जहाँ कार्तिकेय स्वामी ने ताडकासुर का वध किया….! असवाल जात कन्नार का पात और तेल का हाथ है बर्जित…?
(मनोज इष्टवाल ट्रेवलाग 05 मार्च 1992)
एक सनक कहें या इसे दुस्साहस कहें! बहरहाल जिस युवावस्था में अक्सर कोई भी व्यक्ति अपने सुनहरे भविष्य के रंगीले-पिंगीले सपनों के संसार में डूबा रहना पसंद करता है उस उम्र में मेरी यायावरी और आवारगी के किस्से मशहूर रहे। कभी मैं निकल पड़ा ” ब्रिटिश गढवाल के इतिहास में थोकदारों की भूमिका” पर कार्य करने तो कभी “असवाल जाति का इतिहास “ तलाशने गांव-गांव रास्ते चौखट लांघता हुआ हर उस गांव जा पहुंचता जहां भी असवालों की खुशबू मिलती।
विगत दिन मैं दुगड्डा से रथुवा ढाब मार्ग से चौकी सेरा आ पहुंचा। मैं असवालस्यूं की उस बूढ़ी माँ के गीत का पीछा करता हुआ यहां तक पहुंचा था। वो शाम मुझे आज भी याद है जब नगर गांव के पीपल से बमुश्किल कुछ ही मकान नीचे छज्जे के छोर पर बैठी वह बूढ़ी माँ बहुत तन्मयता के साथ पूरे सुर में गा रही थी, मानो उन्हें दुनिया से कोई लेना देना नहीं था। वह गा रही थी-
व्हे चौकी का सेरा, तम्बू वाढ़ो, हे पँवारी वीणा तम्बू वाढ़ो।
भानद्यो अस्वाला तम्बू वाढ़ो, भंगूला को भोगी तम्बू वाढो।
मालू का को माल तम्बू वाढो, भारी छौ बलवान तम्बू वाढो।
रूप को रसिया तम्बू वाढो, बांदु को शौकिया तम्बू वाढो।
हे पँवारी वीणा……..!
बस इन्हीं बोलों ने मुझे चौकिसेरा से सीला भरस्वार व वहां से पीड़ा कन्दोलि, यमकेश्वर बडोली, रणचूला, खेड़ा और रणस्वा व महाबगढ़ और फिर ताड़केश्वर..! ये सब एक वीर भड़ ने घुमवा दिए जिसका नाम था भँधो असवालों।
कौन था भँधो असवाल।
सोलहवीं सदी के उत्तरार्द्ध में एक ऐसा यौद्धा हुआ जिसने कभी भी गढ़वाल राजा की अधीनता स्वीकार नहीं की व अपना राज्य विस्तार 84 गांव अस्वालस्यूं से बढ़ाकर भैरों गढ़ी, लंगूर गढ़ी, महाब गढ़ से लेकर तराई भावर के मोरध्वज तक बढ़ाया। उसने जितनी भी लड़ाइयां लड़ी उनमें कभी भी राजा के हुक्म की कागळी नहीं थी बल्कि उस कागळी में अनुरोध था। कुमाऊं राजा बाजबहादुर चंद से बड़ी हार झेलने के कारण गोर्ला व रिंगोडा थोकदारों ने इगासी हार मानकर इगास (छोटी दिवाली) मनानी बन्द कर दी थी। बस उनका एक ही मकसद था कि किसी भी सूरत में हम एक बार कुमाऊं के बाजबहादुर चंद को हरा पाते। इतिहास दुबारा लिखा गया क्योंकि दो बर्ष बाद गढ़वाल नरेश के बिशेष अनुरोध पर असवाल थोकदार रणपाल असवाल की चौथी पीढ़ी के वीर भड़ भँधो की अगुवाई में एक बड़ा आक्रमण सवा लाख फौज के साथ कुमाऊं पर हुआ था। यह आक्रमण दो तरफा था। एक तराई राम नगर क्षेत्र से बिनसर रानीखेत तक तो दूसरा मरचूला, वीरोंखाल, नैनीडांडा होते हुए द्वाराहाट। इस बार गढ़वाल राजा की सेना ने युद्ध में खूब कोहराम मचाया व द्वाराहाट तक का बड़ा क्षेत्र विजित किया और इसी युद्ध में पंवार राजवंशियों की खूबसूरत लड़की वीणा पँवारी को भी भँधो असवाल बंदियों के साथ ले आया जिससे उसे मुहब्बत हुई व बाद में असवाल सन्तति पैदा हुई जो तछवाड़ गांव में जा बसे। भँधो असवाल से सम्बंधित कई प्रकरण हैं जिन्हें इस लेख में लिखना सम्भव नहीं है। क्योंकि उसमें सिमार गांव के असवालों का दुगड्डा में सीला के असवालों से भिड़ंत। कुलासु गढ़ संरचना सहित कई मसले शामिल हैं।
बहरहाल नगर असवालस्यूं छोड़कर सीला व महाबगढ़ क्षेत्र की जागीरदारी के बाद असवाल तीन धड़ो में बंट गए व नगर -मिर्छौड़ा गांव की खेमेबंदी ने जहां भँधो असवाल को नगर से पलायन करने को मजबूर करवा दिया वहीं सीला गांव बसासत ले बाद सीला व असवालस्यूं के एक ही थोक के थोकदारों में खाइयां बढ़ गयी। कुमाऊं की जीत में अपने साथ लाये उच्च कोटि के राजपूतों की बसासत कुमाईगांव में हुई।
पीडा गांव का ताड़केश्वर से सम्बन्ध।
आज मैं सीला भरस्वार के असवाल थोकदारों से विदा लेकर असवालों के पीड़ा गांव आ पहुंचा। चौकीसेरा से पहले सीला तक पैदल फिर वहां भरस्वार होकर लैंसडौन के नीचे धोबीघाट से जीप की सवारी से डेरियाखाल व डेरियाखाल से कन्दोलि होकर पीड़ा गांव पहुंचा। भरी दोपहरी में पसीने से तर्र-बतर जब पीड़ा गांव के खेतों से गुजरकर आगे बढ़ रहा था तो पाया यहां गेंठी व भेमल के पेड़ बहुतायत मात्रा में पेड़ों की मुंडेर पर हैं। सुखद अहसास ने बता दिया था कि यह गांव कृषि व गोधन के लिए प्रसिद्ध होगा।
एक सज्जन मिले तो पूछा कि प्रधान जी का घर कहाँ होगा। उन्होंने मेरा आने का मकसद जाना व बोले- आप कहाँ से! मैं झूठ बोला कि असवालस्यूं से…! सोचा कुछ ज्यादा क्रेडिट मिलेगा लेकिन अचानक हल जोत रहे आदमी पर नजर पड़ी जो भरी दोपहरी बैलों को भेमल की सोटी से मारकर हांक रहा था। मेरे मुंह से निकल पड़ा- अरे कैसा आदमी है इस भरी दोपहरी बैलों की ऐसी-तैसी कर रहा है। जब सबके बैल खुल गए तो इन्हें भी खोल देने चाहिए। आप क्यों नहीं बोलते कि बैल खोल दो।
वह सज्जन ठिठके, मेरे को आश्चर्य से देखा। फिर आगे बढे व बोले- गलती से ऐसा मत बोल देना। क्योंकि ताड़केश्वर व हमारी लड़ाई इसी प्रसंग पर हुई। मैं बोला- क्या मतलब? तो बोले- अरे पंडा जी पहले घर चलो। दिन का खाना खाने के बाद सुस्ता लो तब बात करेंगे।
स्टोरी।
तहसील लैंसीडाउन से लगभग 40 किमी दूर घने देवदार अच्छादित जंगल के बीच में सुरम्य जल कुंडों के बीच शोभनीय स्थल ताडकेश्वर में जब आप पहुँचते हैं, तो सचमुच आप लोभ सोच कुंठा भय जैसे कई शैतानों से मुक्ति पा शिब के आराध्य बन जाते हैं। पुराणों में वर्णित इस स्थान का वर्णन मिलता है कि जब दुष्ट ताड़कासुर का अत्याचार चरम पर बढ़ गया था एवं सभी देवताओं को उसे रोकने में असर्मथता के अलावा कुछ न मिला तब सब ने स्वामी कार्तिकेय से सहायता मांगी। शिब के जेष्ठ पुत्र कार्तिकेय ने घोर संग्राम के बाद ताड़कासुर को यहीं मार गिराया और इस स्थान में वास कर शिब लिंग की स्थापना की जिसे ताडकेश्वर नाम से पुकारा गया …
इससे भी रोचक यहाँ की स्थानीय जानकारियाँ हैं ।
कहा जाता है कि कालान्तर में जब “अधो असवाल अधो गढ़वाल” की परंपरा थी। यानि आधा राजकाज गढ़ नरेश चलाते थे तो आधे पर असवाल जाति के थोकदारों का अधिपत्य था ..और कुछ असवाल थोकदारों का अत्याचार भी चरम पर था। एक बार पीड़ा गॉव जोकि इगर गॉव के नीचे है का थोकदार तेज गर्मी में 12 बजे खेत में हल जोत रहा था और बैलों को बुरी तरह पीट रहा था। ..जिससे एक बैल खेत में गिर गया दूर खड़े ताडकासुर नामक ऋषि के भेष में साक्षात भगवान् ने थोकदार को आवाज लगाई और कहा कि इस तरह निरीह पशुओं पर अत्याचार मत कर …आग बबूला थोकदार असवाल ताडकेश्वर के पीछे भागा.. कहते हैं थोकदार को देखते हुए ताडकेश्वर ने सांप का रूप धारण कर लिया, और कन्नार (साल वृक्ष) के सूखे पत्तों के नीचे रेंगने लगा.. थोकदार असवाल ने उन्हें देख लिया और भेमल की सोटी से उन्हें पीट-पीट कर अधमरा कर डाला। तभी से असवाल थोकदार ने घोषणा कर डाली कि आज के बाद मेरा कोई भी वंशज हल में लगे सांप को देखकर हल बैल नहीं छोड़ेगा।
वही ताडकेश्वर भगवान् ने भी श्राप दिया कि मेरे क्षेत्र में असवाल जात, कन्नार का पात और तेल का हाथ वर्जित है। आज भी लोग इस अवधारणा को मानते हैं और जब भी इस धाम की यात्रा करते हैं न तेल की बनी रोटी पराठे लेकर जाते हैं और न सुगन्धित इत्र लगाकर..! और न ही कोई साल वृक्ष के पत्ते को ही यहाँ ले जाता है.
कहते हैं कि कालांतर में नगर गॉव से मिर्चोड़ा गॉव बसे एक थोकदार असवाल डंगडू सेठ ने घोड़े में चढ़कर यहाँ की यात्रा की और ताडकेश्वर को चुनौती दे डाली कि उसके वश में है तो वह उखाड़ ले मेरा जो उखाड़ सकता है। लेकिन जैसे ही उसने यहाँ प्रवेश किया देवदार की एक मोटी टहनी उनमें गिर गई और उन्हें घायल अवस्था में वहां से लाया गया कुछ समय पश्चात उनके प्राण पखेरू उड़ गए….अब यह कहावत कितनी चरित्तार्थ है कहा नहीं जा सकता लेकिन यह सत्य है जो भी यहाँ इस देवता की परीक्षा लेने पहुंचा उसका अनिष्ट ही हुआ।
(ग्राम प्रधान पीड़ा श्री गम्भीर सिंह असवाल)