सचमुच अद्भुत है हरु व कल्लू कैड़ा की कैड़ाडौं पट्टी के बिंता-उदयपुर का गोलज्यू मंदिर। जहां बद्री-केदारनाथ मंदिर जैसी है पूजा पद्धति।
(मनोज इष्टवाल)
जिला अल्मोड़ा के रानीखेत क्षेत्र में नैनीताल से लगभग 80 किमी. सड़क मार्ग व 7 किमी. पैदल यात्रा कर आप जिस चोटी पर पहुँचते हैं वह कैड़ा सेनापति हरु कैड़ा की उस गाथा का गान करवाता प्रतीत होता है, जिसके बूते पर चंद वंशज राजा उदयचंद के आदेश पर हरु कैड़ा चम्पावत से गोल्जू की प्रतिमा को अपनी पगड़ी पर छुपाकर कैडारौं पट्टी के इस उच्च स्थान पर लाये थे।
नैनीताल रानीखेत सोमेश्वर मार्ग के बिन्ता गॉव की सीमा पर बसा गोल्जू का यह मंदिर बिन्ता पुल से लगभग 7 किमी. पैदल चढ़ाई चढ़ने के बाद एक उच्च शिखर पर बसा है। लगभग 200 परिवारों के बिन्ता गॉव में कैड़ा थोकदारों के अलावा जोशी ब्राह्मण, रावत, बोरा व गढ़वाल से आये पूर्णिया नेगी, बाजनी (घुघतियाल गुसाईं) रजवार, बधौडी, लोहार, तेली, बढई, ढोली इत्यादि जाति के लोग रहते हैं। वहीँ इसी से मिलती हुई ग्राम सभा भतौरा जिसमें भतौरा, मोरखुला, खखोली व हाथीख़ुर्र गॉव पड़ते हैं में लगभग 220 परिवार हैं जिनमें मूल रूप से कैड़ा राजपूत रहते हैं। इसके अलावा रावत, जोशी, नेगी, बोरा, राणा, शाही, व हरिजन इत्यादि जातियां हैं वहीँ तैलमनारी व अल्मियाँ गॉव में कार्की, अल्मियाँ, अधिकारी, गिरी, गोस्वामी, नेगी, भंडारी, कैड़ा व हरिजन जातियां निवास करती हैं यह गॉव हरिजन बाहुल्य माने जाते हैं। कैड़ा राजपूतों के बाहुल्य क्षेत्र से पट्टी का नाम भी कैड़ारौं पड़ा जिसमें वर्तमान में दो से तीन दर्जन गॉव हैं व दो न्याय पंचायतें हैं।
गोलज्यू देवता के मंदिरों में यह मंदिर उस काल का माना जाता है जब चंद राजाओं ने अपनी राजधानी चम्पावत से अल्मोड़ा स्थान्तरित की थी। जनश्रुतियों के अनुसार इस मंदिर की स्थापना पंद्रहवीं सदी में की गयी थी। वहीँ उदयपुर के गोल्जू मंदिर सुधार समिति के अध्यक्ष भूपाल सिंह कैड़ा के अनुसार जो जानकारी प्राप्त हुई वह यह है कि हरु कैड़ा व कल्लू कैड़ा राजा उदयचंद के जमाने में भड हुआ करते थे, जिनमें हरु कैड़ा अपनी वीरता के कारण राजा के सेनापति रहे व मंदिर से मात्र डेढ़ किमी. दूरी पर उन्होंने अपना किला “कैड़ाकोट” का निर्माण किया था जिसमें सुरंग के रास्ते सीढियां थी जिसे गुप्त मार्ग कहा जाता है। वहीँ वर्तमान में भी कैड़ा कोट के खंडहर इस बात के गवाह हैं कि कभी यह किला सुरक्षा की दृष्टि से बेहद मजबूत रहा होगा, इस स्थान पर आज भी कई ओखल देखी जा सकती हैं। किंवदंती है कि हरु व कल्लू कैड़ा अपने कारिंदों से जब खेतों में पानी लगवाते थे तब किले से ही पत्थर फैंककर रात्री को अनुमान लगाया करते थे कि पाणी किस खेत तक पहुंचा होगा।
उदयपुर के इस मंदिर का निर्माण बिलकुल गोल्जू देवता के चम्पावत निर्माण से मेल खाता हुआ है। जो साबित करता है कि इसका निर्माण काल भी चंद वंशी राजाओं के समय पर होता रहा है। लोगों का कहना है कि चंद राजाओं द्वारा हर बर्ष इसके रख-रखाव हेतु दो आने या दो रुपये भेजे जाते थे। इसमें लगी मूर्तियाँ देखकर आपको जरा भी आभास नहीं होगा कि ये मूर्तियाँ शहतूत की लकड़ी से निर्मित है। जिसमें हर कैड़ा जिन्हें हरज्यु के नाम से भी पुकारा जाता है। इसके अलावा मंदिर के गर्भ गृह में गोल्जू देवता के अलावा हीत व लांकुडिया देवता की मूर्तियाँ भी शहतूत की लकड़ी से निर्मित हैं जो प्रथम दृष्टा काले पत्थर की बाँई गयी लगती हैं।
मंदिर में विभिन्न दिशाओं से प्रवेश हेतु पांच प्रवेश द्वार निर्मित हैं. सबसे बड़ी बात यह है कि हर प्रवेश द्वारा के पास आपको पीने के पानी की टंकी या नौला अवश्य मिलेगा वहीँ मंदिर के पृष्ठ भाग में दो नौले हैं जिनमें स्त्री पुरुष पूजा करने से पहले सुबह सबेरे सूर्योदय से पूर्व स्नान करते हैं। एक देव नौला है जहाँ देवता स्नान करते हैं वहां अन्य किसी का भी स्नान करना वर्जित माना गया है। मंदिर परिसर में शराब या अन्य तरह के किसी भी नशे पर सख्त पाबंदी लगाई गयी है। मुझे आश्चर्य हुआ कि ये सभी गॉव फौजी बाहुल्य के हैं लेकिन किसी एक के मुंह से भी मदिरापान की बदबू कहें या खुशबु नहीं आई। वहीँ मंदिर समिति का अनुशासन देखते ही बनता है। साफ़ सफाई के मामले में यहाँ से ज्यादा सफाई मैंने गोल्जू के किसी भी मंदिर में नहीं देखी।
कटवा पत्थर व मास (उड़द की दाल) से निर्मित यह आयताकार मंदिर काली स्लेटनुमा पत्थरों की छत्त से बेहद खुबसूरत दिखाई देता है यहाँ से हिमालय की उतुंग शिखरों के अलावा दूर दूर तक पसरा चीड़ देवदार के जंगलों का अलाम बेहद शोभनीय लगता है।
मंदिर समिति के अध्यक्ष भूपाल सिंह कैड़ा ने जानकारी देते हुए बताया कि मंदिर के चढ़ावे के एक भी पैंसे का समिति के लोगों को कोई लेना देना नहीं होता। चढ़ावे की समस्त धनराशी के अधिकारी जोशी पुरोहित ही होते हैं समिति सिर्फ अपने बलबूते पर जमा चंदे के पैंसों से चल रही है। समिति द्वारा मंदिर परिसर में कई धर्मशालाओं का निर्माण करवाया गया है ताकि यात्रियों को रात्री विश्राम के लिए कोई परेशानी न हो वहीँ सांसद निधि व विधायक निधि से भी यहाँ धर्मशालाएं बनाई गयी हैं। जिनमें सांसद निधि से बनाई गयी धर्मशाला को दो कमरे सारी आधुनिक सुविधाओं से सज्जित हैं।
यहाँ बेऔलाद बहुएं रात भर हाथ में दिए लेकर औलाद प्राप्ति के लिए खड़-दिये करती हैं, जिन्हें गोल्जू देवता निराश नहीं करते। यहाँ रात भर नवरात्रि में जागर लगती है लेकिन यहाँ की जागर जाने का ढंग अन्य जागर गायन से बिलकुल अलग है।
सच कहें तो यहाँ लगने वाली जागर, जागर न होकर एक जयगान है जो गोल्जू की गाथा का उद्घोष करता नजर आता है. गोलज्यू देवता के साथ लांकुडिया व हीत देवता अवतरित होकर जलती धुनी के चारों ओर नृत्य करते हैं अंत में गोल्जू देवता फ़रियाद सुनते हैं। ग्रामीण थाल में मोती (चावल) अक्षत व फल फूल लेकर गोल्जू से अपनी समस्याओं का समाधान करवाने पहुँचते हैं और समाधान होने पर यथासम्भव मंदिर में घंटियां या बड़े घांड चढाते हैं। कई बर्षों बाद औलाद प्राप्ति होने वाले यहाँ कई उदाहरण मुझे दिखाई दिए जिनमें कोई बैंक प्रबन्धक तो कोई डी आई जी रैंक तक के व्यक्ति थे।
यहाँ की पूजा पद्धति अन्य गोलज्यू मंदिरों से बेहद भिन्न नजर आई। या यह कहा जाय कि यहाँ के पुजारी बद्री केदार नाथ धाम के पुजारियों की तरह व्यवहार व देव स्वरुप आचरण रखते हैं तो बुरा नहीं होगा। मुख्य पुजारी इन नवरात्रों में अन्न ग्रहण नहीं करते वह दिन में छ: बार स्नान करते हैं साथ ही मूत्र विसर्जन के बाद उन्हें उतनी ही बार और नहाना पड़ता है, और तो और उनके साथ अन्य सहायक पुजारी भी उन्हें छू नहीं सकते। अगर गलती से छू लिया तो उन्हें पुन: स्नान करना होता है। वे अगर दूध भी पियेंगे तो उस दूध को दूहने वाला भी पुरुष ही होगा। रात्रि को लगभग 12 बजे इनका भोग लगता है जिसमें ये पुरुष द्वारा ही तैयार मावे का सेवन या फिर पुरुष द्वारा उसी समय पेड़ से तोड़ा गया फल का सेवन करते हैं। गर्ग गोत्री ये जोशी ब्राह्मण मूलत: अल्मोड़ा से राजाज्ञा के पश्चात यहाँ पूजा के लिए भेजे गए हैं जिन्हें बिन्ता या हाथीख़ुर्र गॉव में कैड़ा थोकदारों द्वारा गूंठ में खेती की जमीन मुहैय्या करवाई गयी है। बेहद सख्ती व अनुशासन से मंदिर की पूजा अनुष्ठान करने वाले ये जोशी पुजारी बारी बारी से मंदिर में पूजा करते हैं। इनका कहना है कि यदि सर्दियों में मंदिर में चार से पांच फिट तक बर्फ पड़ गयी ऐसे में मंदिर के द्वार खोलने संभव नहीं होते तब जिस भी गर्ग गोत्री जोशी पुरोहित की बारी होगी उसे घर से ही मंदिर की ओर हाथ जोड़कर देवता से माफ़ी मांगकर वहीँ पूजा करनी होती है व जब तक बर्फ गल नहीं जाती उतने दिन बिना अन्न ग्रहण किये व्रत रखना होता है।
मुझे लगता है कि अब तक जितने भी गोल्जू मन्दिरों पर मैंने शोध किया उन सबमें यहाँ का पूजा विधि विधान बिलकुल अलग व बेहद धार्मिक भावनाओं से ओत-प्रोत है। शायद यही कारण भी है कि यहाँ इन नवरात्रों में बहुत भीड़ होती है। वहीँ बोरा जाति के वंशजों पर ही गोल्जू देवता अवतरित होते हैं। उसके पीछे किंवदंती है कि हरु कैड़ा ने अपनी पुत्री को बोरा जाति में विवाह किया था और देव हुक्म का अनुपालन करते हुए गोल्जू ने बोरा जाति में ही अवतरित होना स्वीकारा। यहाँ पहली बार मैंने देखा कि जागर से पहले जिस व्यक्ति पर देवता अवतरित होते हैं उनका देवश्रृंगार किया जाता है। गोल्जू जिस पर अवतरित हुए उस व्यक्ति को चांदी का मुकुट पहनाया गया।
कहा जाता है कि गोल्जू को इस स्थान पर विराजमान करने वाले कैड़ा थोकदार नहीं बल्कि आठ अल्मियाँ भाई थे। उसके पीछे जो जनधारणा या कथा है तो वह इस प्रकार है कि हरज्यु कैड़ा राजाज्ञा पाकर जब गोल्जू देवता की मूर्ती चम्पावत से अपनी पगड़ी में छुपाकर ला रहे थे तब मार्ग में पड़ने वाले स्थान लोध में उन्हें लघु शंका जाना पड़ा जिसके लिए उन्हें अपनी पगड़ी उतारनी पड़ी। जब वह लघु शंका त्यागकर लौटे तो उनसे मूर्ती ही नहीं बल्कि पगड़ी तक नहीं उठाई गयी, व मूर्ती पगड़ी समेत जमीन में धंसने लगी। हरजू कैड़ा को अपनी गलती का अहसास हुआ और उन्होंने गोल्जू से क्षमा याचना मांगी व वहीँ लेट गए। नींद आने के बाद उन्हें सपना हुआ कि अब वह यहाँ से तभी आगे बढ़ेंगे जब उन्हें एक ही घर के कई भाई पूरे सत्यनिष्ठ धर्म का अनुपालन कर उठाएंगे। कहते हैं तब अल्मियाँ वीर के आठ पुत्रों द्वारा उन्हें यहाँ से बांस के डंडों के सहारे उठाया गया। आज भी लोध में गोल्जू का झूला है। जोकि उदयपुर के मंदिर से लगभग 5 किमी. पैदल दूरी पर स्थित है।
कही किंवदन्ती व लोक मान्यताओं धर्म संस्कृति के अनूठे उदाहरणों को पेश करता यह मंदिर आज भी उस भीड़ से अछूता है जो नित अन्य मंदिरों के दर्शन को उमड़ती है। इसका मुख्य कारण यह क्षेत्र सड़क मार्ग से जुड़ा न होना और प्रचार प्रसार की कमी का होना भी हो सकता है। मेरा अनुरोध है कि आप एक बार जरुर उदयपुर के गोल्जू देवता के दर्शन करने अवश्य जाएँ आपकी मन की मुराद तो पूरी होगी ही लेकिन जो कष्ट आपको पैदल चलकर झेलने से होते हैं उससे कई गुना आप वहां से मानसिक शान्ति व स्फूर्ति के साथ लौटेंगे।