल के परित्याग के पीछे कोई वैज्ञानिक कारण होगा जिसका यकीनन परिक्षण किया जाना चाहिए।
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35 बर्षों से पत्रकारिता के प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक व सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, पर्यटन, धर्म-संस्कृति सहित तमाम उन मुद्दों को बेबाकी से उठाना जो विश्व भर में लोक समाज, लोक संस्कृति व आम जनमानस के लिए लाभप्रद हो व हर उस सकारात्मक पहलु की बात करना जो सर्व जन सुखाय: सर्व जन हिताय हो.
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