ळ तो सिर्फ़ उदाहरण मात्र है!
(मनोज इष्टवाल)
प्रश्न यक्ष है और हम सब जानते हैं कि इसका जबाब हम यानि 50 बर्ष से ज्यादा उम्र वाले लोग अपनी आने वाली पीढियों को नहीं दे पाएंगे क्योंकि हमीं तो इस सबके सबसे बड़े खलनायक हैं जिन्होंने अपनी लोकबोली/लोकभाषा में अंग्रेजियत की गिटपिटाहट के नस्ली बीज बोये। हमने ही अपनी समृद्ध लोक भाषा/बोली व लोकसमाज से लोक के वे सब गढ़वाली शब्द छीनकर हवन कुंड में होम कर दिए जो हमें पैतृक धरोहर के रूप में मिले थे। यह आश्चर्यजनक नहीं तो और क़्या है कि हमने अपनी गढ़वाली बोली के तीन चौथाई शब्द लील लिए हैं। बाकी बचा एक चौथाई भी समाप्ति की ओर तेजी से दौड़ रहा है क्योंकि हम ब्यखुनी को तो सही उच्चारित कर रहे हैं लेकिन हमारा भोळ/भ्वाळ या ब्याळी का पिछवाडा हम दांतो तले चबा चुके हैं इसलिए लोक संस्कृति के ध्वज वाहक आज के युवा गायक कलाकार इन शब्दों की ळ को ल बोलकर हमारा मजाक उड़ा रहे हैं। जिस ळ को बोलने के लिए हमारी जिब्हा ऊपरी और निचले दाँतों के स्पर्श का चुंबन पाती हुई वापस अपने मुख आभामंडन में लौटकर ब्रह्माण्ड छूती थी, उस जिब्हा को तो हमने अपनी वर्तमान पीढ़ी से छीन ही लिया है। और ऐसे न जाने कितने शब्द हैं जो आये दिन हमारी गढ़वाली शब्द सम्पदा का मखौल बनाते हैं।
लेखक ललित मोहन रयाल इस यक्ष प्रश्न पर खासे चिंतित दिखाई दिए हैं। उन्होंने अपनी पुस्तक “कल फिर जब सुबह होगी (नरेंद्र सिंह नेगी के गीतों पर एकाग्र)” के पृष्ठ संख्या 17-18 में इसका जिक्र करते हुए नेगी जी के गीत ‘मुझको पाड़ी मत बोलो मैं देहरादून वाला हूँ” पर उस वेदना को प्रकट किया है, जिसे हम सिर्फ़ और सिर्फ़ मनोरंजन के रूप में लेते हैं लेकिन उसकी पीड़ा तक नहीं पहुँच पाते कि गीत का आशय क़्या है। आखिर हमने ऐसा क्यों अपने बच्चों के मन में भर दिया है जो वह गढ़वाली बोली/भाषा में बात करना भी तुच्छता समझता है।
रयाल लिखते हैं कि ‘यूनेस्को की ‘एटलस ऑफ वर्ल्ड लैंग्वेज इन डेंजर’ के मुताबिक दुनिया में इस समय दो दर्जन वर्चस्व वाली भाषाएं हैं जिन्हें दुनिया की आधी आबादी बोलती है। वहीं आधी आबादी सात हजार भाषाएं बोलती है, जिनमें से आधी इस सदी के अंत तक विलुप्त हो जाएंगी।’
यह यकीनन हमारे लिए आपदा जैसा अलार्म है क्योंकि किसी भी बोली या भाषा विलुप्त होने का बहुआयामी व दूरगामी दुष्प्रभाव एक सम्पूर्ण लोक समाज व लोकसंस्कृति की नींव खोखली कर देती है जिसके परिणामस्वरूप उस समुदाय का इतिहास, संस्कृति-विरासत और समूची पारंपरिक ज्ञान प्रणाली समाप्त हो जाती है। लोक की बोली में पीढ़ियों का इतिहास, लोक-परंपरा, संस्कृति, लोक-कला संरक्षित रहती हैं, चाहे वह श्रुति परंपरा में ही क्यों न हों। इसलिए जब कोई बोली-भाषा विलुप्त होती है तो एक सामूहिक ज्ञान का भंडार भी नष्ट हो जाता है। हजारों वर्षों का पारंपरिक ज्ञान दो-चार पीढ़ियों में समूल नष्ट हो जाता है। गढ़वाली भाषा भी लगातार कमजोर तन्वंगी और परित्यक्त होती जा रही है।
मैप फोटो साभार : डॉ प्रणवेश
एक अनुमान के मुताबिक गढ़वाली की तीन-चौथाई शब्द-संपदा प्रचलन से बाहर हो चुकी है। नई पीढ़ी अगर बोलती भी है तो प्रायः ठेठ शब्दों का शुद्ध उच्चारण नहीं कर पाती, मुख-सुख के अनुकूल विकृत करके बोलती है। धारा प्रवाह गढ़वाली बोलने वाली उम्रदराज पीढ़ी आगामी एक-दो दशक में नहीं रहेगी और अगर यही हाल रहा तो कुछ और दशकों बाद की कल्पना आप कर सकते हैं।
यह भाषा/बोली विद्वानों के लिए शर्म की बात कम है बल्कि उत्तराखंड की धरोहर को प्रगति की ओर ले जाने वाली उन तमाम सरकारों के लिए डूब मरने जैसी बात है, जिनके कर्णधार राजनेताओं व राजपत्रित अधिकारियों ने भाषा/बोली संस्थान को राजनीति की चौखट पर नंगा करके मटियामेट कर दिया है। आज सिर्फ़ गढ़वाली ही नहीं बल्कि उत्तराखंड में बोली जाने वाली तमाम क्षेत्रीय बोली, भाषाएं राज्य सरकार की घनघोर उपेक्षाओं के कारण अपनी अंतिम स्वाँसे भर रही है। गढ़राजवंश व कुमाऊँ राजवंश के तौर पर गढ़वाली राजपत्रित भाषा व कुमाउनी राजपत्रित भाषा हम लोगों की उदासीनता के कारण जाने कब बोली में तब्दील हो गई और कब देखते ही देखते मात्र 50 बर्षों की समयावधि में उसका इतना बुरा हश्र हुआ कहा जाना संभव नहीं है।
इन बोलियों के भाषाई संरक्षण की जब भी बात होती है तब राजपत्रित अधिकारियों व बाबुओं की संगत एक ही जुमला अलापती है कि प्रदेश के हर जिले में नदी घाटी सभ्यता के साथ गढ़वाली व कुमाऊनी बोलियां बदल जाया करती हैं, तब ऐसे में हम कौन सी बोली को राजपत्रित मान भाषा का रूप दें। उन सबसे हमारा एक ही सवाल है कि वे जिस भी राज्य के मूल निवासी हैं और उत्तराखंड आकर सेवा दे रहे हैं क़्या उनके राज्य में बोली जाने वाली भाषा के साथ उनकी दैनिक दिनचर्या में उनकी सभ्यता वाली नदी घाटी या क्षेत्र की आम बोलियां समाप्त हो गई हैं? नहीं हुई ना फिर उत्तराखंड के परिपेक्ष में यह सब क्यों? भारत की 22 लोक भाषाओं को छोड़िये विश्व भर की एक ऐसी लोक भाषा उठा दीजियेगा जहाँ उसकी क्षेत्रीय लोक बोलियां प्रचलन में नहीं हैं। मैकाले को पढ़कर बड़े हुए हम लोग आज इस स्थिति में हैं कि हम भारतीय 22 भाषाओं में 23वीँ उत्तराखंड की भाषा सम्मिलित करवा सकते हैं।
यदि हम ऐसा नहीं कर पाये तो यकीन मानिये ललित मोहन रयाल ले इस कथन की पुष्टि हमें कर लेनी चाहिए जो संदर्भ उन्होंने उठाया है कि ‘यूनेस्को की ‘एटलस ऑफ वर्ल्ड लैंग्वेज इन डेंजर’ के मुताबिक दुनिया में इस समय दो दर्जन वर्चस्व वाली भाषाएं हैं जिन्हें दुनिया की आधी आबादी बोलती है। वहीं आधी आबादी सात हजार भाषाएं बोलती है, जिनमें से आधी इस सदी के अंत तक विलुप्त हो जाएंगी’।
मेरा मानना है अगर ऐसा हुआ तो गढ़वाल क्षेत्र में बोली जाने वाली बोलियाँ श्रीनगरिया (गढ़ राजवंश के दौर में भाषा का दर्जा प्राप्त), नागपुरिया, गंगपरिया, सलाणी, बधाणी, दसौल्या, राठी, मांझ, टिहरियाली, जौनसारी, बाउरी, पर्वती, रंवाल्टी, जौनपुरी, भोटिया, गोर्खाली इत्यादि व कुमाऊँ में बोली जाने वाली बोलियां कुमईया (कुमाऊ राजवंश की राजपत्रित भाषा), सोरयाली, सिराली, अस्कोटी, जोहारी, रौ-चौभैंसी, खसपर्जिया, पछाईं, चौग़र्खिया, गंगोली, दनपुरिया, फल्दाकोटि, गुर्ख्या इत्यादि सभी-धीरे धीरे आने वाले बीस तीस बर्षों में मिट जाएंगी या फिर इन्हें बोलने वाले 20 या 30 प्रतिशत लोग ही होंगे।
बहरहाल यह ख़ुशी की बात है कि लोकगायक नरेन्द्र सिंह नेगी की हीरक जयंती पर मंचासीन हुए प्रदेश के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने लोकगायक नरेन्द्र सिंह नेगी को जो कहा वह लोकगायक नरेन्द्र सिंह नेगी बताते हैं कि मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने कहा है कि उन्हें ‘गढ़वाली कुमाउनी लोक भाषा/बोली के संरक्षण व संवर्धन हेतु आगे आकर पहल करनी चाहिए ताकि सरकार इस पर पहल कर सके।’ लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी आशावान हैं कि मुख्यमंत्री धामी के काल में हम अपनी लोक भाषा को बुलंदियाँ दे सकते हैं। उन्हें मुख्यमंत्री धामी के विजन में सकारात्मकता दिखती है। हमारा भी मानना यही है कि पूर्व मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी के बाद अगर मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी उत्तराखंडी लोक भाषा/बोली पर गंभीरता से विचार कर रहे हैं तो यह पूरे लोक समाज के लिए एक स्वागत योग्य पहल है।