Saturday, July 27, 2024
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ब्रिटिश काल में इसलिए छीने गए थे बारहस्यूं के थोकदारों, मुखियाओं, पधानों के ताम्रपत्र, पट्टे व सनदें!

ब्रिटिश काल में इसलिए छीने गए थे बारहस्यूं के थोकदारों, मुखियाओं व पधानों  के ताम्रपत्र, पट्टे व सनदें!

(मनोज इष्टवाल)

क्या हम जानते हैं कि पौड़ी कमिश्नरी के निर्माण को लेकर ब्रिटिश गवर्नमेंट ने 1827 में पहल शुरू कर दी थी लेकिन यहाँ के सामंतों ने जल्दी हथियार नहीं डाले जिसके फलस्वरूप पौड़ी कमीशनरी के निर्माण में सौ साल से भी अधिक का समय लग गया। यह ऐतिहासिक सत्य है कि पौड़ी कमीशनरी निर्माण पर शुरूआती कार्यवाही 1937 से शुरू हुई और 1940 में इसे विधिवत अल्मोडा कमीशनरी  से अलग करते हुए गढ़वाल कमीशनरी बनाया गया। क्या इस सबकी एक वजह यह भी रही होगी?

पौडी  से बेहद निकट होने के बावजूद भी बारहस्यूं की 15 पट्टियों के थोकदारों से लगभग 1856 में ब्रिटिश सरकार के एक आदेश पर सभी हथियार, थोकदारी ताम्रपत्र, सनदें व पट्टे जब्त कर लिए गए थे। यह आदेश सचमुच गढ़वाल के इतिहास में काला अध्याय के रूप में जाना जाता रहा है लेकिन विवश थोकदारों के पास इसके अलावा कोई चारा भी नहीं था, ऐसा कहा जाता है कि इनकी गिरफ्तारी तक के आदेश थे लेकिन तब सभी भूमिगत रहे।

अपनी पुस्तक “सिंहनाद” (पृष्ठ 24/पंक्ति 21-22-23) में भजनसिंह “सिंह” लिखते हैं “साहब बहादुर किसी प्रकार छूटकर जब पौड़ी पहुंचे तो उन्होंने समस्त थोकदारों के थोकदारी पट्टे, ताम्रपत्र और सनदें जब्त कर ली।

आखिर ऐसा क्या हुआ कि तत्कालीन साहब बहादुर मेरे हिसाब से उस दौर में बैटन गढ़वाल व कुमाऊं कमिश्नर थे व वे गढवाल दौरे पर थे क्योंकि सुप्रसिद्ध लेखक व साहित्यकार भजन सिंह “सिंह” द्वारा अपनी पुस्तक सिंहनाद के तीसरे एडिशन में इस घटना का जिक्र करते हुए इसका काल लगभग 150 बर्ष पूर्व माना है व इस पुस्तक का प्रकाशन सन 2000 में हुआ है। हो सकता है यह घटना कुछ समय और पूर्व की रही हो क्योंकि इस पुस्तक में उनकी पहली कविता समर्पण में उन्होंने 15 अगस्त 1980 लिखा हुआ है। बहरहाल हम बैटन के काल की इस घटना को इसलिए संदर्भ से जोड़ रहे हैं क्योंकि इसी बर्ष बैटन की जगह सर रैमजे को कुमाऊं कमिशनरी सौंपी गई व वे 1856 से लेकर 1884 तक सबसे लम्बे समय तक गढ़वाल कुमाऊं कमिश्नर रहे, जबकि बैटन 1848 से 1856 तक ही इस पद पर अपनी सेवाएँ दे पाए।

प्रश्न यह है कि आखिर बारहस्यूं के थोकदारों से ताम्रपत्र, पट्टे व सनदें क्यों छीनी गई तो उसका माकूल सा जबाब है – बारहस्यूं में आयोजित “बेडवार्ता” (बद्दी रड़ाने की परम्परा)। जिसे गढ़वाल में वर्ताखूँट के नाम से भी जाना जाता है! यह मेला यूँ तो इन 15 पट्टियों जिनमें असवालस्यूं, इडवालस्यूं, कफोलस्यूं, कंडवालस्यूं, खातस्यूं, गगवाडस्यूं, नादलस्यूं, पटवालस्यूं, पैडुलस्यूं, बनगढ़स्यूं, बनेलस्यूं, मनियारस्यूं, मनियारस्यूं पश्चिम, रावतस्यूं एवं सितोनस्यूं प्रमुख हैं के ज्यादात्तर थोकदारी गाँवों में आयोजित होती थी लेकिन इसका सही-सही अनुमान लगाना कठिन है कि यह घटना किस पट्टी की थी। या यह कह पाना भी कठिन है कि तब साहिब बहादुर बैटन घटना स्थल पर मौजूद थे या उनके अधीन कोई अन्य व्यक्ति जिसे साहिब बहादुर नाम से पुकारा गया क्योंकि यह संभव नहीं है कि बारहस्यूं की समस्त पट्टियों के थोकदार उस मेले में शामिल रहे होंगे जिसमें यह घटना घटित हुई। बैटन को ही घटना का मुखिया इसलिए समझा जा रहा है क्योंकि तब गढ़वाल कुमाऊं कमिश्नरी के अधीन था, ऐसे में हो सकता है कि उनके आने की खबर पर ही सभी थोकदार मेले में इकठ्ठा हुए हों।

लोगों का मानना है कि इस आज से लगभग 170 बर्ष पूर्व तक गढवाल में बद्दी जाति (बेडा/गंदर्ब) के लोगों द्वारा सूखा पड़ने या अकालग्रस्त होने जैसे समय में बेड़ावर्त जैसी कुप्रथा का आयोजन किया जाता था। यह वह स्वयं अपनी मर्जी से करते थे या फिर उन्हें मजबूरीवश करना पड़ता था, इतिहास की गर्त में सब छुपा है, लेकिन बद्दी रडाने की यह कुप्रथा तब खूब प्रचलं में थी जिसमें एक बेड़ा जाति का व्यक्ति इस यज्ञ के लिए तैयार होता था। जिसका यज्ञोंपवित कर यज्ञोतस्व शुरू होता था जिसमें गाँव के मुखिया, पदान एवं थोकदार लोग सक्रिय भाग लेते थे। गाँव के पास किसी पर्वत शिखर के किसी पेड़ पर एक बाबड़ की मोटी रस्सी बाँधी जाती थी, जिसका दूसरा सिरा गाँव के पास किसी पेड़ या खूंटे पर बाँध दिया जाता था। इसकी लम्बाई एक हजार गज होती थी जिसे वर्त कहा जाता था।

गाँव के लोग बेडावर्त करने वाले बादी को उस दिन नहलाकर नए वस्त्रों के साथ उसकी भक्तिभाव से पूजा करके उसे रस्सी के ऊपर एक काठी में बिठाकर उसके दोनों पैरों पर समान टोल के मिट्टी के थैले बाँध देते ताकि वह असंतुलित होकर एक ओर न लुढ़के। बादी को फिर मंत्रोचारण के साथ उस वर्त अर्थात रस्सी के साथ धक्का दिया जाता और वह तेजी से लुढ़कता हुआ पहाड़ की चोटी से गाँव की ओर फिसलने लगता। अगर बादी सही सलामत नीचे पहुँच जाता तो उसको साक्षात शिबरुपी मानकर उसकी पूजा होती व समाज में उसकी वही इज्जत समझी जाति तो मुस्लिम धर्म में एक हाजी की समझी जाती है। और यदि वह किसी कारणवश फिसल कर रस्सी से गिर गया या घायल हो गया तो उसका वध कर दिया जाता था। कहते हैं तब एक डिप्टी कमिश्नर इस मेले में उपस्थित थे! यहाँ अगर डिप्टी कमिश्नर आये तो स्वाभाविक सी बात है कि बैटन के कार्यकाल में सर हैनरी रेमजे डिप्टी कमिश्नर के पद पर कार्यरत थे। जिसका सीधा सा मतलब है कि यह घटना सर रेमजे के साथ घटित हुई होगी।

इस बार भी कुछ ऐसा ही हुआ था कि बेडावर्त करने वाला बादी गिर गया, जब लोग उसका वध करने लगे तो डिप्टी कमिश्नर ने इसका विरोध करते हुए कहा कि यह जघन्य अपराध है। भला आप ऐसा कैसे कर सकते हैं! थोकदारी हुंकार भला यह कहाँ सहन करने वाली थी। सबने मिलकर डिप्टी कमिश्नर व उसके अंगरक्षक सिपाहियों को पकड़ लिया व एक कमरे में बंद कर दिया। जैसे तैसे सिपाही व कमिश्नर छूटे और कुँमाऊ पहुँचते ही एक सैन्य टुकड़ी पौड़ी के लिए निकल पड़ी। धर पकड़ होनी शुरू हुई तो ज्यादात्तर थोकदार भूमिगत हो गए। उनके भूमिगत होने पर उनके गाँव व पट्टियों से जिसे भी ताम्रपत्र, पट्टे व सनदें दी गई थी वह सब जब्त कर लिए गए व उनके हथियार भी जब्त कर लिए गए जो आज भी मालखाने में मौजूद हैं।

यहाँ सिर्फ थोकदार हि नहीं नपे बल्कि गाँव के तत्कालीन पदान व मुखिया लोगों पर भी गाज गिरी और उन्हें अपने पदों से हाथ धोना पड़ा। इस बात की प्रमाणिकता यह है कि हमारे वंशज पंडित माधवराम इष्टवाल के पुत्र केदारदत्त इष्टवाल  जिनका ब्रिटिश भूलेखागार में जिनका नाम केदारु इष्टवाल भी लिखा गया है, से भी पदानचारी छीनी गई थी व उनके स्थान पर बिजई राम पुसोला पुत्र नित्या पुसोला को पधानचारी मिली व उसके पश्चात हरकू थपलियाल पुत्र नडू थपलियाल को पधानचारी मिली लेकिन कालांतर में किसी घटना के चलते यह पदानचारी हर्कू थपलियाल से हर्कू कंडारी पुत्र नडू के पास चली गई। बाद में हर्कू कंडारी के पिता का नाम  सोबनु कंडारी दर्ज किया गया इसके बाद देश स्वतंत्र होने तक कंडारी ही गाँव के पदान रहे।

बहरहाल खिर्सू के ऊली गाँव में आज भी काठ के बद्दी रडाने की परम्परा है. जिसकी रस्सी के टुकड़े को प्रसाद में घर ले जाने की परम्परा है। मूलतः यह परम्परा (कुप्रथा) खेत खलिहानों व पशुधन की खुशहाली के रूप में प्रचलित थी लेकिन वर्तमान में पलायन की मार कहिये या फिर इसी जाति का श्राप…! बारहस्यूं की ज्यादात्तर पट्टियों के गाँव वीरान हो गए हैं व उनके खेत बंजर…!

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