देहरादून (हि. डिस्कवर)
विभिन्न मोर्चों पर अपनी लड़ाई खुद लड़ने वाली उत्तराखंड की एकमात्र ऐसी नाट्यकर्मी जो एकला चलो…! वाले फॉर्मूले के आधार पर ऐसे अविश्वसनीय कथानकों को धरातल में उतारने की महारथी कही जाती है, जिन्हें टीम वर्क के साथ करने में भी बेहद झंझटों का सामना करना पड़ता है। वसुंधरा नेगी ने जब “वीरांगना तीलू रौतेली” को सर्वप्रथम उत्तराखंड की राजधानी देहरादून के टाउन हॉल में नाट्य मंचन के लिए धरातल पर उतारा था तब किसी को उम्मीद नहीं थी कि यह छरहरी काया की महिला इतना बड़ा जोखिम लेकर तीलू जैसे गम्भीर किरदार को साकार कर पायेगी।
यही जोखिम फिर उन्होंने तीलू रौतेली के पैतृक गांव में उठाया व पूरे क्षेत्र में स्टार बन गयी। लेकिन कुछ काल तक उन्हें फिर इन्हीं झंझावतों में उलझे पाया कि मैं जो कर रही हूं बदले में समाज शाबाशी तो दे रहा है लेकिन उनके कथानकों की चोरी भी हो रही है। ऐसे में उन्हें भला यह कौन समझाता कि ऐतिहासिक वृत्तांतों पर सर्वाधिकार किसी एक का नहीं होता उसे दूसरा भी अपने हिसाब से प्रस्तुत कर सकता है। हां… यह जरूर हो सकता है कि आपके टाइटल व पटकथा को हू ब हू कोई नकल कर आपकी बिना अनुमति के प्रस्तुत नहीं कर सकता। जैसे अब टिंचरी माई है।
2017 में “वीरांगना तीलू रौतेली” मंचन के बाद अब नाट्यकर्मी पटकथा लेखिका व निर्देशक वसुंधरा नेगी आगामी 11 सितंबर को देहरादून के टाउन हॉल में “टिंचरी माई” नाट्य मंचन कर रही हैं। जिसमें उम्मीद की जा रही है कि इस नाटक को देखने के लिए बड़ी संख्या में लोग पहुंचने वाले हैं। तो आइए जानते हैं टिंचरी माई को साकार करने के लिए वसुंधरा की पटकथा में क्या कुछ हो सकता है।
पौड़ी में टिंचरी की दुकान फूंकने के बाद कहलाई वह टिंचरी माई। दीपा देवी के संघर्ष की वह अनूठी गाथा…!
(मनोज इष्टवाल 28/11/2021)
11 नवम्बर 1914 ग्राम मंज्युर जन्म में जन्मी ठगुलि उर्फ़ ठंगुलि उर्फ़ दीपा नौटियाल उर्फ इच्छाधारी माई उर्फ टिंचरी माई। मृत्यु 20 जून 1992 सिग्गड्डी, झंडी चौड़ कोटद्वार।
(फोटो- कुलदीप रावत व सुनीता नेगी स्केच)
बस…. सिर्फ इतना ही परिचय होता तो मान लेते कि एक महिला विभिन्न नामों के साथ जीने के बाद स्वर्ग सिधार गयी लेकिन यह कहानी एक ऐसी सशख़्त पहाड़ी नारी की है जिसने कष्टों के हिमालय के आगे कभी हार नहीं मानी।
जिस उम्र में एक महिला अपनी तरुणी उम्र के वाकपन से गुजरती हुई भँवरे की तरह अपनी अल्हड़ता व चपलता से मन मोह लेना चाहती है उस उम्र में ही कोई महिला काल के विकराल हाथों से विधवा बन जाय और सामाजिक तृस्कार से बाल मुंडवाकर गेरुवे वस्त्र धारण कर जोगन बन जाय तब हमें ऐसी महिला के लिए क्या सोचना चाहिए।
अविरल संघर्ष की प्रतिमूर्ति कही जाने वाली टिंचरी माई का इतिहास आज भले ही बहुत कम लोग जानते हों लेकिन कोई यह नहीं जानता कि ठगुलि उर्फ़ ठंगुलि उर्फ़ दीपा नौटियाल उर्फ़ श्रीमती दीपा नवानी उर्फ इच्छाधारी माई उर्फ टिंचरी माई तक का उनका सफर कितना कष्टपूर्ण रहा होगा।
यहां टिंचरी माई के बारे में अलग – अलग भ्रांतियां हैं।
कुछ प्रबुद्ध व्यक्तियों का मानना है कि टिंचरी माई को ससुराल में बड़ी प्रताड़नाएं झेलनी पड़ी, इसलिए उन्होंने सन्यास लिया तो कुछ का कहना है कि टिंचरी माई का विवाह 17 साल की उम्र में हुआ व वह तीन बच्चों की माँ बनी व 23 साल में विधवा हुई। यह आंकड़े निराधार हैं क्योंकि इसकी पड़ताल के लिए मैंने उनकी ससुराल गवाणी गांव पौड़ी गढ़वाल के उन्ही के परिवार के पोते बिनसर पब्लिकेशन के पब्लिशर्स कीर्ति नवानी जी से जानकारी जुटाई। उन्होंने कहा कि वह इस पर एक उपन्यास के रूप में संस्मरण अपने पब्लिकेशन से प्रकाशित कर चुके हैं, जिसमें कलेवर के लिए कुछ काल्पनिकता का पुट भी मौजूद है। उन्होंने बताया कि शायद “धाद” प्रकाशन उन पर पूर्व में कुछ छाप चुका है, इसलिए मैंने “धाद” के संरक्षक लोकेश नवानी जी से भी इस सम्बंध में बात करनी चाही लेकिन उनका फोन नहीं उठा।
बहरहाल कीर्ति नवानी के अनुसार उनके दादा जी स्व. साधुराम नवानी के चार भाई और थे जिनमें एक दादाजी के बेटे लखनऊ बस गये व दूसरे सहारनपुर में । सबसे बड़े उनके दादा जी साधुराम फिर लीला नन्द फिर गणेश राम व शिवराम हुए, एक दादा का नाम उन्हें भी ज्ञात नहीं है। दो दादाओं की पुत्रियां ही हुई, जबकि उनके मंझले दादा जी गणेशराम नवानी व दादी दीपा देवी से एक पुत्र जन्मा जिसकी अल्पायु में ही मृत्यु हो गयी। इस जानकारी से यह तो साफ हो गया कि दीपा देवी उम्र टिंचरी माई से तीन औलादों ने जन्म नहीं लिया।
सत्यता।
मूलतः टिंचरी माई के बारे में जो जानकारी सत्यता के करीब है तो वह यह है कि उनका बचपन का नाम “ठगुलि” था। उनका जन्म चोपड़ा-चौथान के मंज्यूर गांव के नौटियाल जाति वंशज में हुआ। उनके जन्म के दो बर्ष बाद उनकी माँ गुजर गई। 09 साल की ठगुली अर्थात दीपा देवी उम्र में उनका विवाह गवानी गांव के गणेशराम नवानी से हुआ जो तब ब्रिटिश फौज में कार्यरत थे। 19 बर्ष की अवस्था में पति की चेचक से मृत्यु जब हुई तब उनकी कोख में एक बच्चा था जिसके जन्म के लगभग डेढ़ दो बर्ष पश्चात उसकी भी अल्पायु में मौत हो गयी। दीपा देवी पति की मौत के बाद जिस सहारे के सहारे जिंदगी काटने की सोच रही थी उसे भी विधाता ने छीन लिया। भाग्य रेखाओं में उनके लिए कुछ और ही लिखा था। 23 बर्ष की उम्र में उनके साँसारिक माया मोह से विरक्ति हुई और एक दिन वह गंगा घाट हरिद्वार आई पति व बेटे का तर्पण किया व हर की पैड़ी में स्नान कर किसी आश्रम में बाल मुंडवाकर जोगन बन बैठी। नाम मिला इच्छागिरी माई….!
इच्छागिरी माई कैसे टिंचरी माई बनी।
वहीं कोटद्वार निवासी डॉ ईश मोहन नैथानी लिखते हैं कि टिंचरी माई पति अफगान फ्रंट में शहीद हो गए 23 वर्षीय विधवा के तीन पुत्र चेचक की महामारी में काल के गाल में समा गए।
परम्परा अनुसार इस 23 वर्षीय विधवा ने पति के नाम पर उम्र काटने का निर्णय लिया। किन्तु हाय रे समाज बुरी नजर रखने वालों ने उसके सौदर्य को कुचलने के न जाने कितने प्रयास किये किन्तु ठंगुली थी कि सब कुछ छोड़ हरिद्वार जा पहुंची और सर मुंडवा दिया जोगन हो गयी लेकिन वाह रे हमारी धर्म नगरी उसका सौन्दर्य वहां भी उसका दुश्मन बना और एक-एक से बड़े मठाधीश उसको अपने आश्रम में रखने के लिए मरने मिटने लगे।
अब उसके जीवन ने करवट ली। उन्होंने सोचा कि मेरा अनपद रहना मेरे जीवन का अभिशाप बन गया और तभी प्रतिज्ञा की कि मैं कन्या विद्यालय खोलूंगी ताकि मेरी तरह कोई महिला अनपढ़ न रहे।
ठंगुली पहुँच गयी झंडी चौड़ (कोटद्वार) वहां पाने की परेशानी थी। अब उसका सामाजिक जीवन शुरू होता है पेय जल समस्या को दूर करने के लिए उसने संघर्ष किया कमिश्नर और पंडित नेहरू तक पहुंची और गोविन्द बल्लभ पन्त ने सीधे झंडी चौड़ में पेय जल की व्यवस्था करवाए
अपने पति की पेंशन से मोटाढाक में पहली कन्याविद्यालय की स्थापना , कन्या भ्रूण ह्त्या का विरोध , उस समय ही पलायन का विरोध और शराब बंदी के आन्दोलन में सक्रीय भूमिका के कारण नाम पडा *टिंचरी माई* 1954 में जोशी जी द्वारा आहूत पृथक पर्वतीय राज्य उत्तराखंड की मांग करने वाली पहली महिला नेत्री रही और घर घर जा कर *उत्तराखंड* राज्य की अलख जगाने वाली उस विराट व्यक्तित्व की स्वामिनी ठंगुली ने 20/06/ 1992 को कोटद्वार में ही अंतिम सांस ली।
एक थी टिंचरी माई। (वीणा पाणी जोशी)
स्थानीय बोली में टिंचरी कहलाई जाने वाली कच्ची शराब की भट्टियों को तोड़ने का बीड़ा इस माई ने उठाया। नशे की लत में डूबे और घर-परिवार से बेपरवाह पुरुषों की बरबादी से खींच कर लाने की कोशिश की। पौड़ी गढ़वाल ज़िले के मंज्यूर गांव में जन्मीं टिंचरी माई का असली नाम था दीपा देवी। मायके से असहाय, ससुराल से तिरस्कृत दीपा देवी की कहानी अंग्रेज़ी हुकूमत के दौर में शुरू हुई, पति पल्टन में थे। युद्द में नहीं रहे तो 19 साल की दीपा दुनिया में अकेली रह गई।
वह लाहौर चली गई अकेली….! एक संन्यासिनी से दीक्षा ली और इच्छागिरी माई बन गई। देश आजाद हो चुका था। 1947 में दंगों के बीच अपनी गुरू के साथ उसे हरिद्वार आना पड़ा। वहां धर्म के नाम पर छल-कपट और साधु के भेष में अधर्मियों को देखा। वितृष्णा हुई तो पहाड़ लौट गई। सिगड्डी भाबर इलाके में रहने लगीं। वहां पानी की घोर समस्या थी। माई एक दिन उठी, डिप्टी कलेक्टर से मिली। कुछ नहीं हुआ तो
सीधे दिल्ली पहुंची। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के फाटक पर धरना दे दिया। गाड़ी के सामने खड़ी हो गई, नेहरू बाबा को बोली, बोल पानी देगा या नहीं। नेहरू का हाथ पकड़ लिया. बुखार से तपती माई को पहले नेहरू ने अस्पताल भिजवाया फिर कुछ समय बाद इलाके में पानी भी आ गया। कोटद्वार के पास स्कूल नहीं था। माई ने ईंट पत्थर जोड़ना शुरू कर दिया, न जाने कहां कहां से इकट्ठा कर एक दिन खाली मैदान पर जमा करना शुरू कर दिया। कोटद्वार उन दिनों बिजनौर जिले में आता था, जिलाधिकारी सकपकाए, माई का नाम था सो टाल नहीं सकते थे, स्कूल खड़ा हो गया।
फक्कड़ माई बदरीनाथ और केदारनाथ चली गई। वहां कुछ समय रहने के बाद पौड़ी लौट आई। वहां एक दिन डाकखाने के पास सुस्ता रही थी, सामने टिंचरी की दुकान थी। एक शराबी लड़खड़ाता हुआ निकला, गालियां बकता हुआ फिर अचेत होकर गिर पड़ा। माई ने देखा। सीधे पहुंची डिप्टी कमिश्नर के पास। उसे कहा, चल अभी.. . अधिकारी पहुंचा। माई ने कहा टिंचरी नहीं बिकने दूंगी, इस दुकान में आग लगाऊंगी। जेल भेजना है तो भेज दे, मुझे परवाह नहीं। अधिकारी चले गए। माई सचमुच माचिस की डिबिया और तेल ले आई, दुकान के अंदर घुस गई। टिंचरी पी रहे लोग डर के मारे भाग खड़े हुए। माई ने वहां आग लगा दी।
दुकान स्वाहा हो गई, माई सीधे अधिकारी के पास पहुंची। दुकान फूंक दी है, जेल भेजना है तो भेज। ख़बर आग की तरह फैल गई थी। लोग खासकर महिलाएं खुश थीं और हैरान थीं कि टिंचरी की दुकान माई ने जला दी। तबसे उसका नाम पड़ा…. टिंचरी माई। एक ऐसी देहाती औरत जो अंगूठा टेक थी लेकिन उसने गढ़वाल में जागरुकता और जनकल्याण की अलख जगा दी थी।
इतनी अद्भुत सक्रियता वाली टिंचरी माई की दास्तान सुनकर लगता है कि क्या ऐसी बेजोड़ और अपनी ज़िद की पक्की महिला कोई रही होगी, ऐसे धर्मभीरू और पुरुष प्रधान समाज में…..! 1992 में टिंचरी माई नहीं रही।
सत्य व प्रमाणिकता।
श्रीमती दीपा देवी नवानी यानि टिंचरी माई विवाह के बाद बर्षों अपने पति गणेश राम नवानी के साथ लाहौर रही हैं। चेचक से पति की मौत के बाद ही वह लाहौर से लौटी थी ऐसा क्षेत्रवासियों का मानना है। उसके बाद उनके संघर्ष की अनूठी कहानी सामने आती है क्योंकि वह बर्षों लैंसडौन भी सन्यासिनी के रूप में रही हैं।
लोकेश नवानी जी का फोन।
लेख खत्म होते ही लोकेश नवानी जी का पलटकर फोन आया और मैने इस संदर्भ में अपनी मंशा साफ की उन्होंने बताया कि उनके दादा जी सबसे बड़े थे । दूसरे नम्बर के स्व. लीला नंद, तीसरे नम्बर के लखनऊ वाले चौथे नम्बर के गणेशराम व पांचवें नम्बर के सहारनपुर वाले। फिर बोले- कि “धाद” उनके जीवन वृत पर डॉक्यूमेंट्री बना रही है। जिसका जल्दी ही शोधकार्य पूरा हो जाएगा।
वसुंधरा नेगी व टिंचरी माई।
रंगकर्मी वसुंधरा नेगी ने टिंचरी माई पर रिसर्च करना क्या शुरू किया वह स्वयं टिंचरी माई बन बैठी, मानों टिंचरी माई की आत्मा उसके मायके मंज्यूर पहुँक गयी हो। जब से वसुंधरा नेगी टिंचरी माई के मायके से लौटकर आई थी तब से उनकी जुबान पर बात बेबात टिंचरी माई का नाम उभरने लगता है। वह जब भी मिलती हैं कहती – इष्टवाल जी, इस कंसेप्ट लीक मत करना। क्योंकि इस पर बेहद विश्वास के साथ मैं आपसे चर्चा कर रही हूं। जिस दिन में टिंचरी माई को रंगमंच के पटल पर लाऊंगी तब देखना क्या कुछ नया धमाल सामने आएगा। मैंने भी पूरी ईमानदारी से उस शोध के साथ अपने व्यक्तिगत शोध का महत्वपूर्ण हिस्सा इसमें सम्मिलित करना उचित नहीं समझा क्योंकि इसमें वसुंधरा नेगी ने बर्षों खर्च किये हैं।
यह सब तो ठीक हुआ लेकिन कुछ दिन पूर्व वसुंधरा नेगी की सोशल साइट पर अपडेट फोटो देखकर मन विचलित हो गया। उसने बाल मुंडवाकर गहरुवे वस्त्र तक धारण कर दिये। क्या वसुंधरा के अंदर टिंचरी माई का पश्वा या भूत समा गया है या फिर….!