Saturday, March 15, 2025
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प्रधानमंत्री मोदी ने आखिर मुखवा में ही क्यों की “घाम तापो पर्यटन” योजना की घोषणा ?

 गढवाल के मुखवा व कुमाऊं के मल्ला जोहार में नवीं सदी से था “घाम तापो पर्यटन”
 ब्रिटिश काल के ग्यारहवें बर्ष में हुणियों से वसूला जाता था जानवरों का 06 पाई (चारागाह) व आदमियों का 03 पाई घमतपा टैक्स
गढ़वाल राज्य के मुखवा के निकट नागणी, नेलांग व सुमला में  लगती थी मंडियां
जोहार, दारमा तथा चौंदास के  भोटिये, नेओ, लिपुलेख तथा लुम्पिपालेख दर्रो से तिब्बत व्यापार
(मनोज इष्टवाल)
आखिर ऐसा हुआ क्या जो उत्तराखंड के प्रदेशवासियों ने “घाम तापो पर्यटन” पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सोशल साईट पर ट्रोल करना शुरू कर दिया? क्या यह आमजन की जानकारी की कमी थी या फिर विपक्षी दलों की सोची-समझी रणनीति! या फिर गढवाली कहावतों में चरितार्थ “तैकु त घाम तपणु होयूँच”, या तैकी/वैकी मवासी लग्याँ घाम” जैसे शब्दों के आधार पर आमजन ने इस योजना को लिया। क्योंकि श्रमसाध्य उत्तराखंडवासी घाम तापना ऐसे शब्दों के आधार पर बेहद निकृष्ठ  कार्य समझते हैं। लेकिन क्या हम जानते हैं कि उत्तराखंड में शक राजवंश, कुणिन्द राजवंश, कुशाण राजवंश, कत्युरी राजवंश, पंवार व चंद राजवंश के बाद गोरखा काल और फिर ब्रिटिश काल तक, अर्थात नौवीं शताब्दी से लेकर स्वतंत्र भारत्त तक लगभग 1000 बर्ष  तक यहाँ घाम तापो पर्यटन विकसित था जिसका की टैक्स वसूला जाता था। अगर नहीं जानते तब आपको यह लेख पूरे तथ्यों की प्रमाणिकता के साथ पढना चाहिए ताकि आप यह बहम न पालें कि घाम तापने का मतलब सिर्फ और सिर्फ निकृष्ठ कार्य हुआ।
उत्तरकाशी जनपद का सेल्कू लोक उत्सव:
शक राजवंश से चला आ रहा यह सेल्कू लोक उत्सव आज से नहीं बल्कि बेहद पौराणिक काल से चला आ रहा है। जो न सिर्फ शौका जनजाति अपितु उत्तरकाशी जनपद की गंगा घाटी से हिमालयी पहाड़ियों के कम बर्फीले इलाकों से गुजरता हुआ यमुना घाटी के काला पर्वत- सरू ताल-केदारकांठा से रुपिन-सुपिन नदी घाटी के हर की दून-देवक्यार-भराडसर- दूणी भित्तरी  होकर  तमसा नदी घाटी के चांशल दर्रे से पब्बर नदी घाटी क्षेत्र के डोडरा-क्वार  हिमाचल तक फैला हुआ क्षेत्र है, जो सैकड़ों बर्षों से तिब्बत के साथ व्यापार करते रहे हैं व अपने व्यापारिक केन्द्रों में सेल्कू लोक उत्सव मनाते आयें हैं।
सेल्कू उत्सव का इतिहास भारत-तिब्बत व्यापार से जुड़ा हुआ है। गंगा घाटी की संस्कृति एवं सभ्यता पर पुस्तक लिख चुके स्थानीय इतिहासकार उमा रमण सेमवाल बताते हैं कि 1962 के भारत-चीन युद्ध से पहले गंगा घाटी तिब्बत और भारत के बीच व्यापार का केंद्र हुआ करती थी। तब वर्ष में 15 अप्रैल से लेकर 15 सितंबर तक यह व्यापार चलता था और व्यापार सीजन की समाप्ति पर सेल्कू उत्सव मनाया जाता था। उन्हीं यादों को जिंदा रखने के लिए यह सिलसिला आज भी चला आ रहा है। सेल्कू का अर्थ है ‘सोएगा कौन ‘। इस त्योहार का स्वरूप भी दीपावली जैसा ही है। त्योहार में कई तरह के पकवान बनाए जाते हैं और दीपावली में चीड़ व देवदार की लकड़ियों के छिल्लों से बना भैलो खेला जाता है।
भारत-चीन युद्ध से पहले इस क्षेत्र के गांव के ग्रामीण तिब्बत के दोरजी (तिब्बती व्यापारी) के साथ व्यापार करते थे। नमक, ऊनी कपड़े, चमड़े के जूते आदि सामान तिब्बती व्यापारी यहां के लोगों से खरीदते थे और बदले में तिब्बती व्यापारियों को झंगोरा, धान, गेहूं, मंडुवा, फाफर, कुट्टू आदि अनाज बेचे जाते थे। गंगा घाटी कहें या फिर भागीरथी नदी घाटी, इस व्यापार के लिए मुखवा के निकट नागणी, नेलांगसुमला में मंडियां लगती थी। शीतकाल में तिब्बत से जोड़ने वाले दर्रे (हिमालयी मार्ग) बर्फ से बंद हो जाते थे। इसलिए व्यापार सीजन समाप्त होने पर दो दिन का उत्सव मनाया जाता था। इतिहासकार सेमवाल बताते हैं कि मुखवा गांव के निकट नागणी नामक स्थान है, जहां बाजार लगा करता था। गढ़वाल के प्रसिद्ध लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी के एक गीत में इस नागणी बाजार का जिक्र हुआ है। पहले इसी स्थान पर यह सेल्कू उत्सव मनाया जाता था। वर्तमान में यह लोक उत्सव अब गंगा घाटी तक ही सिमट गया है और अब तो यह उत्सव गांव में मनाया जाता है और इस दौरान सोमेश्वर देवता की पूजा की जाती है।
तिब्बती व्यापारी दोरजी का अपभ्रंश शब्द हिमालयी क्षेत्र दौरेजी के रूप में आज भी प्रचलन में है। उस दौर में तिब्बती दोरजी कपड़े सिलने के कारोबारी भी हुआ करते थे। सुप्रसिद्ध लोकगायक रजनीकांत सेमवाल व सुप्रसिद्ध गायिका सोनिया आनंद ने टिकूल्या मामा में एक गीत “पुराणु मेरु दौरेजी , बांकी सिल्याँ मेरी कुर्ती” हो न हो उसी दौर का हो। ऐसा भी हो सकता है कि गढ़रत्न नरेंद्र सिंह नेगी का गीत “जा जा बेटी नागणी बाजार, दहेज देलू रूप्या हजार” (टक्का छन त टक टक्का)  भी उसी दौर की कहानी से शामिल हो।
सेल्कू लोक उत्सव में जहाँ रात भर जागना होता था वहीँ तिब्बती व्यवसायी मुखवा के निकट नागणी, नेलांगसुमला की मंडियों के पास घमतप्पा धार में अप्रैल माह की ठंड में घाम सकने का काम करते थे जिन्हें टैक्स स्वरुप गढ़वाल के राजा को कुछ मोहरें भेंट करनी होती थी।
जोहार परगना की मरमचुल धार : 
ब्रिटिश काल में अल्मोड़ा जिले में दारमा पट्टी, चौंदास पट्टी एवं जोहार परगना जुड़े थे, जबकि पूर्व में यह क्षेत्र शक राजवंश, कुणिन्द राजवंश, कुशाण राजवंश, कत्युरी राजवंश, चंद राजवंश के बाद गोरखा काल के अधीन रहा है।
भारत तिब्बत व्यापार का इतिहास काफी पुराना है जो कि 9वीं एवं 11वीं शताब्दी के शिलालेखों एवं ताम्रपत्रों से प्रमाणित होता है। कत्यूरी राजाओं के  शासन काल में भारत तिब्बत व्यापार में काफी वृद्धि हुई। मुगलकाल में व्यापार संकुचित हुआ किन्तु  चन्द राजाओं विशेषत:  राजा बाजबहादुर चन्द ने व्यापार को प्रोत्साहन दिया।
ब्रिटिश काल में सीमान्त क्षेत्र में सड़क निर्माण हुआ और व्यापार में वृद्धि हुई। जोहार, दारमा तथा चौंदास के  भोटिये,
नेओ, लिपुलेख तथा लुम्पिपा लेख दर्रो से तिब्बत व्यापार करते थे। सुहागा, ऊन, सोना, चवरपूँछ, कीमती पत्थर, नमक आदि प्रमुख आयात वस्तुएँ थी जिनकी मांग न केवल कलकत्ता, बम्बई, कानपुर आदि में थी बल्कि विदेशों में ये वस्तयें लोकप्रिय थी। व्यापार की कड़ी शर्तों एवं अनेक करों के बावजूद उक्त व्यापार भोटियों के लिये लाभदायक था। भारत से अनाज, तेल, चाय, सूती वस्त्र, बर्त न, चीनी, गुड़, तम्बाकू, जूते तथा खालें प्रमुख निर्यात थे। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान भारतीय वस्तुओं की कीमत वृद्धि के कारण व्यापार में कमी आई। इसके अतिरिक्त अंग्रेजों की रूस को रोकने के लिए तिब्बत को बफर स्टेट वनाने की कोशिश रही। मूल्यों में उतार चढ़ाव के बावजूद भारत तिब्बत व्यापार जारी रहा। लेकिन सन 1962 में चीन भारत युद्ध के बाद प्राचीन समय से चला आ रहा यह व्यापार अचानक समाप्त हो गया।
ब्रिटिश शासन काल में कुमाऊँ का प्रमुख व्यापार तिब्बत के साथ था। तिब्बती व्यापार से इस जिले के भोटिया जाति के लोग जुड़े थे। अल्मोड़ा जिले में दारमा पट्टी, चौंदास पट्टी एवं जोहार परगना जुड़े थे। तत्कालीन अल्मोड़ा जिले में दारमा पट्टी, चौन्दास पट्टी एवं जोहार परगना भोट प्रदेश के नाम से प्रसिद्ध है और यहाँ  के निवासी भोटिया कहलाते हैं। यह स्मरणीय तथ्य है कि भोट प्रदेश अथवा भोटियों का भूटान एवं भूटानवासियों से कोई सम्बन्ध नहीं है तथा न तिब्बत एवं तिब्बतवासियों से इन भोटान्तिकों का कोई सम्बन्ध है। भोटिया  लोग स्वयं तिब्बत को ‘‘हूंण देश’’ एवं तिब्बतियों को ‘‘हुणीया’’ कहते है। वर्तमान में भले ही यह क्षेत्र अब पिथौरागढ जिले में पड़ता है लेकिन ब्रिटिश काल में यह अल्मोड़ा जिले में व चंद राजवंश के दौर में चंदराज वंश के अधीन अस्कोट के राजा रजवारों के क्षेत्र में जबकि उससे पूर्व कत्यूरी काल में अस्कोट राज्य में पड़ने वाला क्षेत्र दारमा, चौन्दास  तथा ब्यांस तीनों भोट पट्टियों को मिलाकर ब्रिटिश काल में इसे दारमा परगना बना दिया गया था जिसके हिमालयी क्षेत्र का ट्रेल पास तिब्बत तक बनाया गया ।
ज्ञात हो कि भोटिया हिन्दू मतावलम्बी हैं तथा क्षत्रिय जाति के हैं।  इनके नाम के साथ सिंह लगा रहता है। ये हिन्दी एवं तिब्बत की मिश्रित भाषा बोलते हैं । अल्मोड़ा  जिले के ‘‘भोटिया लोगों में  जोहार परगने के  भोटिया तत्कालीन दौर में  विशेष पढ़े-लिखे होते थे। इसके बाद चौन्दास व ब्यास के भोटिया आते थे  लेकिन दारमा के भोटिया ब्रिटिश काल दौर तक  बहुत पिछड़े हुए बताये जाते हैं । इन भोटियों का मुख्य व्यवसाय तिब्बत से व्यापार था। इनके पिछड़े होने का सबसे बड़ा कारण यह भी बताया जाता रहा है क्योंकि इन पर कभी नेपाल तो कभी तिब्बत के हूणियों का आक्रमण होता रहता था व ये उजड़ते व बसते चले जाते थे।
कुणिन्द राज्य को कुषाणों द्वारा जीत लिए जाने के बाद भारत के  तिब्बत के साथ होने वाले  व्यापार में परिवर्तन लक्षित होते रहे हैं क्योंकि कुषाण काल में मार्ग में होने  वाली डकैती तथा ठगी को रोकने  के कठोर प्रयास किये गये थे। जब कुषाणों  के उत्तराधिकारी के रूप में कत्यूरी राजाओं  ने कुमाऊँ का राज्य प्राप्त किया तो उस समय भोटिया व्यापार में  काफी वृद्धि हुई उस समय भोटिया जो  चीजें तिब्बत से खरीद कर लाते थे, उनमें  सोना, जवाहरात जड़ी बूटियों, कस्तूरी, गूगल तथा चंवर पूँछ आदि थे। इन वस्तुओं की कुमाऊँ एवं उसके बाहर काफी मांग हुआ करती थी।
बद्रीदत्त पाण्डे के अनुसार चन्द राजा बाज बहादुर चन्द धार्मिक विचारों के भी पक्के थे। मानसरोवरकैलाश के यात्रियों  द्वारा लामाओं की अत्याचारपूर्ण कहानियों को सुनकर वे दुःखी होते थे। उन्होंने भोट के रास्ते तिब्बत पर चढ़ाई कर दी और 1670 ई0 में तकलाखाल (तंग्-ला-खर) के किले को छीन लिया।
भोटिये जो दस्तूरी (भेंट) तिब्बतियों को देते थे, वह भी बन्द कर दी गयी, किन्तु जब तिब्बतियों ने यह स्वीकार किया कि वे भविष्य में  धर्म एवं रास्ते के  बारे में  किसी प्रकार का झगड़ा नहीं करेंगे, तब उसे जारी रहने दिया। 1790 ई0 में यह क्षेत्र गोरखाओं के अत्याचारी शासन के अधीन आया जिन्होंने यहाँ 25 बर्षों  तक (1815 ई0) राज्य किया। भोतियों के लिए  लिए यह समय व्यापार की दृष्टि से भय, प्रतिबंधों  एवं सभी प्रकार के अत्याचारों का था।
1815 ई0 से 1947 ई0 तक यह क्षेत्र ब्रिटिश शासन के अधीन रहा। अंग्रेज प्रशासकों  ने प्रारम्भ से  ही व्यापार से सम्बन्धित इस क्षेत्र को  तथा यहाँ  के निवासियों की भूमिका को  समझ लिया था। अतः ब्रिटिश शासनकाल में इस क्षेत्र की विस्तृत जानकारी प्राप्त करने हेतु नैन सिंह, विशन सिंह तथा मनी कम्पासी जैसे बड़े अन्वेषक व्यक्तियों को नियुक्त किया। इन्होने अपने  भौगोलिक सर्वेक्षण द्वारा तिब्बत से व्यापार के नये व्यापारिक मार्गों  की खोज की। अंग्रेजों  ने भी तिब्बत में भारत के व्यापारिक एजेण्ट नियुक्त किये।
आजादी से पूर्व भोटिया क्षेत्र  में देश की सुरक्षा के लिए नयी सड़कों का निर्माण हुआ जिससे व्यापार में उन्नति हुई। यह उन्नति 1962 ई0 तक बनी रही। 1962 ई0 में  चीन भारत युद्ध के बाद भारत तिब्बत व्यापार समाप्त हो गया।
महत्वपूर्ण व्यापारिक मार्ग
ब्रिटिश शासन काल में तिब्बत से व्यापार एवं उसके प्रभाव –
ब्रिटिश शासन काल में कुमाऊँ का प्रमुख व्यापार तिब्बत के साथ था। तिब्बती व्यापार से इस जिले के भोटियों जाति के लोग जुड़े थे। अल्मोड़ा जिले में  दारमा पट्टी, चौंदास पट्टी एवं जोहार परगना जुड़े थे। इसमें सबसे उल्लेखनीय  द्रष्टान्त राजा बाजबहादुरचन्द का रहा है, जिसने अपने शासनकाल के दौरान प्रशासन में अधिक न्याय व शान्ति के दृष्टिकोण से जोहर परगने को भी अपने राज्मिय में ला लिया और तिब्बत की ओर जाने वाले दर्रों  की उचित देखभाल की।
1815 ई0 से 1947 ई0 तक यह क्षेत्र ब्रिटिश शासन के अधीन रहा। अंग्रेज प्रशासकों ने प्रारम्भ से ही व्यापार से सम्बन्धित इस क्षेत्र को तथा यहाँ  के निवासियों की भूमिका को  समझ लिया था। आजादी से पूर्व भोटिया क्षेत्र  में देश की सुरक्षा के लिए नयी सड़कों  का निर्माण हुआ जिससे व्यापार में उन्नति हुई। यह उन्नति 1962 ई0 तक बनी रही। 1962 ई0 में  चीन भारत युद्ध के बाद भारत तिब्बत व्यापार समाप्त हो गया।
तिब्बत से व्यापार के लिए वर्ष में दो यात्रायें होती थी। पहली जुलाई के प्रथम अथवा दूसरे सप्ताह में आरम्भ होती थी तथा दूसरी सितम्बर में  आरम्भ होती थी जो पहली यात्रा से अधिक कठिन थी। चूंकि भारत से तिब्बत को निर्यात होने वाली वस्तुओं में अधिकाँशत:  अनाज ही होता था, अतः साधारणतया ये यात्रायें फसल काटने  के बाद ही प्रारम्भ की जाती थी पहली यात्रा आरम्भ होने से पूर्व अर्थात् जून मास में ‘‘जांगपोन’’ अपने व्यापारिक प्रतिनिधियों को , जिन्हें ‘‘सजारिया’’ कहा जाता था भारत में निम्नलिखित वस्तुओं की जांच हेतु भेजता था।
(1) पहला जोहार घाटी किसी छूत की बीमारी से ग्रसित तो नहीं है ?
(2) भोटिया क्षेत्र में किसी बाहरी आक्रमण की सम्भावना तो नहीं है?
(3) भोटिया क्षेत्र  में अच्छी फसल की सम्भावना है अथवा दुर्भिक्ष के आसार तो नहीं है।
यह व्यापार भारत तिब्बत सीमा पर निर्दिष्ट दर्रों से किया जाता था। जोहारी भोटिया अपना अधिकाँश  व्यापार ऊन्ता धुरा दर्रे  से व्यापार  के लिए जाया करते थे जोकि कि 17,590 फुट की ऊँचाई पर स्थित था, जब कि दारमा पट्टी  के भोटिया व्यापारी अपना व्यापार नेओ (18,450 फुट), लिपुलेख (16789 फुट) तथा लुम्पियालेख (18,450) दर्रों  से करते थे। लुम्पियालेख से एक रास्ता ज्ञानिमा मण्डी को जाता था यह बहुत दुर्गम मार्ग था जो दिसम्बर एवं जनवरी में बन्द रहता था। इन दर्रों से  यात्रा करना काफी कठिन था। यथाकदा भुस्खलन से मार्ग में व्यापारियों के सम्मुख अनेक मुसीबतें आ जाती थी तथा कभी-कभी चट्टानों  के गिरने से लोगों की जानें  भी चली जाती थी। इन प्राकृतिक आपदाओं  के साथ-साथ मार्ग में डाकुओं  द्वारा लूट लिये जाने की घटनाएं भी बहुत होती थी। बकरियां, भेड़ जुबू (गाय एवं तिब्बती याक की तरह एक दोगला पशु) पहाड़ी खच्चर ढ़ोने वाले जानवर दानपुर पट्टी के गाँवों से आयात किये जाते थे। व्यापारिक वस्तुओं को जानवरों की भारवाहन शक्ति के अनुरूप बड़े अथवा छोटे चमड़े के बोरों (भोटियों की भाषा में इन बोरों को ‘फाछा’ कहा जाता था।) में रखा जाता था। एक भेड़ ( साधारणतया भोटिया व्यापारियों की एक भेड़ 8 सेर वजन ले जाती थी जबकि जुबू 2 मन वजन ले जाता था।) को सबसे  कम बोझ ले जाने वाला तथा जुबू का े सबसे अधिक बोझ ले जाने वाला शक्तिशाली पशु समझा जाता था।
किसी भी व्यापारी की समृद्धि का पता उसके सामान ले जाने वाले जानवरों के झुण्ड से चलता था। भोटिया व्यापारी मार्ग में  लूट लिये जाने के भय से इन दर्रों  से शीघ्रता से अपनी यात्राओं को पूरा करते थे ।
प्रमुख तिब्बती व्यापारिक मण्डियां अथवा हाट
अल्मोड़ा जिले  से सबसे नजदीक एवं व्यापारिक दृष्टिकोण से रक्षित हाट तक्लाकोट हाट (13,100 फीट की ऊँचाई पर) थी। ऐतिहासिक तथ्यों से विदित होता है कि इस हाट से औसत लेनदेन 25 लाख रूपये का होता था। जोहारी भोटिया साधारणतया ज्ञानिमा मण्डी (16,500 फुट) मण्डी में जाते थे। यह मण्डी तिब्बती घोड़ों, खच्चरों, सुहागा, ऊन, ऊन से बनी वस्तुओं तथा चाय इत्यादि कीमती वस्तुओं के लेनदेन के लिए प्रख्यात थी। दारमा के भोटिया व्यापारी जून से दिसम्बर तक तकलाकोट में व्यापार करते थे। इनके अतिरिक्त पश्चिमी तिब्बत में दारचिन, छपरंग, दाबा, शिवचिलम, ख्यामलिंग तथा मिसार आदि अन्य महत्वपूर्ण व्यापारिक हाट थे। गरतोक हाट में सरकारी तौर पर व्यापारिक मेले की व्यवस्था की
जाती थी। इस हाट में सोना, चांदी तथा अन्य कीमती पत्थरों का व्यापार होता था। डकैतो एवं ठगों के भय के कारण इस हाट में लेनदेन सीमित रहता था।

1. जौलजीवी का व्यापारिक मेला –
जौलजीवी का व्यापारिक मेला नवम्बर के तीसरे सप्ताह में आगमन की पहली तिथि (मार्गशीष संक्रान्ति) से लगता था। इसमें कच्ची ऊन से बनी बस्तुयें, सुहागा, कस्तरी, शहद, चमड़ा तथा तिब्बती घोड़े बेचे जाते थे। जौलजीवी तिब्बती सीमा से अधिक दूर न होने के कारण यदाकदा तिब्बती व्यापारी भी यहां आते थे। इसके अतिरिक्त इस मेले में दूरस्थ स्थानों से जैसे -कलकता, बम्बई, दिल्ली, अमृतसर तथा कानपुर से भी व्यापारी आते थे। जौलजीवी का यह मेला अस्कोट से 6 मील दूर गोरी एवं काली नदियों के संगम पर लगता था।

2. बागेश्वर का व्यापारिक मेला-
बागेश्वर अल्मोड़ा नगर से 74 किमी॰ दूर सरयू एवं गोमती के संगम पर स्थित है। यहाँ पर प्रसिद्ध शिव मन्दिर है। जनवरी मास में मकर संक्रांति के अवसर पर यहाँ मेला लगता था यह पांच दिन तक चलता था। जौलजीवी  मेले में बचे हुए माल को इस मेले में बेचा जाता था। इस मेले में जोहारी भोटिया, बड़ी संख्या में आते थे। चंवर पूँछ, समूरी छाल, कस्तूरी, जड़ी बूटियां, भालू की चरबी, सुहागा तथा चमड़े के थैले इत्यादि भोटान्तिक विक्रय की वस्तुएं थी। दानपुर के लोग चटाईयां व टोकरियाँ इत्यादि लाते थे। अल्मोड़ा के  शहरी व्यापारी कारखानों की बनी चीजें जैसे कपड़े, छाता, लोहे आदि एलूमिानियम तथा पीतल के बने बर्तन, तेल, चीनी, गुड़, साबुन, दर्पण, बटन तथा ट्रक इत्यादि लेकर पहुँचते थे।

3. थल का व्यापारिक मेला –
पिथौरागढ़ शहर से 105 कि0मी0 की दूरी पर स्थित थल भोटिया के व्यापार का प्रमुख केंद्र था। यहाँ अप्रैल माह के मध्य में तिब्बत सक्रांति को मेला लगता था, क्योंकि यहाँ के बाद वे अपने ग्रीष्म-निवासों में होते हुए तिब्बत व्यापार के लिए चले जाते थे। क्रय-विक्रय के अतिरिक्त यह वार्षिक हिसाब-किताब का मेला होता था। भोटान्तिक व्यापारी यहाँ अपने पहाड़ी मित्रों का हिसाब चुकाते थे तथा सरकारी मालगुजारी भी यही चुकायी जाती थी।

व्यापार की प्रमुख शर्ते: –
भारत-तिब्बत व्यापार की कुछ प्रमुख शर्तें थी। इन शर्तों का दोनों देशों के व्यापारिक पक्षों द्वारा पूर्ण रूप से पालन किया जाता था। यदि कोई व्यापारी इन व्यापारिक शर्नेतों को तोड़ने का दोषी पाया जाता था, तो उसे सजा दी जाती थी सामान्यतः व्यापार प्रारम्भ करने के लिए तीन प्रकार के समझौते  होते थे।
1. पहली प्रथम सरछू-मूलछू थी। इस प्रथा के अनुसार ‘‘भोटिया व्यापारी’’ अपने तिब्बती व्यापारियों के साथ स्थानीय रूप से बनायी गयी शराब (इस शराब को ‘‘जार’’ कहते थे) को  सोने एवं चांदी से छुआ कर साथ-साथ पीते थे। इस शराब को लेन-देन तय करने से पहले दोस्ती की निशानी के रूप में पीना जरूरी होता था।
2. दूसरा व्यापार की शर्तों का एक लिखित एवं विस्तृत समझौता होता था जिसमें भोटिया एवं तिब्बती दोनों अधिकारियों के हस्ताक्षर होते थे। इस समझौते को ‘‘गमग्या’’ कहा गया। भोटिया जाति में गमग्या मुख्य समझौता माना जाता था। क्योंकि भोटिया व्यापारियों के लिए यह समझौता हस्तान्तरण योग्य था एक भोटिया व्यापारी अपनी बीमारी अथवा गरीबी के कारण इसे अपनी ही जाति के किसी आदमी को इच्छानुसार बेचने के लिए स्वतन्त्र था। साधारणतया भोटिया व्यापारी ‘‘गमग्या’’ समझौता को अपनी व्यक्तिगत अभिरक्षा हेतु रखता था अतः व्यापार हेतु तिब्बत जाते समय भोटिया व्यापारी गमग्या समझौते को अपने  पास रखते थे।
3. ‘‘गमग्या’’ समझौता पत्र जिसमें कि दोनों पक्षों  के बीच व्यापार सम्बन्धी लेखा-जोखा होता था, उसमें ‘‘थचिया’’ मुहर लगायी जाती थी यह साधारणतः लकडी, रबर एवं धातु की मुहर होती थी जिसमें व्यापारी के हस्ताक्षर अथवा उसका व्यापार चिन्ह खुदा रहता था। भोटिया जाति में थचिया को सर्वोच्च मान्यता प्राप्त थी। जब भी भोटिया व्यापारी तिब्बत को जाने के लिए या तिब्बत से भारत को  आने के  लिए अपनी यात्रा प्रारम्भ करते थे तो  सर्वप्रथम अपने माल पर ‘‘थचिया’’ मोहर लगा देते थे, जिससे यह सिद्ध हो जाता था कि वे उस माल…….
। जिस समय अल्मोड़ा में  चन्द राजाओं का शासन था उस समय चन्द राजाओं की ओर से अस्कोट के रजवार दारमा एवं जोहार से मालगुजारी वसूल करते थे। व्यापार से राजस्व भी वसूल किया जाता था। चन्द शासन काल में भोटियों द्वारा दिये जाने वाले विभिन्न प्रकार के करों का कोई ऐतिहासिक साक्ष्य प्राप्त नहीं होता है। 1790 ई0 में यहाँ गोरखों का शासन स्थापित होने पर जोहार एवं दारमा में प्रतिवर्ष क्रमशः 12,500 रू0 तथा 15,000 रू0 सरकारी राजस्व निश्चित किया गया, लेकिन भोटियों ने इस राजस्व में कमी करने की अपील की। बाद में भक्ति थापा द्वारा इस विषय में जाँच करने के उपरान्त गोरखा सरकार ने इस कर में जोहार में 8000 रू0 तथा दारमा में 9000 रू0 की कमी कर दी। 1815 ई0 में अल्मोड़ा ब्रिटिश शासन के अधीन आया। अब अंग्रेजों ने गोरखा सिक्कों में  वसूली बन्द करके फरुखावादी सिक्कों को प्रचलित किया। 1815 ई0 में चार भोटिया महालों (महालों से तात्पर्य परगनों अथवा पट्टियों से था।) से अर्थात् जोहार दारमा, व्यास एवं चौंदास से कुल वसूली 9367 रू0 निर्धारित की गयी। अल्मोड़ा में 1817 ई0 में ट्रेल द्वारा दूसरा भूमि बंदोबस्त किया गया जिसके द्वारा भोटिया परगनों से होने वाली आय 9590 रू0 निर्धारित की गयी। 1818 ई0 में पुनः ट्रेल द्वारा ही तीसरा भू-बंदोबस्त किया गया। चौथे बंदोबस्त द्वारा कस्तूरी, शहद, शिकार खेलने आदि से कर हटा लिया गया, जिससे भोटिया परगनों  से होने वाली आय 9590 रू0 स े घटकर 3860 रू0 हो गयी। 1900 ई0 से 1902 ई0 के बीच गूज द्वारा किये गये 11 वें बंदोबस्त द्वारा पहली बार भोटियों के जानवरों  पर प्रति जानवर 6 पाई कर लगाया गया। जानवरों  की चराई पर भी कर लगाया गया जिससे राजस्व बड़कर 7790 रू0 हो  गया। जा ैहार परगने के भा ेटियां े ने  इन करों के विरोध में एक याचिका प्रस्तुत की जिसे बंदोबस्त अधिकारी द्वारा खारिज कर दिया गया लेकिन भा ेटियां े ने इस दिशा मेंअपना प्रयास जारी रखा और अन्ततः उन्हें सफलता मिल ही गयी जब कि सरकारी आदेश संख्या 220 -रि (8) दिनांक 8 मार्च, 1938 के द्वारा जानवरों की चराई से कर हटा दिया गया।

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