Saturday, September 7, 2024
Homeउत्तराखंडवंशेश्वर महादेव..! जहां बांस के झुरमुट में जन्में शिबरूप ने बढाया डाबर...

वंशेश्वर महादेव..! जहां बांस के झुरमुट में जन्में शिबरूप ने बढाया डाबर गांव के डबराल जातकों का वंशवृक्ष।

(मनोज इष्टवाल)

एक समय था जब तंत्र मंत्र योग साधना व विभिन्न अनुष्ठानों के लिए डबरालस्यूँ के डबराल वंशजों का पूरे गढ़वाल मंडल में बड़ा नाम हुआ करता था। डाबर गांव से विभिन्न क्षेत्रों में फैले डबराल पंडितों के कारण इस पट्टी का नाम ही डबरालस्यूँ पड़ गया। ढौंरी, तिमली व डाबर फिंगर टिप्स में नाम लिये जाने वाले निम्न हिमालयी क्षेत्र के ऐसे गांव हुए जहां जन्मे डबराल जातक अपनी बुद्धिजीवी प्रकृति के कारण देश के छोटे बड़े संस्थानों में कालांतर में अपना नाम रोशन करते रहे। यही कारण भी हुआ कि यमकेश्वर विधान सभा क्षेत्र के डबरालों का रुतबा एक सदी से दूसरी सदी तक निरन्तर बरकरार रहा।

सुप्रसिद्ध इतिहासकार डॉ शिबप्रसाद डबराल ‘चारण’ भी यहीं से निकलकर उत्तराखण्ड के मूर्धन्य इतिहासकारों में शामिल हुए जिन्होंने उत्तराखण्ड के इतिहास पर दो दर्जन से अधिक पुस्तकें लिखी व आज के इतिहासकारों के लिए ये पुस्तकें ऐतिहासिक परिदृश्य में बेहद दुर्लभ हैं जिन्हें एकत्र करना उनका एकमात्र मकसद होता है। कालांतर में डॉ डबराल दुग्गड्डा के नजदीक गांव में आ बसे।

डॉ शिबप्रसाद डबराल “चारण” अपनी वंशवृद्धि मूलतः चौदहवीं सदी के अंतिम बर्षों से प्रारम्भ मानते हुए वंशेश्वर महादेव के डाबर स्थित मंदिर का बर्णन करते हुए लिखते हैं कि सिद्धपीठ श्री वंशेश्वर महादेव मंदिर पौड़ी जिले के द्वारीखाल ब्लॉक की डबरालस्यूँ पट्टी में देवीखेत से 3 किमी नीचे डाबर, तिमली व ढौंरी गाँवों के मध्य सुरम्य स्थान पर स्थित है। इस दक्षिणमुखी शिव मंदिर के गर्भगृह में स्वयंभू स्व उत्पन्न शिवलिंग स्थित है। मंदिर परिसर के बाहर एक यज्ञशाला व उच्च प्रजाति के बाँस का झुरमुट है।

यहां तक पहुँचने के लिए आपको सड़क मार्ग से कोटद्वार से दुग्गड्डा-गुमखाल-चैलुसैंण होकर देवीखेत आना होगा, जबकि पौड़ी से सतपुली -गुमखाल-द्वारीखाल- चैलुसैंण होकर आप देवीखेत पहुंच सकते हैं। वहीं देहरादून से ऋषिकेश होकर नीलकंठ मार्ग होते हुए गरुड़ चट्टी-मोहन चट्टी- गैंडखाल- सिलोगी-मस्टखाल होते हुए लगभग 75 से 77 किमी की यात्रा कर पहुंच सकते हैं।

बताया जाता है कि वंशेश्वर महादेव दक्षिणाभिमुखी मंदिर के गर्भगृह का निर्माण का शुभारंभ 19 वीं शताब्दी के अंत अर्थात 1880 के आसपास तिमली गाँव के सिद्ध तांत्रिक पंडित दामोदर डबराल ने स्थानीय लोगों के सहयोग से कराया था। इस से पूर्व यहां एक छोटा सा मंदिर हुआ करता था। इस मंदिर के निर्माण में तरासे गए पाषाण शिलाओं (कटवा पत्थर) के अलावा किसी अन्य सामग्री का प्रयोग नहीं किया गया जो वास्तुकला का अद्भुत नमूना है। इस मंदिर के निर्माण में लगी प्रत्येक शिला 108 बार गायत्री मंत्र द्वारा अभिमंत्रित करके स्थापित की गई है।

इस मंदिर के मुख्य पुजारी भी डबराल वंशज ही हैं जबकि वंशेश्वर मंदिर के द्वारपाल नन्दा नेगी हैं। मंदिर में प्रवेश से पूर्व द्वारपाल के सम्मान की विशेष परंपरा है। द्वारपाल की अनुमति से ही मंदिर में प्रवेश करने एवं भोग लगाने की परंपरा है। भोग लगाते समय नंदा नेगी द्वारपाल के रूप में बिठाए जाते हैं; इस विधि विधान से पूजा इच्छित फलदाई मानी गई है।

जनश्रुतियों, किंवदंतियों व डा0 चारण के शोधपरक लेखों के अनुसार मंदिर का पौराणिक इतिहास डबराल वंश के साथ -साथ चलता है। डबराल वंश के आदि पुरुष पंडित रघुनाथ जो एक दक्षिण महाराष्ट्रियन ब्राह्मण थे। चार वेद व अट्ठारह पुराणों के ज्ञाता होने के साथ -साथ परम शिव भक्त भी थे। कहा जाता है कि अपने आध्यात्मिक गुरू से दीक्षा के उपरांत वे सन्यास आश्रम का पालन करने के लिए तीर्थाटन के लिए निकल पड़े। पिता की वृद्धावस्था देखते हुए कनिष्ठ पुत्र विश्वनाथ ने भी पिता की सेवा करने के लिए तीर्थाटन का व्रत ले लिया। दस वर्ष तक तमाम तीर्थों का दर्शन लाभ करते हुए सन 1375 में वे दोनों केदारखण्ड के प्रवेश द्वार हरिद्वार पहुँचे।

बताया जाता है कि दो वर्ष तक उन्होंने केदारखण्ड के विभिन्न मंदिरों व तीर्थों का भ्रमण किया। सन 1377 में वे तीर्थाटन का पुण्य अर्जित कर हिमालय क्षेत्र में ऋषियों व तपस्वियों से भेंट करते हुए गंगा अलकनंदा के संगम देवप्रयाग पहुँचे। वहाँ स्नान के बाद वे देव प्रयाग से चैलूसैण होते हुए उस स्थान पर पहुँचे जहाँ आज वंशेश्वर महादेव का मंदिर है।

उस समय यह स्थान निर्जन था तथा बांझ, बुरांस के घने जंगलों से आच्छादित था। श्रावण मास के उस दिन भारी वर्षा के कारण वे आगे की यात्रा न कर सके व वहीं एक गुफा में रात्रि विश्राम के लिए रुक गए। पंडित रघुनाथ जी ने अपने पुत्र को गुफा के अंदर विश्राम करने को कहा व स्वयं शिव स्तुति करने लगे। कहते हैं अर्धरात्रि में उन्हें शिव दर्शन की अनुभूति हुई जिससे उन्होंने इसी स्थान पर अपनी तीर्थ यात्रा को विराम देने का मन बना लिया। सुबह होने पर पंडित रघुनाथ ने अपने पुत्र को शिव दर्शन की अनुभूति होने की बात बताई व इस स्थान को शिव स्थान मानते हुए इसके निकट ही निवास के लिए उपयुक्त कुटिया बनाने की सलाह दी। आज्ञाकारी पुत्र जब नीचे की तरफ उपयुक्त स्थान देखने गए तो उन्हें वहाँ जलस्रोत व कुछ समतल भूमि दिखाई दी जहाँ आज डाबर गाँव है,  उन्हें नदी के पार दूसरी पहाड़ी पर कुछ लोगों का रहने का भी अंदेशा हुआ। यह खबर लेकर जब विश्वनाथ पिता के पास पहुँचे तो उन्होंने देखा कि पं. रघुनाथ बाँस की लाठी के सहारे ही ध्यानावस्था में ज्यों का त्यों अपना नश्वर शरीर त्याग कर स्वर्ग लोक को प्रस्थान कर चुके थे।

पिता का हिंवल नदी के तट पर अंतिम संस्कार करने के बाद पंडित विश्वनाथ पिता की इच्छा मान उसी स्थान पर बस गए जो आज डाबर गाँव बन गया है। कुछ समय बाद उन्होंने हिंवल नदी के पार के गांव से ही विवाह कर लिया। गृहस्थ जीवन में प्रवेश के बाद एक दिन उनके स्वप्न में पिता ने आकर बताया कि जिस बाँस की लाठी के सहारे उन्होंने ध्यानावस्था में शरीर त्याग किया था उसमें जीवन का संचार हो गया है तथा वह हरी हो गई है। उसके पास ही केदारांश के रूप में एक सुंदर शिवलिंग की उत्पति हो गई है। तुम सपत्नीक यदि नित्य शिवलिंग पर जलाभिषेक करते रहोगे तो तुम्हारे वंश की बृद्धि होगी। दूसरे दिन जब वे पत्नी के साथ वहाँ पहुँचे तो आश्चर्य चकित हो गए कि सच में बाँस की सूखी लाठी हरी हो चुकी थी व उस पर कौपलें फूट आई थी। पास ही सुंदर शिवलिंग भी नजर आ रहा था। इसे दैविक घटना मान व स्वप्न में पिता की दी आज्ञा अनुसार वे नित्य शिवलिंग पर जलाभिषेक करने लगे तथा पिता की लाठी को श्रद्धा स्वरूप बाँस देवता पुकार पूजा करने लगे। यही परंपरा आगे की पीढ़ियों ने भी अपनाई व वंश वृद्धि होती रही। डाबर गाँव के निवासी होने के कारण वे डबराल कहलाऐ। धीरे-धीरे डबरालों के कई गाँव बस गए तब सावन के अंतिम सोमवार व शिवरात्रि को सभी गांवों से डबराल वहाँ आकर चावल व दूध की खीर व कुछ लोग जो आटा दूध लाते थे उसकी लबसी बना कर महादेव को भोग लगाते व उसे ही प्रसाद स्वरूप ग्रहण करते थे। इतना समय बीतने पर आज भी इसी तरह मंदिर में भोग लगाया जाता है।

डाबर शब्द की उत्पत्ति ?

मूलतः डाबर शब्द दाबड का अपभ्रंश कहा जा सकता है। ऐसे कई स्थान पुराणों में वर्णित हैं जैसे सत्पुत्रि को सतपुली व वामघाट को बांघाट, बिल्वक्षेत्र को बिलखेत और दक्षस्थल को दैशण नाम कालांतर में दिया गया । दाबड़ का यदि अंग्रेजी अनुवाद किया गया तो उसे Pressure कहा जाता है और हिंदी में इसे प्रकाश पुंज, ओज या उर्जास्रोत कहा जाता है। स्वाभाविक तौर पर यहां शिब दर्शन हुए होंगे इसलिये ज्ञान के अतुलनीय भंडार पंडित रघुनाथ या उनके पुत्र विश्वनाथ ने इस स्थान का नाम दाबड रखा होगा जो अपभ्रंश होकर डाबर हो गया। (मनोज इष्टवाल)

वंशेश्वर महादेव भक्तों के हितकारी व सर्वकष्ट हारक हैं। जो भी मन से समर्पित होकर दर्शनों को जाता है उसकी मनोकामना अवश्य पूरी होती है और वह फिर बार-बार उनके दर्शनों का मोह नहीं त्याग पाता।

सन्दर्भ स्रोत-डॉ शिबप्रसाद डबराल “चारण”
सतीश डबराल (Dabral Pariwar Around The World)

Himalayan Discover
Himalayan Discoverhttps://himalayandiscover.com
35 बर्षों से पत्रकारिता के प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक व सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, पर्यटन, धर्म-संस्कृति सहित तमाम उन मुद्दों को बेबाकी से उठाना जो विश्व भर में लोक समाज, लोक संस्कृति व आम जनमानस के लिए लाभप्रद हो व हर उस सकारात्मक पहलु की बात करना जो सर्व जन सुखाय: सर्व जन हिताय हो.
RELATED ARTICLES

ADVERTISEMENT