(मनोज इष्टवाल)
यकीनन इतिहास को बदलते हमारे इतिहासकार आखिर किसकी शह पर यह सब करते रहते हैं समझ नहीं आता! और अक्सर जैसा वह लिखते देते हैं हम भी बिना शोध किये उसी को इतिहास मान लेते हैं! अब दून घाटी में उगने वाली बासमती को ही देख लीजिये! जिसका सोलहवीं सदी में जिक्र आता है और सिरमौर के राजा मौली चंद व गढ़वाल के राजा मानशाही की जो बासमती युद्ध की वजह बनती है उसी को हमारे इतिहासकारों (उसमें ब्रिटिश इतिहासकार भी शामिल हैं) 18वीं सदी में अफगानिस्तान से लाया बता दिया है!
यह हमारे लिए दुर्भाग्य की बात नहीं तो और क्या है कि जो बासमती 16वीं सदी में बद्रीनाथ में भोग में चढ़ती थी उसी बासमती को हम अफगानिस्तान से सन 1842 ई. में अंग्रेजों द्वारा राजनीतिक युद्ध बंदी के रूप में देहरादून लाये गए अफगानिस्तान के बादशाह अमीर मोहम्मद की जागीर बता देते हैं! कई सेक्युलर इतिहासकारों ने व ब्रिटिश लेखकों ने दून घाटी की बासमती के बारे में लिखा है कि बासमती चावल का अफगानिस्तान से देहरादून आने का सफर भी उतना ही विषाद है जितना उसका घाटी से विदाई का सफर है। सन 1842 में अंग्रेज सरकार अफगानिस्तान के बादशाह अमीर मोहम्मद को जब राजनीतिज्ञ बंदी बनाकर देहरादून लायी थी तब वह बासमती चावल का बीज साथ लेकर आये थे। इसे दून घाटी के सेवला कला क्षेत्र के बेहतरीन जलवायु में बोया गया। जहां इसके अप्रत्याक्षित रिजल्ट दिखने को मिले पूरी घाटी बासमती चावल की खुशबु से महक उठी।
अगर यह सच है तो तपोवन व मालकी दून (दून घाटी) गढ़नरेश राजा सहजपाल (1548-1561) के काल में 1552-53 ई. उनके पौत्र राजा मानशाह के काल (1591-1611) उनके पौत्र महिपत शाह के काल (1631 से 1635 ई.), उनके पुत्र पृथ्वीपति शाह (1640-1664 ई.) के काल (संदर्भ- गढ़राजवंश काव्य, जहाँगीरनामा, शाहजहाँनामा, मआसिर अल उमरा), उनके पुत्र मेदनीशाह के काल (1664-1684 ई.), उनके पुत्र फ़तेह शाह के काल (1684-1716 ई.) फतेह्शाह के पुत्र प्रदीप शाह के काल (1717-1772 ई.), प्रदीप शाह के पुत्र ललित शाह (1772-80 ई.) व प्रधुम्न शाह (1785-1804 ई.) तक क्यों मुग़ल, सिरमौर राजा व सिख गुरुओं ने झीरी बासमती के लिए प्रसिद्ध इस घाटी को अपने कब्जे में लेने के लिए संघर्ष किये!
ऐतिहासिक सन्दर्भों को अगर दृष्टिगत रखा जाय तो सबसे बड़ा संघर्ष इस घाटी में उगने वाली झीरी बासमती को लेकर सिरमौर के राजा मौलीचंद व गढवाल राजा मानशाही की सेना के बीच हुआ! जिसका जिक्र पाँवडों, लोकगाथाओं, जागरों, लोकगीतों में आपको मिल जाएगा! जैसे:-
“सिरीनगर को राजा होलो मानशाही, कुमाऊँ को राजा होलो गुरु ज्ञानचंद,
सिरमौर कु राजा मौलीचंद होलो! दिल्ली म होला अकबार बादशाही!
मानशाही होलो धर्मी राजा, मान को धनि होलो आण को पक्को!
सुर्ज सी प्रचंड होलो, द्यो सी दानी! उत्तराखंड की भूमि मा होलो तपोवन!
तपोवन मा होंदी होली जीरा बासमती! जीरा बासमती अनमनि भांति!
तब देश देश का रज्जा करदन रीस! यो सिरी नगर को रज्जा कन खान्द बासमती भात!
इस युद्ध में गढ़तोडू भड भौंसिंग रिखोला को तब सिरमौरी राजा मौलिचन्द के नाई त्यूणा ने धोखे से मार दिया था, जब सिरमौर पर विजय पताका फहराकर भौंसिंग रिखोला शेषधारा में स्नान कर संध्या में बैठा था! बदले में त्युणा नाई ने मौली चंद से अपने दरवार में नाईयों का दीवान पदवी पाई! गढ़नरेश महीपति शाह के काल में इसका बदला भौं सिंग रिखोला के पुत्र लोदी रिखोला ने लिया! उसने न सिर्फ माल की दूण तपोवन जीता बल्कि सिरमौर राज्य का अधिकाँश भाग अपने कब्जे में कर लिया! राजा मौलीचंद की पुत्र मंगलाज्योति ने अपने पिता के प्राणदान की प्रार्थना कर लोदी रिखोला से विवाह रचा लिया!
गढ़राजवंश काव्य, जहाँगीरनामा, शाहजहाँनामा, मआसिर अल उमरा के अनुसार गढ़नरेश पृथ्वीपति शाह के काल में सन सन 1635 से 1640 के मध्य इसी तपोवन क्षेत्र जिसमें बासमती उगती थी, सिरमौर के राजा की सहायता से मुगल मनसबदार नजावतखां ने इस क्षेत्र पर आक्रमण कर शेरगढ़, कालसी, बैरागढ़ क्षेत्र पर अधिकार जमा लिया लेकिन फिर भी वह मालकी दूण पर कब्जा करने में असमर्थ रहा! इस दौरान राजा पृथ्वीपति शाह अवयस्क थे व राज-काज उनकी माता देखा करती थी! पृथ्वीपति शाह ने इसे राजगद्दी में बैठते ही मुगलों को हराकर पुनः अर्जित कर लिया लेकिन 1645-46 में मुग़ल सम्राट ने एक बड़ी सेना खल्लिलुला खां के नेतृत्व में कुमाऊं के चंद राजा, सिरमौर के राजा के साथ देहरादून पर आक्रमण करने के लिए भेजी, इस सेना ने पूरी घाटी को लूटा लेकिन बरसात होने के कारण इन्हें वापस लौटना पड़ा! इनके लौटते ही पृथ्वीपति शाह ने सिरमौर के राजा मेदनीप्रकाश पर आक्रमण किया व बैरागढ़ तथा कालसी तक अपना अधिकार जमा लिया! लेकिन भंगाणी युद्ध में सिखों के गुरु गोबिंद सिंह के साथ मिलकर मेदनी प्रकाश ने गढवाल नरेश फ़तेहशाह की सेना पर आक्रमण किया!भयंकर युद्ध हुआ और फतेहशाह की सेना की हार हुई! बाद में सच्चाई जानकर गुरु गोबिंद सिंह पौंटा साहिब छोड़कर आनंदपुर चले गए! फ़तेहशाह ने अगला प्रचंड आक्रमण किया व सिरमौर के शिलाई -फ़तेपर्वत तक पूरा अपना अधिकार जमा दिया! वह यहीं नहीं रुके उन्होंने अब सहारनपुर के गूर्जर व पुंडीरों राजाओं को सबक सिखाने की ठान ली जो बासमती की तैयार फसल को अक्सर लूटकर ले जाया करते थे! फतेह्शाह ने इन्हें परास्त कर अपना राज्य विस्तार सहारनपुर तक कर दिया!
गढ़नरेश प्रदीप शाह के राज्यकाल में एक बार फिर माल की दून पर रोहेला सरदार नजीबुदौला ने आक्रमण कर दिया! 1770 में हुए इस युद्ध में जब तक राजा की सेना श्रीनगर से देहरादून कूच करती तब तक नजीबुदौला ने देहरादून घाटी अपने अधिकार में ले ली! इस बासमती घाटी को लेकर गढ़नरेश ललित शाह के दौर में फिर संघर्ष हुआ! राजा ललित शाह ने 1779 में सिरमौर राज्य पर आक्रमण कर बैराटगढ़ पर विजय हासिल कर ली लेकिन कालसी में मुगल व सिरमौरी सेना के संयुक्त अभियान में वह कालसी विजय में असफल रहा व दोनों सेनाओं ने संधि कर ली!
1783 में झीरी बासमती को लेकर सिक्खों गढ़नरेश जयकृत शाह के राज्यकाल में दून क्षेत्र में आक्रमण कर इसे तबियत से लूटा! सिक्खों से संधि हुई व “राखी” कर के रूप में जयकृत शाह द्वारा प्रतिबर्ष एक चौथाई हिस्सा झीरी बासमती का सिखों को देना स्वीकार किया! राजा प्रधुम्न शाह के राजगद्दी में बैठते ही रोहेलों के सरदार गुलाम कादिर ने दून पर 1786 में आक्रमण कर उसे अपने कब्जे में ले लिया! 1789 में महादजी सिंधिया ने उसका सर कलम कर रोहेलाओं से गढ़नरेश को मुक्ति दिलाई लेकिन सिरमौरी राजा धर्मप्रकाश ने इसका फायदा उठाने की कोशिश की जिसे गढवाली सेना ने देहरादून से खदेड़ दिया!
इतिहास के इतने पन्ने पलटने का मेरा सीधा सा मतलब था कि जिस तपोवनघाटी, माल की दूण (देहरादून) के उन्नत बासमती चावलों के लिए 16वीं सदी से लगातार संघर्ष व लडाइयां छिडती रही! जिस बासमती का भोग बद्रीनाथ को लगता था! जिसकी ध्वज पताका छीनकर अपने कब्जे में करना ही सबसे बड़ा राजाओं का मकसद होता था उसी बासमती के इतिहास को आप 19वीं सदी का बताकर दून घाटी के इतिहास में दर्ज बासमती चावल का लगभग 600 पुराना इतिहास काले आखरों से मिटा रहे हैं! ऐसे कई सन्दर्भ हैं जिन में माधौ सिंह भंडारी, भौं रिखोला, लोदी रिखोला सहित बहुत से वीर भडों की विजयगाथा में बासमती चावल का बर्णन आता है!
वर्तमान में दून के पहले चाय बागान फिर बासमती घाटी और अब लींची बागान पर भूमाफियों की कुदृष्टि पड़ गयी है। यानि पूरे शहर को ऑक्सीजन शुद्ध मानसून देने वाले ये तीन हरितक्रांति के विभिन्न अंग दून घाटी से तेजी से घट रहे हैं। इस ओर किसी का ध्यान नहीं है।
पूर्व मुख्यमंत्री भुवन चन्द खंडूरी ने जब इस पर अंकुश् लगाया तब ये सभी माफिया एकजुट हुए और परिणाम यह निकला क़ि उन्ही के पार्टी के अंदरूनी नेताओं ने एक कुशल नेता को हरवाकर बागडोर कांग्रेस के हाथों दे दी! कांग्रेस सरकार ने आते ही सबसे पहले उसने भूमाफियों के लिए ही दरवाजा खोला आज हालात सबके सामने हैं। देहरादून के कैसरीन जमीन ही नहीं नदी नाले सब बिक गए या कब्जा कर लिए गए हैं।
बहरहाल दून घाटी में बासमती धान की 1121 प्रजाति किसानों के बीच बहुत प्रसिद्ध थी। यह गेहूं का 42 क्विंटल प्रति हेक्टेअर तक का उत्पादन देती थी। ऐसे में हो सकता है कि 1842 में अंग्रेज सरकार अफगानिस्तान के बादशाह अमीर मोहम्मद कोई एक प्रजाति बासमती चावल की अफगानिस्तान से यहाँ लायें हों लेकिन बासमती वही दून घाटी में लाये यह कहना या लिखना सर्वथा दून घाटी के इतिहास को कलंकित करने जैसा है!