विदाकोटी….. जहाँ परित्यगता सीता माता को अंतिम विदाई दी थी बिष्णु अवतारी लक्ष्मण जी ने !
(मनोज इष्टवाल)
यकीन मानिये अब धर्मस्व व पर्यटन की उन नीतियों पर हँसी आती है, जिन्हें लगभग पिछले कई बर्षों से उत्तराखंड पर थोपा तो गया है लेकिन परिणाम शून्य के समान है। पर्यटन एवं धर्मस्व मंत्री सतपाल महाराज ने सम्पूर्ण उत्तराखंड में पर्यटन सर्किट नाम तो दे दिए लेकिन सरकार कितनी ईमानदारी से उन सर्किट पर काम कर पाई है! यह प्रश्न ज्यों का त्यों है। पूर्व मुख्यमंत्री व वर्तमान हरिद्वार विधायक त्रिवेंद्र सिंह रावत के कार्यकाल में गढ़वाल कमीशनर रहे दलीप जवालकर ने पौड़ी गढ़वाल के सीता सर्किट पर तत्कालीन जिलाधिकारी धिराज गर्ब्याल के साथ मिलकर बड़ी कार्ययोजना बनाई भी थी, उस पर उस दौर में कितना कार्य हुआ था, कहा नहीं जा सकता लेकिन इतना तो तय है कि गाहे-बगाहे रामायण सर्किट के तहत सीता सर्किट अखबारों, सोशल व इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में चर्चा का बिषय बना रहता है। सीता सर्किट यकीनन एक ऐसा ट्रैक रुट है जो घूमन्तु पर्यटकों, साहसिक पर्यटन से जुड़े पर्यटकों, धर्मस्व व सियाराम से जुड़े धर्मावलंबियों के लिए एक बेहतरीन पर्यटन सर्किट कहा जा सकता है। इसकी मुख्य कड़ी है विदाकोटी…!
विदाकोटी
ऐसे कई दौर आये जब देवप्रयाग से श्रीनगर लौटते हुए या श्रीनगर से देवप्रयाग जाते हुए अलकनंदा नदी पार इस पैदल मार्ग पर नजर गयी जो कई चचट्टियों को लांघता फांदता बद्री-केदार धाम की तरफ बढ़ता था। एक समय था जब इस स्थान पर सैकड़ों यात्री ठहरते थे। रात्रि-विश्राम के अलावा यहाँ साधू संतों की जमात अलग होती थी तो नृत्य पर मनोरंजन करने वाली नृत्यांगनाओं के नृत्य निहारने वालों की अलग! यह स्थान गंगा तट पर होने के बावजूद भी यात्रा काल में शुद्ध सात्विक भोजन के लिया जाना जाता था और सच कहें तो इसे पहाड़ के लिए पहले बड़े पड़ाव के रूप में जाना जाता था! नाम था विदाकोटि…!
विदाकोटि में यह मंदिर क्यों था? इसका महत्व क्या और क्यों रहा होगा ! यह जिजीविषा हमेशा ह्रदय को अशांत किये रहती थी। हर बार जब यहाँ से सडक मार्ग से गुजरता तो यह निश्चित करता कि अगली बार चाहे कुछ हो जाय में उस उजड़ते वीरान होते गाँव जरुर जाऊंगा और जानूंगा कि यह मंदिर है किसका..! हर बार वहां मंदिर के आस-पास कोई खेत हरा दिख जाता या फिर बैल-बकरी, गाय, मनुष्य दिख जाता तो तसल्ली हो जाती कि चलो अभी वक्त है। कम से कम वहां पहुंचकर थकान मिटाने के लिए एक गिलास पानी, चाय और हो न हो खाना भी मिल ही जाएगा लेकिन आधी उम्र यूँहीं गुजर गयी फिर भी विदाकोटि नहीं जा सका।
फेसबुक पर मित्र बिट्टू प्रधान की डाली हुई फोटो देखी तो बड़ा शुकून मिला क्योंकि फोटो के साथ उन्होंने उसमें कुछ शब्द भी अपडेट किये हुए थे। उन्होंने लिखा- “दिव्य नगरी देवप्रयाग से आगे ऋषिकेश-बद्रीनाथ पैदल मार्ग पर लिए चलते हैं, पौड़ी गढ़वाल के अलकनंदा तटीय क्षेत्र सीता विदा स्थल (विदा कोटि)। यूं तो मैं इस पर पूर्व में भी पोस्ट लिख चुका हूं। पौराणिक कथाओं के अनुसार इसी सीता विदा स्थल से मर्यादा पुरूषोत्तम राजा रामचंद्र जी की बड़ी बहिन शांता ने चुपचाप सीता का पीछा किया था। शांता राजा दशरथ और कौशल्या की पुत्री थी, जिसे कौशल्या की बहिन वर्षिणी एवं उनके पति रोमपद ने गोद लिया था। कहानी लम्बी है । शांता के आज भी भारत वर्ष में मंदिर हैं एक तो कुल्लू हिमांचल में और एक श्रृंगेरी में।”
उन्होंने इसे सीता माता सर्किट से जोड़ने पर लिखा है कि “पौड़ी के माननीय विधायक भाई मुकेश कोली जी के शानदार प्रयास से सीता विदा स्थल (विदा कोटि) सीता माता सर्किट परियोजना का पहला गाॅंव बन रहा है। सीता के साथ शान्ता भी सीतावनस्यूं फलस्वाड़ी तक गयी थी। आज भी दशरथांचल से बहकर शांता नदी के रूप में मोक्षदायिनी भागीरथी में मिलती है और शान्ता मंदिर के लिए एक शिला वहीं से सीतावनस्यूं फलस्वाड़ी लानी है।
यह पोस्ट स्वाभाविक तौर पर शान्तासुखाय की अवधारणा को व्यक्त करती है व स्वाभाविक सी बात है कि शांता गाड़(नदी) जोकि टिहरी जनपद क्षेत्र से बहकर भागीरथी में गिरती है, को हम लोग सिर्फ एक छोटा सा पहाड़ी गदेरा मात्र समझ लेते हैं। सबसे ज्यादा दुःख तो तब होता है कि विद्वानों के शहर देवप्रयाग में इसी शांता गाड़ के किनारे पर सार्वजनिक शौचालय बना दिया जाता है और हम सब चुपचाप ही नहीं रहते बल्कि हगने मूतने भी वहीं चले जाते है। वही मल मूत्र शांता गाड़ से रिस-रिस का अलकनंदा-भागीरथी संगम तक पहुंचता है, जिसकी दूरी बमुश्किल संगम से 200 मीटर ही होगी, जहाँ दुनिया भर के श्रद्धालु गंगा मैय्या के इस पहले व पावन संगम पर हर-हर गंगे करके आत्मा पवित्र हेतु डुबकी लगाते हैं। यह नदी देवप्रयाग बस स्टैंड पर ही स्थित छोटी पुलिया के नीचे से निकलती हुई भागीरथी में समा जाती है।
क्या रघुनाथ मंदिर निर्माण के बाद यहीं से लक्ष्मण वापस लौट गये थे?
प्रश्न अभी भी यह उठता है कि क्या रामचन्द्र जी, माता सीता व लक्ष्मण जी ने रघुनाथ मंदिर का निर्माण किया था क्योंकि केदारखंड में वर्णित श्लोकों के अनुसार पुरुषोत्तम राम द्वारा यहाँ विश्वेश्वर लिंग स्थापना की बात तो लिखी गयी है लेकिन रघुनाथ मंदिर की भी त्रेता में ही स्थापना हुई है, इसके कोई प्रमाण वर्तमान में नहीं मिलते, क्योंकि ऐतिहासिक दृष्टि से इस मंदिर का निर्माण 8वीं सदी में आदिशंकराचार्य द्वारा की गयी है।
रघुनाथ मंदिर भगवान विष्णु को समर्पित 108 दिव्यदेवों में से एक है। रघुनाथ मंदिर में भगवान राम (जो कि विष्णु के अवतार थे) और माता सीता (जो कि देवी लक्ष्मी के अवतार थी) की पूजा की जाती है। माना जाता है कि 8 वीं शताब्दी के दौरान मंदिर गढ़वाल साम्राज्य के बाद के विस्तार के साथ आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित किया गया था। मंदिर मूल रूप से 10 वीं शताब्दी से अस्तित्व में है।
ऐसा भी माना जाता है कि 1835 में, जम्मू और कश्मीर साम्राज्य के संस्थापक महाराजा गुलाब सिंह ने मंदिर की वर्तमान संरचना का निर्माण कार्य आरंभ किया। पर, महाराजा गुलाब सिंह के पुत्र महाराजा रणबीर सिंह ने 1860 में, इस निर्माण कार्य को पूरा किया। मंदिर की भीतरी 3 दीवारों पर सोने की परत लगाई गई है, जिस पर हिंदू भगवान राम और कृष्ण के जीवन के चित्र चित्रित है। मंदिर का निर्माण नागर शैली में हुआ है। मात्र शिखर ही कत्यूरी शैली का है।
आठवीं सदी में आद्य शंकराचार्य के साथ दक्षिण भारत से तिलंग भट्ट ब्राह्मणों देवप्रयाग आगमन हुआ। कहते हैं कि तिलंग ब्राह्मण बदरीनाथ के परंपरागत तीर्थ पुरोहित हैं। 12वीं सदी के संरक्षित ताम्रपत्र के अनुसार पंवार वंश के 37वें वंशज अभय पाल ने तिलंग भट्टों को बदरीनाथ का तीर्थ पुरोहित होने का अधिकार दिया था।
ज्ञात हो कि मंदिर परिसर के एक चबूतरे पर सीमेंट रहित बड़े पत्थरों से निर्मित 80 फीट ऊंचे इस मंदिर का निर्माण काल 1700 से 2000 वर्ष पूर्व का है। कहते हैं कि धारानगरी के पंवार वंश के राजा कनकपाल के पुत्र श्याम पाल (722-782 ईस्वी) के गुरु शंकर ने काष्ठ का प्रयोग कर मंदिर शिखर का निर्माण करवाया था।
पंवार वंशी राजाओं के लिए शापित था रघुनाथ मन्दिर!
वर्ष 1785 में पंवार राजा जयकृत सिंह ने देवप्रयाग के रघुनाथ मंदिर में अपनी जान दे दी थी। माना जाता है कि राजा की चार रानियां भी यहां सती हो गईं, जिन्हें रानी सती मंदिर समर्पित है। माना जाता है कि उन्होंने पंवार वंश को शापित कर दिया था। जिस कारण आज भी पंवार वंश की कोई सदस्य मंदिर की ओर नहीं झांकता। पूर्व में भी जब राजा देवप्रयाग आते थे तो मंदिर को पूरी तरह ढक दिया जाता था। मंदिर के ठीक पीछे मौजूद शिलालेखों पर ब्राह्मी लिपि में 19 लोगों के नाम खुदे हैं, जिनके बारे में कहा जाता है कि स्वर्ग की प्राप्ति के लिए उन्होंने यहां संगम पर जल-समाधि ले ली थी।
माना जाता है कि भगवान राम ने रावण की हत्या की थी। रावण एक ब्रह्माण था। इसलिए भगवान राम ने एक ब्रह्माण की हत्या का पश्चाताप करने के लिए इस स्थान पर तपस्या की थी।
यत्र ने जान्हवीं साक्षादल कनदा समन्विता।
यत्र सम: स्वयं साक्षात्स सीतश्च सलक्ष्मण।।
सममनेन तीर्थेन भूतो न भविष्यति।
(केदारखंड) अध्याय 139-35-55
जहां गंगा जी का अलकनन्दा से संगम हुआ है और सीता-लक्ष्मण सहित श्री रामचन्द्र जी निवास करते हैं। देवप्रयाग के उस तीर्थ के समान न तो कोई तीर्थ हुआ और न होगा।
इत्युक्ता भगवन्नाम तस्यो देवप्रयाग के।
लक्ष्मणेन सहभ्राता सीतयासह पार्वती।।
राम भूत्वा महाभाग गतो देवप्रयागके।
विश्वेश्वरे शिवे स्थाप्य पूजियित्वा यथाविधि।।
केदारखण्ड (अध्याय 158-54-55 व अध्याय 162-50) में भी रामचन्द्र जी, सीताजी व लक्ष्मण जी सहित देवप्रयाग आने का उल्लेख है। साथ ही रामचन्द्र जी के देवप्रयाग आने और विश्वेश्वर लिंग की स्थापना करने का उल्लेख है।
विदाकोटि/सीतासैण!
देवप्रयाग-श्रीनगर राष्ट्रीय राजमार्ग देवप्रयाग से लगभग साढ़े तीन मील दूरी पर अलकनंदा पार पौड़ी क्षेत्र में सीताकोटि (सीतासैण) व विदाकोटि नामक दो पौराणिक स्थान हैं, जहाँ सीता कुटी में सीता जी का प्राचीन मंदिर है। अगर किंवदन्तियों व लोकमान्यताओं को माना जाय तो पुरुषोत्तम श्री राम के आदेश पर लक्ष्मण जी ने विदाकोटि नामक (पौड़ी क्षेत्र) वन्य क्षेत्र में माँ सीता को छोड़ा था। और विदाकोटि में माँ सीताके मंदिर की स्थापना कर वापस अयोध्या लौट आये थे। विदाकोटि से कुछ ही दूरी पर सीतासैण नामक स्थान माँ सीता ने अपने लिए कुटिया बनाई थी जिस सीता कोटि या सीता कुटी के नाम से आज भी स्थानीय लोग पुकारते।
कहा जाता है कि कालान्तर में विदाकोटि से माता जानकी की मूर्ती मुछयाली गाँव के लोग अपने गाँव ले गए थे जिसकी आज भी गाँव में विधिवत पूजा होती है। मुछियाली गांव से 3 मील ऊपर सीतावनस्यूं की ओर सल्ड गांव में भी सीता जी का प्राचीन मंदिर है। सल्ड गांव से लगभग 4 से 5 मील आगे एक परम रमणीक समतल उपत्यका है, जिसका नाम सीता जी के नाम पर सीतावनस्यूं है। सीतावनस्यूं के फलस्वाड़ी गाँव को ही जगतजननी सीता माता ने अपना अंतिम बसेरा बनाया था व यहीं श्रीराम के सतित्व की परीक्षा में माता सीता धरती में समा गयी थी! देवप्रयाग व विदाकोटी का वर्णन तमिल भाषा के पाशुर (पंवाडों) में भी मिलता है, ऐसी लोकमान्यता है!
कैसे पहुंचेंगे विदाकोटि।
ऋषिकेश श्रीनगर राष्ट्रीय राजमार्ग पर ऋषिकेश से लगभग 70 किमी. दूरी पर देवप्रयाग स्थित है। देवप्रयाग से पूर्व पेट्रोलपम्प पार करते ही ढलान शुरू होने के लगभग डेढ़ सौ मीटर आगे एक रोड दांयीं ओर मुडती हुई ठीक गंगा की ओर लपकती दिखाई देती है। यह देवप्रयाग पौड़ी सड़कमार्ग है। इस मोड़ से लगभग दो किमी दूरी पर गंगा पुल पार करके एक यात्री स्टैंड है, जहाँ से दाहिनी ओर पौड़ी के लिए रास्ता कट जाता है व बांयी ओर मुड़ते हुए आप रामकुंड होकर पौड़ी क्षेत्र के पुराने देवप्रयाग के छोटे से बाजार में प्रवेश करते हैं, जहाँ अलकनंदा पर झूला पुल बना है। कालान्तर में ढाकरियों के लिए यहाँ एक रस्सियों पर चलने वाला झूला पुल हुआ करता था। पुल पार करते ही आप टिहरी जिले में प्रवेश कर अलकनंदा भागीरथी संगम से बनी गंगा माँ के पावन घाट पर पहुँचते हैं! लेकिन आपने टिहरी में प्रवेश नहीं करना बल्कि अलकनंदा को अपने बांयें छोर पर छोड़ते हुए पौड़ी क्षेत्र के पुराने डाकघर को पार करते हुए अपनी गाडी से लगभग 4 किमी. यात्रा करनी है! व सडक मार्ग के अंतिम छोर पर गाडी खड़ी करके आप आसानी से एक डेढ़ किमी. पैदल चलकर विदाकोटि पहुँच सकते हैं।
अगर आप श्रीनगर से देवप्रयाग की ओर बढ़ रहे हैं तो बग्वानु बाजार पार करते ही आप एक तीखा ढाल उतरते हुए कोल्टा झूला पुल पर पहुँचते हैं। यहीं अपना वाहन पार्क करके आप झूला पुल पार कर दाहिनी ओर मुड़ जाइए जहाँ से लगभग दो से ढाई किमी. पैदल यात्रा कर आप सीतासैण होते हुए विदाकोटि पहुँचते हैं।
वर्तमान उत्तराखंड सरकार द्वारा धार्मिक पर्यटन की दृष्टि से इसे महत्वपूर्ण मानते हुए सीता सर्किट में शामिल किया है । जल्दी ही यह स्थान फिर सरसब्ज होगा ऐसी आशा है।