(मनोज इष्टवाल)
प्रश्न उठेंगे तो सुलगेंगे ही। आखिर क्या दोष रहा होगा खेड़ा गांव के इन भाई बहनों का जिन्हें राष्ट्रीय राजमार्ग का एक पुश्ता जमींदोज कर गया। क्या ऐसे घटिया निर्माण की जांच बैठनी चाहिए या फिर उन भाई बहनों के लिए मातम मनाना चाहिए जो बेवजह अपनी जिंदगी इस सड़क व सड़क के ठेकेदारों इंजीनियरों के कारण गंवा बैठे।
टिहरी के विकास खंड नरेंद्र नगर के खेड़ा गांव से आगे बढ़ रही आल वेदर रोड का काम ऐसी किस एजेंसी को बांटा गया है जो उत्तराखंड के अधिकारियों की तक नहीं सुनते तो आम जन की हैसियत ही क्या है। हाल ही के दिनों में राष्ट्रीय राजमार्ग पर बने इस पुश्ते के दरकने से दो बहनें व एक भाई अपने मकान सहित मलवे में समा गए। ग्रामीणों ने बचाव के हर सम्भव प्रयास किये लेकिन तब तक तीनों ही परलोक सिधार गए थे।
कॉमरेड इंद्रेश मैखुरी लिखते हैं कि चार धाम परियोजना, जिसे पहले ऑल वैदर रोड कहा गया, उसके निर्माण में या यूं कहिए कि खुदाई में लगाई कंपनियाँ के घटिया काम की कीमत तीनों जानों और एक मकान के ज़मींदोज़ होने के रूप में चुकानी पड़ी। नरेंद्रनगर ब्लॉक के खेड़ा गाँव में एक परिवार पर सड़क निर्माण का घटिया काम कहर बन कर टूटा। जिस पुश्ते ने तीन जाने ले ली, उसके बारे में बताया जा रहा है कि वह एक महीने पहले ही लगाया गया था। पहली बरसात में बह गया.जानकारी तो यहाँ तक है कि केंद्र की इस परियोजना के बड़े ठेकेदार,जिला स्तरीय अफसरों की भी नहीं सुनते हैं।ऐसे में जांच की घोषणा तो होगी पर कार्यवाही क्या होगी कह नहीं सकते।
जो तीन युवा जिंदगियां मलबे में दफन हो गयी, उन्हें इंसाफ कौन दिलाएगा पता नहीं? अपने युवा बच्चों को अचानक से खो देने वाले माँ-बाप के जीवन में इंसाफ जैसे किसी शब्द का कोई अर्थ भी होगा, कहा नहीं जा सकता।
बड़ी परियोजना है, बड़ा टेंडर तो बाकी खान-पान, जेब दान भी बड़ा ही होगा। कितना आसान है, बनी-बनाई सड़क को खोदो, मलबा ढलान से नीचे फेंको और तिजोरी भरो। यही विकास है और मलबे में दफन हुई तीन जिंदगियाँ विकास के ठेकेदारों के लिए इस तथाकथित विकास की मामूली कीमत !
तीन ज़िंदगियों के मलबे में दफन होने पर जब गुस्साये स्थानीय लोग सड़क पर उतरे तो लोगों के आक्रोश से बचने के लिए परियोजना से जुड़े लोगों ने नरेंद्रनगर थाने में शरण ली. अपने प्राण सभी को ऐसे ही प्रिय होते हैं, लेकिन अफसोस मलबे से चांदी काटने को लोगों के प्राणों से अधिक जरूरी नहीं समझा गया होता तो ऐसी नौबत ही क्यूँ आती ?
सचमुच इन शब्दों में इंद्रेश मैखुरी ने पहाड़ व वर्तमान की ऐसी पीड़ा बयान की है जिस पर सब मौन साध जाते हैं। आखिर क्या हमारा चौथा स्तम्भ इतना पंगु हो गया है कि उन्हें जनहित, जन पीड़ा, जन संघर्ष के मामले दिखाई ही नहीं देती या फिर राज्य और केंद्र सरकार ऐसे कुछ फैसले कर रही है जो आम अधिकारियों की पहुंच से भी बड़े हैं। कौन मरा क्या मरा, कहाँ न्याय की गुहार, किसको करें फरियाद जिसे शब्द आखिर पनप क्यों रहें हैं। सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि जब राजमार्गों के ठेकेदार लेबर भी बाहर की है तब हमारे पास रह क्या जाता है। विकास के नाम पर जिंदगी लील देने वाली ऐसी ही सड़कें!