1. जौलजीवी का व्यापारिक मेला –
जौलजीवी का व्यापारिक मेला नवम्बर के तीसरे सप्ताह में आगमन की पहली तिथि (मार्गशीष संक्रान्ति) से लगता था। इसमें कच्ची ऊन से बनी बस्तुयें, सुहागा, कस्तरी, शहद, चमड़ा तथा तिब्बती घोड़े बेचे जाते थे। जौलजीवी तिब्बती सीमा से अधिक दूर न होने के कारण यदाकदा तिब्बती व्यापारी भी यहां आते थे। इसके अतिरिक्त इस मेले में दूरस्थ स्थानों से जैसे -कलकता, बम्बई, दिल्ली, अमृतसर तथा कानपुर से भी व्यापारी आते थे। जौलजीवी का यह मेला अस्कोट से 6 मील दूर गोरी एवं काली नदियों के संगम पर लगता था।
2. बागेश्वर का व्यापारिक मेला-
बागेश्वर अल्मोड़ा नगर से 74 किमी॰ दूर सरयू एवं गोमती के संगम पर स्थित है। यहाँ पर प्रसिद्ध शिव मन्दिर है। जनवरी मास में मकर संक्रांति के अवसर पर यहाँ मेला लगता था यह पांच दिन तक चलता था। जौलजीवी मेले में बचे हुए माल को इस मेले में बेचा जाता था। इस मेले में जोहारी भोटिया, बड़ी संख्या में आते थे। चंवर पूँछ, समूरी छाल, कस्तूरी, जड़ी बूटियां, भालू की चरबी, सुहागा तथा चमड़े के थैले इत्यादि भोटान्तिक विक्रय की वस्तुएं थी। दानपुर के लोग चटाईयां व टोकरियाँ इत्यादि लाते थे। अल्मोड़ा के शहरी व्यापारी कारखानों की बनी चीजें जैसे कपड़े, छाता, लोहे आदि एलूमिानियम तथा पीतल के बने बर्तन, तेल, चीनी, गुड़, साबुन, दर्पण, बटन तथा ट्रक इत्यादि लेकर पहुँचते थे।
3. थल का व्यापारिक मेला –
पिथौरागढ़ शहर से 105 कि0मी0 की दूरी पर स्थित थल भोटिया के व्यापार का प्रमुख केंद्र था। यहाँ अप्रैल माह के मध्य में तिब्बत सक्रांति को मेला लगता था, क्योंकि यहाँ के बाद वे अपने ग्रीष्म-निवासों में होते हुए तिब्बत व्यापार के लिए चले जाते थे। क्रय-विक्रय के अतिरिक्त यह वार्षिक हिसाब-किताब का मेला होता था। भोटान्तिक व्यापारी यहाँ अपने पहाड़ी मित्रों का हिसाब चुकाते थे तथा सरकारी मालगुजारी भी यही चुकायी जाती थी।
व्यापार की प्रमुख शर्ते: –
भारत-तिब्बत व्यापार की कुछ प्रमुख शर्तें थी। इन शर्तों का दोनों देशों के व्यापारिक पक्षों द्वारा पूर्ण रूप से पालन किया जाता था। यदि कोई व्यापारी इन व्यापारिक शर्नेतों को तोड़ने का दोषी पाया जाता था, तो उसे सजा दी जाती थी सामान्यतः व्यापार प्रारम्भ करने के लिए तीन प्रकार के समझौते होते थे।
1. पहली प्रथम सरछू-मूलछू थी। इस प्रथा के अनुसार ‘‘भोटिया व्यापारी’’ अपने तिब्बती व्यापारियों के साथ स्थानीय रूप से बनायी गयी शराब (इस शराब को ‘‘जार’’ कहते थे) को सोने एवं चांदी से छुआ कर साथ-साथ पीते थे। इस शराब को लेन-देन तय करने से पहले दोस्ती की निशानी के रूप में पीना जरूरी होता था।
2. दूसरा व्यापार की शर्तों का एक लिखित एवं विस्तृत समझौता होता था जिसमें भोटिया एवं तिब्बती दोनों अधिकारियों के हस्ताक्षर होते थे। इस समझौते को ‘‘गमग्या’’ कहा गया। भोटिया जाति में गमग्या मुख्य समझौता माना जाता था। क्योंकि भोटिया व्यापारियों के लिए यह समझौता हस्तान्तरण योग्य था एक भोटिया व्यापारी अपनी बीमारी अथवा गरीबी के कारण इसे अपनी ही जाति के किसी आदमी को इच्छानुसार बेचने के लिए स्वतन्त्र था। साधारणतया भोटिया व्यापारी ‘‘गमग्या’’ समझौता को अपनी व्यक्तिगत अभिरक्षा हेतु रखता था अतः व्यापार हेतु तिब्बत जाते समय भोटिया व्यापारी गमग्या समझौते को अपने पास रखते थे।
3. ‘‘गमग्या’’ समझौता पत्र जिसमें कि दोनों पक्षों के बीच व्यापार सम्बन्धी लेखा-जोखा होता था, उसमें ‘‘थचिया’’ मुहर लगायी जाती थी यह साधारणतः लकडी, रबर एवं धातु की मुहर होती थी जिसमें व्यापारी के हस्ताक्षर अथवा उसका व्यापार चिन्ह खुदा रहता था। भोटिया जाति में थचिया को सर्वोच्च मान्यता प्राप्त थी। जब भी भोटिया व्यापारी तिब्बत को जाने के लिए या तिब्बत से भारत को आने के लिए अपनी यात्रा प्रारम्भ करते थे तो सर्वप्रथम अपने माल पर ‘‘थचिया’’ मोहर लगा देते थे, जिससे यह सिद्ध हो जाता था कि वे उस माल…….
। जिस समय अल्मोड़ा में चन्द राजाओं का शासन था उस समय चन्द राजाओं की ओर से अस्कोट के रजवार दारमा एवं जोहार से मालगुजारी वसूल करते थे। व्यापार से राजस्व भी वसूल किया जाता था। चन्द शासन काल में भोटियों द्वारा दिये जाने वाले विभिन्न प्रकार के करों का कोई ऐतिहासिक साक्ष्य प्राप्त नहीं होता है। 1790 ई0 में यहाँ गोरखों का शासन स्थापित होने पर जोहार एवं दारमा में प्रतिवर्ष क्रमशः 12,500 रू0 तथा 15,000 रू0 सरकारी राजस्व निश्चित किया गया, लेकिन भोटियों ने इस राजस्व में कमी करने की अपील की। बाद में भक्ति थापा द्वारा इस विषय में जाँच करने के उपरान्त गोरखा सरकार ने इस कर में जोहार में 8000 रू0 तथा दारमा में 9000 रू0 की कमी कर दी। 1815 ई0 में अल्मोड़ा ब्रिटिश शासन के अधीन आया। अब अंग्रेजों ने गोरखा सिक्कों में वसूली बन्द करके फरुखावादी सिक्कों को प्रचलित किया। 1815 ई0 में चार भोटिया महालों (महालों से तात्पर्य परगनों अथवा पट्टियों से था।) से अर्थात् जोहार दारमा, व्यास एवं चौंदास से कुल वसूली 9367 रू0 निर्धारित की गयी। अल्मोड़ा में 1817 ई0 में ट्रेल द्वारा दूसरा भूमि बंदोबस्त किया गया जिसके द्वारा भोटिया परगनों से होने वाली आय 9590 रू0 निर्धारित की गयी। 1818 ई0 में पुनः ट्रेल द्वारा ही तीसरा भू-बंदोबस्त किया गया। चौथे बंदोबस्त द्वारा कस्तूरी, शहद, शिकार खेलने आदि से कर हटा लिया गया, जिससे भोटिया परगनों से होने वाली आय 9590 रू0 स े घटकर 3860 रू0 हो गयी। 1900 ई0 से 1902 ई0 के बीच गूज द्वारा किये गये 11 वें बंदोबस्त द्वारा पहली बार भोटियों के जानवरों पर प्रति जानवर 6 पाई कर लगाया गया। जानवरों की चराई पर भी कर लगाया गया जिससे राजस्व बड़कर 7790 रू0 हो गया। जा ैहार परगने के भा ेटियां े ने इन करों के विरोध में एक याचिका प्रस्तुत की जिसे बंदोबस्त अधिकारी द्वारा खारिज कर दिया गया लेकिन भा ेटियां े ने इस दिशा मेंअपना प्रयास जारी रखा और अन्ततः उन्हें सफलता मिल ही गयी जब कि सरकारी आदेश संख्या 220 -रि (8) दिनांक 8 मार्च, 1938 के द्वारा जानवरों की चराई से कर हटा दिया गया।