(मनोज इष्टवाल)
मजाक नहीं कर रहा हूँ। हंसिये मत….! यह अकाट्य सच है। जी हां . .आम न्याय मांगने पहाड़ से भागता-भागता इलाहाबाद हाईकोर्ट जा पहुंचा। अब ये भी मत सोचिए कि आम किसी का नाम रहा होगा। शायद ही किसी ने कभी अपना नाम आम रखा होगा! ऐसा भी नहीं है। दरअसल यह बात है विकास खण्ड दुगड्डा के चरेख डांडा क्षेत्र के मथाणा गांव की।
मथाणा गांव के बारे में पूर्व में भी लिख चुका हूं क्योंकि कभी इस गांव को “धान का कटोरा -गेंहूँ का खलिहान” की संज्ञा दी जाती थी। इस गांव की खासियत यह है कि यह पहाड़ी भू भाग में फैला लगभग 5 किमी. आयताकार परिधि का एक ऐसा भू क्षेत्र ही जो समतल भू भाग में एकड़ों दूर तक फैला है। इसके दोनों ओर नदी धारे हैं व जलवायु शीतोष्ण।
इसी गांव की जमीन के लगभग मध्य भाग में सैकड़ों बर्षों से एक आम का वृक्ष खड़ा है। यहां के जनमानस का कहना है कि इस आम ने भी यहां की दो जातियों को इलाहाबाद हाई कोर्ट दिखा दिया।
विवाद यह हुआ कि यह 21 जातियों के इस गांव में कैंतुरा वंशज किसी के खेत की मुंडेर पर आम का पेड़ था। कैंतुरा वर्तमान में इस गांव में नहीं रहते, लेकिन लोगों का मानना है कि वह किसी रावत परिवार के ही यहां घर जवाई आये थे। कैंतुरा ने यह पेड़ काटना चाहा लेकिन बगल के रावत थोकदार ने इसे काटने से मना किया तो फौजदारी केस बन बैठा।
केस पहले पटवारी से लेकर तहसील और फिर इलाहाबाद तक पहुंच गया। आखिर जज ने एक दिन हंसते हुए कहा दिया कि भाई अब अगली पेशी तब लगेगी जब इस पेड़ के आम पकेंगें व वह आम अदालत में लाया जाएगा तब केस की अंतिम सुनवाई होगी।
ग्रामीण बताते हैं कि ऐसा ही हुआ। आम एक साल छोड़कर दूसरे साल आये और दोनों पक्ष अपने साथ आम लेकर हाजिर हुए। जज व सुनवाई में बैठे हुए सभी लोगों को आम दिये गए सबको आम दिए गए जो उन्हें खाने में बेहद पसंद आया। और जज ने फैसला सुनाया कि आम तब तक नहीं काटा जाएगा जब तक वह अपनी उम्र पूरी न कर दे।
यह आम तब से लेकर अब तक वैसे ही खड़ा है। फल पहले के मुकाबले अब छोटे लगने शुरू हो गए हैं लेकिन आज भी लोग इस ऐतिहासिक आम की कलम लगाने ले जाते हैं ताकि वे भी गर्व से कह सकें कि यह वह आम है जो न्याय मांगने इलाहाबाद हाई कोर्ट गया था। कहते हैं कैंतुरा जाति का वह घरजवाई इस फैसले से इतना क्षुब्ध हुआ कि उसने गाँव ही छोड़ दिया। आज असवाल जाति के साथ -साथ कैंतुरा जाति भी मालन घाटी से पलायन कर