ढ़ोल सागर पर सौ साल पूर्व मुद्रित थी दो पुस्तकें। फिर भी क्यों नहीं लिखा जा सका सम्पूर्ण ढ़ोल सागर?
(मनोज इष्टवाल)
क्या आपने भी सुना है कि किसी लकड़ी या धातु का भी कोई गोत्र होता है? नक्षत्र होता है? अच्छा ये सब छोड़िये क्या हम बता सकते हैं कि किसी चमड़े का, धातु का, लकड़ी का, डोरी का कोई गोत्र होता है या वह सजीव होती है? क्योंकि जब उसकी कोई कुंडली ही नहीं है तो फिर उसके गोत्र नक्षत्र कैसे? फिर एक निर्जीव ढ़ोल में कहाँ और किसने प्राण फूंक दिए? आखिर क्यों ढ़ोल की जन्म कुंडली बनाई गई उसके गृह नक्षत्र माने गये? यह सब सुनकर ही दिमाग चक्करघिन्नी बन जाता है क्योंकि मेरे हिसाब से ढ़ोल निर्जीव या मृत शरीर का नहीं है बल्कि उसमें भी प्राण हैं। आप प्रश्न करोगे कैसे? और इस कैसे के उत्तर जानने के लिए आपको महीनों तक ढ़ोल सागर का अध्ययन करना पड़ेगा। उसके बाद भी आप यह बात दावे के साथ कह सकते हो या नहीं! यह आप जाने..। क्योंकि ढ़ोल सागर है ही इतना विकट..!
जो यह नहीं मानते कि ढ़ोल सागर इतना विकट नहीं है तो वह मुझे जानकारी दें कि आईदास कौन था और अगिवान दास या नंद दास कौन? अगर हम ढ़ोल व ढ़ोल सागर के विस्तार पर चर्चा करेंगे तो जाने यह चर्चा दिन, महीने व साल तक भी सम्पन्न न हो। बहरहाल यह हास्यास्पद भी लगने लगा है कि हम आज के कई कलावंतों को भी ढ़ोल सागर का ज्ञाता कहना शुरू कर दिए हैं, लेकिन क्या आप हम में से कभी हम सबने उन्हें ढ़ोल विधा में एक दूसरे का ढ़ोल मंत्र विधा से फोड़ते देखा? क्या कभी कड़कड़ाती सर्दी में तेज धूप या विकट गर्मी व तेज सूरज किरणों से बचाव के बारिश की बौछार लाते देखा है या फिर ओलावृष्टि, अतिवृष्टि व हवाओं के वेग को दूसरी दिशा में ढ़ोल की थाप व मंत्र जाप के साथ रोकते, थामते, बदलते देखा है? मुझे लगता है आप 60 से 100 बर्ष की अवस्था पार कर चुके ज्यादात्तर लोगों के मुंह से इन में कई चीजों को ढोली, गुणीजन औजी द्वारा ढ़ोल की थाप व मंत्र जाप से पलटने की महारथ पर हामी भरते देखेंगे। भले ही आज का समाज इन्हें कपोल कल्पित माने लेकिन ढोली व बादी समाज ने मानव कल्याण के लिए शिब भक्ति में लीन होकर इस कला व ढ़ोलकी /ढ़ोल के अथाह सागर के बड़े परपंच पर अपनी कई पीढियां खफा दी लेकिन हमने बदले में उन्हें भर पेट खाना भी मुहैया नहीं करवाया, जिसका परिणाम यह निकला कि वे सब अपनी विधा व विद्या को छोड़ते चले गये और अब जब सम्पूर्ण उत्तराखंड में हर साल विभिन्न किस्म की आपदाएँ आ रही हैं तब हमारे पास सलूशन के रूप में एसडीआरएफ व एनडीआरएफ के जवान व कुछ सरकारी स्कीमें ही शेष हैं। सच कहूं तो यह सब पढ़कर आज की युवा पीढ़ी मजाक उड़ाएगी कि भला ऐसा भी कभी हो सकता है।
अब मेरी कोशिश है कि मैं ढ़ोल सागर संबंधी लिखित दस्तावेजों या जादूई किताबों पर हम सबके लिए उदाहरण पेश कर सकूँ। ढ़ोल सागर पर पांडूलिपियाँ कहाँ थी व किसके पास उपलब्ध हो सकती हैं यह कहना भी आज उतना ही बड़ा सत्य है जितना हम ढ़ोल सागर के बारे में जानते हैं लेकिन आज से सौ बर्ष पूर्व ढ़ोल सागर पर दो किताबें मुद्रित व प्रकाशित हुई हैं।
कालजयी इतिहासकार डॉ शिव प्रसाद डबराल ‘चारण’ ढ़ोलसागर के बारे में मूलत: ढ़ोल सागर की दो किताबों पर चर्चा करते हुए ढ़ोल सागर पर सम्पादित अपनी पुस्तक की भूमिका में लिखते हैं कि ढ़ोल वाद्य एवं ढ़ोल वादक औजियों की उत्पत्ति तथा ढ़ोल विद्या से संबंधित सूचनाओं के अभी तक दो ग्रंथ मौजूद हैं। कुछ ऐसे त्रिवर्ण विद्वान भी हुए हैं जो ढ़ोल आदि वाद्यो की विधाओं में पारंगत थे। उनके पास भी ढ़ोल सागर की पांडूलिपि प्रतियाँ होने की अनुश्रुतियाँ हैं।
उन्होंने ढ़ोल को या ढ़ोल सागर को कुछ इस तरह बांटते हुए लिखा है कि –
ढोलसागर (1) वृहद् ढोलसागर- ढोलसागर नाम की अब तक केवल दो मुद्रित पुस्तकें प्राप्त हुई हैं। इनमें से एक की फोटोस्टेट प्रति मुझे श्री राजेन्द्र धस्माना से प्राप्त हुई है। इसे श्री धसमाना जी के पूर्वज पण्डित भवानीदत्त पर्वतीय बग्याली, चौन्दकोट, गढ़वाल निवासीं ने संवत् 1983 / सन् 1926 में ‘गढ़वाली ढोली-दासों के हितार्थ’ मेरठ के भारत प्रिंटिंग प्रेस में छपवाकर प्रकाशित किया था। इसमें 7 अध्याय हैं और कुल पृष्ठ संख्या 16 है। इसके मुखपृष्ठ पर इसका नाम बृहद् ढ़ोलसागर अंकित है। किन्तु भीतर उसे वृहद् ढोलसागर शास्त्र कहा गया है। इस प्रति के भीग जाने से मुखपृष्ठ, विज्ञप्ति, तथा पृष्ठ 6, 7, 14, और 15 के मध्यवर्ती अंश सर्वथा अपाठ्य हो गए थे। फलतः पुस्तक की फोटोस्टेट में वे अंश नहीं पढ़े जा सके। इसे अत्यन्त अशुद्ध, भ्रष्ट पाण्डुलिपि से छापा गया था। पर्वतीय जी ने किसी अशिक्षित औजी से, या अन्य ज्ञाता के मुख से इसे जैसा सुना, वैसा ही अंकित कर दिया। इस ओर तनिक भी ध्यान नहीं दिया कि जो शब्द या वाक्य अंकित किए जा रहे हैं, उनसे कोई अर्थ निकलता है या नहीं। संभवतः उन्होंने स्वतं प्रूफ देखा ही नहीं और न प्रेस ने ही छापने से पूर्व उसे पाण्डुलिपि से मिलाना आवश्यक समझा। कंपोजीटर को पाण्डुलिपि के अक्षरों को पढ़ने में कठिनाई हुई और उसने अनुमान से ही, अर्थ-अनर्थ न समझते हुए कंपोज कर डाला। अन्तिम पृष्ठ की दो अशुद्धियों से ही अनुमान लग सकता है कि पुस्तक कितनी अशुद्ध छपी है।
श्री भगवानोय नमः ।।
पंडितः भवानीदत्त शर्मा साकिन बग्याली लिजा गढ़वाल।
इस प्रति के जो अंश पढ़ने में आते भी हैं, वे भी अव्यवस्थित एवं अनेक स्थानों पर दुर्बोध, अर्थहीन अक्षरपुंजों के कारण निरर्थक लगते हैं। अनेक प्रयत्न करने पर भी उनसे कोई बोधगम्य भाव नहीं निकलता। क्रमबद्ध वर्णन के अभाव से समझने में बड़ी कठिनाई है। अनेक शब्दों के अंतिम अक्षर पर अनुस्वार लगाकर उन्हें संस्कृत का सा रूप देने का प्रयत्न किया गया है। भाषा संस्कृत नहीं है। उसमें हिन्दी और गढ़वाली का मिलाजुला रूप है। इस प्रति में कहीं-कहीं संस्कृत श्लोकों का अनुकरण मिलता है तथा ऐसे संकेत मिलते हैं कि कुछ संस्कृत श्लोक, इसमें यत्र-तत्र थे, जो शताब्दियों तक अशिक्षित औजियों द्वारा परम्परागत कह सुनकर स्मरण किए जाने के कारण वर्तमान् अतिशय भ्रष्ट रूप में चले आते हैं।
इस प्रति को अपनी कल्पनानुसार शुद्ध करके लिखना अति कठिन, अव्यवहारिक एवं संपादन की मान्य प्रथा से सर्वथा विपरीत होता। इसलिए मैं इसे उसी रूप में प्रकाशित कर रहा हूं, जिस रूप में इसे मैं पढ़ सका हूं, जिससे भविष्य में इसकी कोई अन्य प्रति मिलने पर कोई विद्याव्यसनी इसे अधिक शुद्ध रूप से प्रकाशित कर सके।
अत्यन्त अशुद्ध छपी होने पर भी इस प्रति का बड़ा महत्व है। इसमें विभिन्न युगों में ढ़ोल के स्वरूप पर प्रकाश डाला गया । इस विषय पर विस्तार से चर्चा आगे की जाएगी। यद्यपि इसका प्रकाशन 1926 में हो चुका था, पर पिछले 70 वर्षों में न तो इसका पुनः प्रकाशन हुआ और न किसी ने इसके संबंध में कोई सूचना प्रकाशित की।
इस प्रति के प्रकाशक पण्डित भवानीदत्त धसमाना के जीवनवृत्त के संबंध में मैंने उनके वंशजों को पत्र लिखे, किन्तु उन्होंने उत्तर देने का कष्ट नहीं किया। उनका चित्र भी मुझे नहीं मिल सका।
ढोलसागर (2) इसका प्रकाशन अबोधबंधु बहुगुणा अनुसार सन् 1913 में और मोहनलाल बाबुलकर के अनुसार 1932 में पण्डित ब्रह्मानन्द थपल्याल ने अपने बदरीकेदारेश्वर प्रेस पौड़ी में छापकर किया था। थपल्याल जी सिमतोली पट्टी खातस्यूँ पौड़ी गढ़वाल के निवासी थे। कुछ वर्षों तक सरकारी नौकरी करने के पश्चात् इन्होंने त्यागपत्र दे दिया और पण्डित सदानन्द कुकरेती की प्ररेणा से पौड़ी में श्री बदरीकेदारश्वर प्रेस की स्थापना की, तथा मासिक विशालकीर्ति पत्रिका प्रकाशित करनी आरंभ की। 1915 ई0 में उस पत्रिका के बन्द हो जाने पर भी ये उस प्रेस को किसी न किसी प्रकार चलाते रहे। 1930 के सत्याग्रह में इन्हें छः मास का कारावास हुआ। कारावास से छूटने पर इन्होंने अपने प्रेस को पुनः व्यवस्थित करने का प्रयत्न किया, पर इन्हें उसमें सफलता न मिली। पौड़ी में सर्वप्रथम प्रेस की स्थापना करने वाले पण्डित ब्रह्मानन्द थपल्याल का स्वर्गवास मार्च 1955 में हुआ। इनके द्वारा दो महत्वपूर्ण प्रकाशन हुए। (1) मासिक विशालकीर्ति और (2) ढोलसागर ।
डॉ शिव प्रसाद डबराल आगे लिखते हैं कि थपल्याल जी द्वारा प्रकाशित ढोलसागर की प्रति मुझे उपलब्ध नहीं हो सकी। पर मुझे उसकी निम्न प्रतिलिपियां देखने का अवसर मिला है:-
ढोलसागर (2) अ – दिसम्बर 1967 में श्री मोहनलाल बाबुलकर ने अपने ग्रन्थ ‘गढ़वाल की लोकधर्मी कला‘ के अन्तर्गत ढोलसागर (2) का सारा पाठ प्रकाशित किया। उन्होंने सूचित किया है कि श्री भजनसिंह ‘सिंह’ के संग्रह में थपल्याल जी द्वारा प्रकाशित ढोलसागर की जो प्रति है, उसी की प्रतिलिपि उन्होंने प्रकाशित की है। 1983 में बाबुलकर जी ने अलमोड़ा से प्रकाशित पुरवासी में उसका वही सारा पाठ प्रकाशित किया। 1990 में बाबुलकर जी ने अपने द्वारा ‘गढ़वाल की लोकधर्मी कला’ में प्रकाशित पाठ की फोटो स्टेट मेरे पास भेजने की कृपा की।
ढोलसागर (2) ब – 1976 में श्री अबोधबंधु बहुगुणा ने अपने ग्रन्थ ‘गाडम्यटेकि गंगा’ में ढोलसागर (2) का पाठ प्रकाशित किया और लिखा पं० ब्रह्मानन्द थपल्याल द्वारा श्री बद्रीकेदारश्वर प्रेस पौड़ी वटि 1913 ई० मा प्रकाशित। बहुगुणा जी ने इस पुस्तक की एक प्रति मुझे देने का अनुग्रह किया। किन्तु गिरीश 1955 में बहुगुणा जी ने स्वयं स्वीकार किया है कि पण्डित ब्रह्मानन्द ने ढ़ोलसागर को अगस्त 1932 में प्रकाशित किया था। कहा जाता है कि पाण्डुलिपि तो 1913 से ही संग्रहीत की जाने लगी थी, पर प्रकाशन 1932 में हो सका।
बाबुलकर जी तथा बहुगुणा जी द्वारा ढ़ोलसागर (2) के जो पाठ प्रकाशित किए गए हैं, उनमें यत्र-तत्र कुछ पाठ-भेद हैं। दिसम्बर 1955 ई० में प्रकाशित ‘गिरीश‘ में बहुगुणा जी ने लिखा है कि पण्डित ब्रह्मानन्द थपल्याल द्वारा अगस्त 1932 में प्रकाशित ढ़ोलसागर के अतिरिक्त ढ़ोल सागर की एक पाण्डुलिपि उन्हें श्री उम्मदेसिंह रावत द्वारा पं० महीधर गैरोला फलस्वाड़ी सितोनस्यूं की पौष 8 गते संवत् 1985 (सन् 1928) नकल की हुई मिली है। दोनों में कई स्थलों पर पाठभेद हैं। कुछ सामान्य पाठभेदों का उल्लेख बहुगुणा जी न गिरीश में छपे अपने उस लेख में किया भी है।
बाबुलकर जी और बहुगुणा जी ने अपने ग्रन्थों में ढ़ोल सागर (2) का जो पाठ प्रकाशित किया है, उसके आरंभ में उन्होंने उक्त ढोलसागर के मुखपृष्ठ का एवं थपलियाल जी द्वारा लिखित भूमिका का पाठ नहीं दिया है। इन विद्वानों ने थपलियाल जी द्वारा प्रकाशित पाठ को व्यवस्थित ढंग से प्रकाशित करने का भी प्रयत्न नहीं किया तथा न अपनी ओर से इस ग्रन्थ की कोई भूमिका प्रकाशित की।
बाबुलकर जी तथा बहुगुणा जी द्वारा प्रकाशित पाठ में भी कुछ स्थलों पर पाठ अशुद्ध और भ्रष्ट होने से समझ में नही आता। फिर भी वृहद् ढ़ोल सागर की अपेक्षा इस ढ़ोलसागर (2) की ‘अ‘ और ‘ब‘ प्रतियों में ऐसे स्थल अपेक्षाकृत कम हैं। पाठ भी अधिक व्यवस्थित और प्रायः क्रमबद्ध है। ढोलसागर तंत्र ग्रन्थों के समान पार्वती और ईश्वर के मध्य हुए प्रश्नोत्तर के रूप में है। प्राचीनकाल से ही यह मान्यता चली आती है कि निगम (वेद) ब्रह्मा के मुख से प्रकट हुए और आगम (वेदों को छोड़कर अन्य सभी ज्ञान या विधाएं) पार्वती और शिव के मुख से । ट्रोलसागर (1) में प्रश्नोत्तर तो हैं पर प्रश्नकर्त्ता और उत्तरदाता के नामों का उल्लेख नहीं है। ट्रोलसागर (2) में श्री पार्वत्युवाच और श्री ईश्वरोवाच का स्पष्ट उल्लेख है। मौखिक रूप से चले आने के कारण कहीं प्रश्न छूट गये हैं और कहीं उत्तर। इससे कुछ स्थानों पर प्रश्नकर्ता के स्थान पर श्री ईश्वर का और उत्तरदाता के स्थान पर श्री पार्वती का नाम छप गया है। मूलरूप में प्रश्नकर्त्ता श्री पार्वती थीं और उत्तरदाता थे श्री ईश्वर। इसका पता ढ़ोल सागर (2)में चांद-सूर्य के निवास के संबंध में उत्तर देते हुए श्री ईश्वर कहते हैं- ‘सुण हो देवी पारवती !”। श्री पार्वती श्री ईश्वर से प्रश्न पूछते समय उन्हें ‘अरे आवजी! अरे ढ़ोली !” कहकर संबोधित करती हैं और उत्तर देते समय श्री ईश्वर पार्वती को ‘सुन रे गुनिजन!’ कहकर संबोधित करते हैं। गुनिजन से तात्पर्य कला-मर्मज्ञ ढोलवादक है। गुनिजन शब्द का चयन बड़ी कुशलता से किया गया है। इसके अन्तर्गत नर-नारी दोनों आ सकते हैं। यह संबोधन पार्वती के लिए तथा ढोलवादक कलामर्मज्ञ, दोनों के लिए उपयुक्त है।
भले ही वर्तमान में ढ़ोल सागर पर कई किताबें आपको बाजार में उपलब्ध हो जाएंगी लेकिन यह सत्य है कि पंडित ब्रह्म नंद थपलियाल द्वारा संग्रहित, शोधित व प्रकाशित ढ़ोल सागर अतुलनीय है। फिर भी हम कहे देते हैं कि ढ़ोल सागर आधा अधूरा ही लिखा गया है। मेरा मानना है कि इस दुर्लभ पुस्तक के दो भाग छपे हैं पहला भाग ढ़ोलसागर (अ) सन 1913 व दूसरा भाग ढ़ोल सागर (ब) 1932 में बद्रीकेदार प्रेस पौड़ी से छपा है। इनके दोनों अंश मिलने दुर्लभ हैं लेकिन मेरी कोशिश है कि मैं इन दोनों अंशो की एक सामूहिक पुस्तक पर काम कर उसे आने वाली पीढियों के लिए संग्रहित करूँ जिसमें महादेव जी पार्वती जी से पूछते नजर आएं :-
कोवा सुतश्चैवैव को जननिजनको,
को अस्य पत्नी किं गोत्रस्य ढोलः ।
महादेव जी का उत्तर इस प्रकार है :-
शंकर सुतश्चैव गिरिजा च जननी
भव-शक्ति पत्नी अग्नि गोत्रस्य ढोलः