गीतों में समूह गायन (कोरस) का प्रयोग कब और कहाँ से शुरू हुआ?
(मनोज इष्टवाल)
प्रश्न बहुत सरल सा दिखाई देता है लेकिन है बेहद कठिन! दरअसल हम किसी बिषय वस्तु की गूढ़ता पर अगर जाकर उसे खंगाले तो तब पता चलता है कि उसकी उम्र क्या है व वह किस तरह लोक में आकर हम सबके समक्ष खड़ी होकर आपको ललकारती है कि मुझे हल्के में ना लो मेरे अंतस में जाकर देखो। वर्तमान में कई व्यक्तित्व कहते हैं कि जब तक है जी… जी भर के जी! लेकिन बिरले ही होते हैं जो जीने को एक उद्देश्य बना लेते हैं जैसे ट्रेवोर बेलिस और जैक चलोनेर। अगर अंग्रेजी के लेखकों की माने तो ये दो महापुरुष ही थे जिन्होंने कोरस में सबसे पहले गाना शुरू किया। इन्हे ढूंढ़ने के लिए मजबूरन मुझे कई रात कई किताबें उलटनी पड़ी और उसके बाद जो सार समुख आया वह यह है कि गीत की संरचना से पहले कोरस यानि सामूहिक गायन प्रचलन में आया।
कोरस का प्रयोग ट्रेवोर बेलिस और जैक चलोनेर ने 2,600,000 ईसा पूर्व घोषित किया है जबकि गीतों का लेखन इसके कई हजार साल बाद माना जाता है।
मेरा मानना है कि यह शोध उन्होंने यूरोपियन कंट्री के हिसाब से किया है जबकि एशिया या मध्य एशिया के सम्पूर्ण भू भाग में इसका चलन सतयुग यानि करोड़ों साल पहले तब हो गया था जब ब्रह्म बिष्णु और महेश ने सृष्टि की संरचना की थी। ब्रह्म की नाभि से कमल की उत्पत्ति व अन्य अंगों से ब्राह्मण राजपूत वैश्य शूद्र उत्पन्न होने के पश्चात जब शिब पार्वती विवाह हुआ तब कोरस के रूप में मांगलिक गीत प्रचलन में आये वही गीत माँ नन्दा व शिव के विवाह में भी मांगल के रूप में प्रयोग में लाये गए जिन्हें समूह गान यानि कोरस कहा जाता है जैसे –
क्यो छ याँ बुबाजी निंद सुनिन्दा, तुम्हारी चोराड़ी चोर ऐज्ञेनी।
या फिर-
हमारू बामण काशी पड्यूं छ, तुम्हारो बामण ढेबरा चारांदा हेs।
आज भी निरंतर ये मांगल गीत करोड़ों बर्षों से कोरस के रूप में जीवित है जिनका मृत्यु काल अभी तक निश्चित नहीं हुआ है जबकि गीत संरचना के बाद उसका मृत्युकाल 1000 बर्ष अधिकतम व 20 बर्ष न्यूनतम माना गया है।
शास्त्रों में सतयुग की अवधि 17 लाख 28 हजार वर्ष बतायी गयी है और त्रेता की अवधि 12 लाख 28 हजार। द्वापर युग की अवधि 8 लाख 64 हजार है जो त्रेता से लगभग 4 लाख वर्ष कम है। कलियुग की अवधि द्वापर से ठीक आधी, यानी 4 लाख 32 हजार है। इस हिसाब से तो अगर कलयुग को हटा भी दिया जाय तो बीते तीन युगों की गणना के अनुसार समूह गायन अर्थात कोरस गायन का काल 38,20,000 अर्थात 38 लाख 20 हजार बर्ष द्वापर तक हो गये हैं और अगर कलयुग के अभी तक बीते कुल बर्ष 5125 इसमें और जोड़ दिए जाएँ तो यह काल 38,25,125 का हिन्दू शास्त्रों के अनुसार हो गया है जिसमें वैदिक काल की तो चर्चा ही नहीं है। अब इन्द्र की सभा हो या शिब की बारात यहाँ गाये जाने वाले मंगल गीतों के समूह गायन का युग मेरे हिसाब से 38 लाख 25 हजार 125 पूर्व का है। लेकिन दुर्भाग्य कि हमारे विद्वान लेखकों ने न कभी इस मामले में अपना पक्ष रखा, न चर्चा की और न ही शास्त्र सम्मत शोध ही किया है।
समूह गायन एकल गायन अर्थात गीत गायन से पुराना इसलिए माना जाता है क्योंकि जो गीत सदी पार कर जाते हैं वे गीत नहीं बल्कि लोकगीत कहलाते हैं। और इन्हे गाने वाला व्यक्ति एकल ही होता है लेकिन ऐसा भी देखने को मिला है कि एकल गीत में समूह की पुटबंदी करके कभी कभी ये लोक गीत कालांतर के चलते समूहगीत यानि कोरस में तब्दील हो जाते हैं। इसलिए कोरस को किसी गीत की पुटबंदी मानना सर्वथा गलत है हाँ इसे गीत को श्रृंगारित करने का माध्यम जरूर माना जा सकता है या कहा जा सकता है। समूह गायन युगों युगों से अपने बर्चस्व का परचम लहरा रहा है, यही कारण है कि ट्रेवोर बेलिस और जैक चलोनेर का समूह गायन काल गिना गया है जबकि महर्षि नारद के नारायण नारायण काल व उनके वादयंत्र वीणा से निकलने वाली धुन व उनके बोलों “श्रीमन नारायण नारायण नारायण” का हम एकल गायन न कर सामूहिक गायन करते हैं।
कोरस गायन की प्रक्रिया आज भी सम्पूर्ण विश्व के जनजातीय लोगों में निरंतर चली आ रही है। गढ़वाली जौनसारी व कुमाउनी में भी ये कोरस थड़िया चौंफला बाजूबंद हारुल झैँता, भाभी-जंगू, बाजू, न्यौली, चांचरी, छपेली इत्यादि में निरंतर प्रयोग में लाई जा रही है। इसलिये कोरस को किसी भी गीत का पुछलग्गू मानना सर्वथा निरर्थक है।