(मनोज इष्टवाल)
अक्सर हम जब भी गोत्र व वंश के बारे में बात करते हैं तब न हमें इसकी शाका का पता होता है न प्रवर का..! यह सिर्फ आम व्यक्ति की बात नहीं बड़े -बड़े विद्वान भी इसमें उलझ कर रह जाते हैं। और तो और सांडिल्य गोत्री ब्राह्मण अपने को उच्चकोटि ब्राह्मणो में सम्मिलित समझते हैं जबकि भारद्वाज गोत्री ब्राह्मण को अपने से ऊपर तवज्जो नहीं देते। उसका मुख्य कारण उत्तराखंड में ब्राह्मण व कई क्षत्रीय वंशजों का अपने आप को भारद्वाज गोत्री मानना भी समझा जाता है। वैसे गोत्र के उत्पन्न होने का मूल कारण ऋग्वेद में गौ माता/ गौशाला व मेघवर्ण को माना गया है।
अब अगर हम भारद्वाज गोत्र की बात करते हैं तब वैदिक ऋषियों में भारद्वाज ऋषि का अति उच्च स्थान है। अंगिरावंशी भारद्वाज के पिता बृहस्पति और माता ममता थीं। बृहस्पति ऋषि का अंगिरा के पुत्र होने के कारण ये वंश भी अंगिरा का वंश कहलाएगा। ऋषि भारद्वाज ने अनेक ग्रंथों की रचना की उनमें से यंत्र सर्वस्व और विमानशास्त्र की आज भी चर्चा होती है। इतना सब होने पर भी गोत्र व वंश पर आये दिन विद्वानों में चर्चा होती ही रहती है।
भरद्वाज ऋषि से कैसे गोत्री माने जाते हैं गढ़वाल क्षेत्र के ब्राह्मण – क्षत्रिय
पाणिनि के समय, विक्रमपूर्व पांचवीं शताब्दी में, उत्तराखण्ड या उसका पश्चिमी भाग गढ़वाल, भरद्वाजजनपद के नाम से प्रसिद्ध था। “ऋग्वेद के वृद्धतम ऋषि भरद्वाज ने अपनी ऋचा में यमुना का उल्लेख किया है।” सम्भवतः उनका आश्रम यमुनातट पर था। पंचविशव्राह्मण के अनुसार भरद्वाज दिवोदास के पुरोहित थे। इसलिए दिवोदास के समय आर्यजन यमुना पार करके मध्यदेश में पहुंचे।
महाभारत के अनुसार भरद्वाज का आश्रम गंगाद्वार में था। यहीं घृताची अप्सरा के कारण उनके अयोनिज पुत्र द्रोण का का जन्म हुआ। था। इनके द्वारा दिवोदास के लिए पुत्रेष्टि यज्ञ करने का उल्लेख महाभारत में भी है। इससे विदित होता है कि भरद्वाज और उनके वंशजों या शिष्यों का सम्बन्ध गंगाद्वार से चिरकाल तक बना रहा। भरद्वाज के आश्रम के कारण गंगाद्वार से सम्बन्धित जनपद भरद्वाज कहलाने लगा।
महाभारत में भरद्वाज जनपद का भी उल्लेख है। महाभारत तथा वायु, मारकंडेय ब्रह्मांड आदि पुराणों की जनपद सूची में गिनाए गए भारद्वाज की पहिचान परजिटर ने गंगाजी की उपत्यका में स्थिति पर्वतीय प्रदेश गढ़वाल से की है। पाणिनि ने भरद्वाज जनपद के कुकर्ण और पर्णनामक गांवों का तथा पतंजलि ने उसके ऐणीक और सौसुक नामक दो अन्य ग्रामों का उल्लेख किया है। इन ग्रामों की पहिचान अनिश्चित है।
महाभारत और पुराणों में तथा पाणिनि के गणपाठ एवं महाभाष्य में अत्रि या आत्रेय और भरद्वाज का प्रायः एकसाथ उल्लेख मिलता है। बाण ने राजा हर्ष की अश्वशाला में भरद्वाज अश्वों की टुकड़ी का उल्लेख किया है। जिनकी पहिचान गढ़वाल के टंकण (टांघन) घोड़ों से की जाती है।
भरद्वाज के वंशजों या शिष्य-परम्परा का सम्बन्ध उत्तराखण्ड से चिरकाल तक बना रहा। ५३इसी से आज उत्तराखण्ड के अधिकांश ब्राह्मण-राजपूत अपना गोत्र भरद्वाज बतलाते हैं। गोत्र वंश-परम्परा पर आधारित न होकर, गुरु-परम्परा पर आधारित होने के कारण उत्तराखण्ड में सगोत्र-विवाह में आपत्ति नहीं होती। किन्तु संपिंड-विवाह सर्वथा वर्जित है।.
(संदर्भ संकलन : ‘(‘कृकर्णपर्णाह भारद्वाजे’- अष्टाध्यायी, राहुल-ऋग्वेदिक आर्य, पृ०९ ., पंचविशंब्राह्मण, १५।३।७ , ऋग्वेद ७।१८।१९, आदिपर्व, १२९।३३-३८ ,अनुशासनपर्व, ३० ।३०,भीष्मपर्व, ९।६८, परजिटर-मारकंडेयपुराण, पृ० ३२०, अग्निहोत्री-पंतजलिकालीन भारत, पृ० १०६, ‘आत्रेयाश्च, भरद्वाजाः पुष्कलाश्च, कशेरूकाः- मारकण्डेयपुराण, अ०५१ ५०, महाभाष्य, २।४:६२, ४।१।८९, ‘अथ वनायुजै; आरट्टजैः काम्बोजैः भारद्वाजैः तुरंगैरारचितां मन्दुरां विलोकयन्’हर्षचरित, उच्छास २, जगन्नाथ पाठक-हर्षचरित-टीका, पृ० १०६, डबराल-उत्तराखण्ड का इतिहास भाग १, पृ० २१३ ५४, मैठाणी- भारत-गोत्र-प्रवर-दीपिका, हिमाचल-कनौर में भी सगोत्र-विवाहों के सम्बन्ध में द्र०, राहुल- किन्नरप्रदेश में, पृ० ३१५)