लोक समाज में इस तरह पहुंचे सैदेई गीत। एक नारी के इस रूप पर आपके भी आंसू आ जाएंगे।
(मनोज इष्टवाल)
अब जबकि ढोल के बोलों की हर थाप की पीड़ा, खुशी और कलरव के शब्द निनाद करते हुए हृदय की गहराई में इसलिए उतरने लगते हैं क्योंकि ढोल पर बर्षों का ब्यापक शोध उसके निर्माण से लेकर नाद तक के ढोल सागर का ज्ञान करवाने लगा है तब हवाओं फिजाओं में तैरते चैत्र मास के ढोल की थाप (चैती पसारा/चैती दान) में आवजी के मुख के स्वर, गंदर्व विधा के ज्ञाता बादी समाज की ढोलक की थाप व सैदेई गायन में उमड़ी घुमडी घुंघुरुओं की पीड़ा पर पहले हम वाह वाह करते थकते नहीं थे। लेकिन इस समाज के अंतस से उभरे सैदेई के गीतों की पीड़ा शायद अंतर्मन तक इसलिए नहीं पहुँचती थी क्योंकि हम ढोल की थाप में नाचती माँ पार्वती स्वरूपा बदीण (वादिन) के हाव भाव और घुंघुरुओं पर ही उलझे रहते थे। वहीं ढोल की थाप में लगे पैंसरे को ही देखते हमने कभी उन शब्दों की पीड़ा नहीं महसूस की जो सचमुच दिल चीर देते है।
“घैणी कुलयूँ तुम छांटी ह्वैजा, हे उच्ची डांडयूँ तुम निसि ह्वैजा, मी थैंकि अपणु मैत दिखण द्या।” हो या फिर सिंहनाद में वर्णित भजन सिंह “सिंह” द्वारा अंकित वह गीत जो उन्होंने 1927 में टेका-गंगोटयूँ के जंगल में किसी घसियारी के मुंह से सुने उत्कंठ बोल-“मैतुड़ा बुलाली ब्वे बोई होली जौं कि, मेरी जिकुड़ी मा ब्वे कुएडी सी लौंकि..” रहे हों, जैसे अनेकोनेक गीत सैदेई के सब शब्द बनकर अनन्तकाल से आज तक हमारे लोक समाज में गूंजते हैं। आखिर कैसे बने ये सैदेई गीत! लोकसमाज में किस परिकल्पना से हुई सैदेई गीतों की संरचना आइये उसके पीछे की कहानी बताते हैं।
सैदेई एक ऐसी खूबसूरत लड़की थी जिसके बारे में कहा जाता था कि वह रुई की तरह हंपली (हल्की) नौण (मक्खन) सी कोमल और तीज सी जून (पूरी खिली चन्द्रमा) की भांति थी। उसने अभी अभी बाल्यापन से युवावस्था में कदम बढ़ाए थे कि उसके रूप यौवन की चर्चा दूर देश तक होने लगी। गरीब घर में जन्म लेना भी बेटियों के लिए दुविधाजनक हुआ। सैदेई के साथ भी ऐसा ही हुआ और दूर देश का कोई व्योपारी उसे खरीदकर ले गया या ब्याह कर ले गया।
वह चार पर्वत पार ऐसे मुल्क में आ गयी थी जहां से उसका मायका नहीं दिखता था वह रोज अपने मायके की याद में घण्टों रोया करती लेकिन लोकलाज से किसी को बता भी नहीं सकती। वह जब भी जंगल जाती तभी एक ऊंचे से पहाड़ पर चढ़कर कोशिश करती की काश…सामने के पहाड़ छोटे हो जाते और मैं अपना गांव देख पाती। इसी बहाने उसने वहां प्रतिदिन बैठने के लिए पत्थरों की एक चौंरी (चबूतरा) चुन लिया। फिर एक दिन वह तिलंज का एक छोटा सा पेड़ उसमें रोपती है और उसे अपने मायके की डाली (पेड़) समझकर प्यार करने लगती है। वही पेड़ कभी उसकी माँ होता कभी बाप तो कभी गांव की कोई सखी।
त्यौहार आते तो वह उस दिन खूब रोती। क्योंकि उसकी ससुराल की अन्य सहेलियों के मायके से उनके भाई आकर दिशा भेंट (शगुन) दे जाते कुशल क्षेम पूछ जाते। लेकिन सैदेई के घर से कोई नहीं आता। ऐसे में वह बावरी सी हो उठती व यहीं चौंथरी/चौंरी में उस पेड़ के साथ अपना दर्द बांटती व बन देवियों व अपने ससुराल की माँ भवानी से अपने माँ पिताजी के लिए वंश वृक्ष के रूप में भाई मांगती ताकि वह आकर उसके मायके की ख़बरसार दे जाय।
एक दिन माँ भवानी प्रसन्न हुई व उसके सपने में आकर बोली-सैदेई जा मैंने तेरी मन इच्छा पूरी की। सैदेई कहती है! हे माँ अगर ऐसा हुआ तो मैं तुझे अष्टबली दूंगी। दिन महीने साल बीतने लगे। सैदेई हमेशा अपनी करुण पुकार लगाया करती। अब उसके दो बेटे भी हो गए लेकिन उसे क्या पता था कि उसके मायके में उसके भाई ने भी उसी साल जन्म ले लिया है जिसका नाम माँ पिता ने प्यार से सदेऊ रखा है। एक रात सदेऊ को सपना होता है और वह सपने में देखता है कि उसकी एक बहन भी है जो ऊंची चोटी में तिलंज के वृक्ष के नीचे से उसे पुकार रही है। उसने सुबह अपना सपना माँ को बताया कि माँ तूने कभी क्यों नहीं बताया कि मेरी एक बहन भी है। मैं इतना बड़ा हो गया हूँ और एक बहन के लिए तरसता रहा। तू इतनी निर्दयी कैसे हो गयी।
मां रोती हुई पहले तो कहती है कि तुझे कोई भरमा रहा है लेकिन बेटे को अडिग देखकर सारी कहानी बता देती है। अब सदेऊ प्रण कर लेता है कि वह अपनी बहन से मिलने जाएगा। माँ रोकती हुई कहती है – बेटे मत जा, चार पहाड़ पार तेरी बहन की शादी हुई थी वह अभी जीवित है भी या नहीं। तू इतना लंबा सफर कैसे तय करेगा। सदेऊ बोलता है माँ, चलने के लिए पैर हैं नदी नाले पार करने के लिए भुजाएं व हाथ हैं। विपत्ति से लड़ने के लिए धैर्य साहस व कुलदेव का आशीर्वाद है। सदेऊ कई दिन भूखा प्यासा आखिर उस चोटी पर स्थित उस चौंरी व तिलंज के पेड़ तक पहुंच ही जाता है जो उसके सपने में दिखाई दिया था।
वहीं से वह भावविभोर होकर अपनी दीदी सैदेई को बुलंद आवाज देता है- सैदेई दीदी तुम कहाँ हो। देख मैं तेरा भाई तुझे लेने आया हूँ। खेतों में काम कर रही महिलाएं जब यह आवाज सुनती हैं तो दंग रह जाती हैं। उन्हें भी अपने कानों पर विश्वास नहीं होता। सैदेई के कानों में रुणाट (भिनभिनाहट) और हृदय में गाजू (गूंज) सुनाई देती है। सैदेई दीदी मैं तुझे लेने आया हूँ। सैदेई ऐसे मजाक से बहुत रोती है। कहती है -हे माँ भवानी । कम से कम अब उम्र के इस पड़ाव पर तो ऐसा मजाक मत कर। लेकिन कुछ घँटों बात जब अपने हाथों में टप टप गिरते गर्म आंसू महसूस करती है तो उसकी तंद्रा टूटती है। गांव वालों के साथ एक बांका बेहद मासूम उसकी ओर टक लगाए ताक रहा था जिसकी आंखों से अपनी बहन के मिलने की खुशी के आंसू छलक रहे थे। कुछ देर बाद अपने को नियन्त्रित करने के बाद सदेऊ सारा हाल सुनाता है। भाई को पाकर सैदेई को अपनी प्रतिज्ञा याद आ जाती है। अगली सुबह वह माँ भवानी की अष्टबली की वेदी तैयार करवाती है और बलि स्वरूप जैसे ही पशु बलि देने की बारी आती है तो आकाशवाणी होती है- सैदेई पशु बलि नहीं मुझे नरबलि चाहिए।
सैदेई को कुछ नहीं सूझता और वह खुद की बलि देने को तैयार हो जाती है। फिर आकाशवाणी होती है कि स्त्री बलि मैं ग्रहण नहीं करती मुझे तेरे भाई कि बलि चाहिए। सैदेई खूब विलाप करके गुजारिश करती है कि हे माँ , मैं भाई की बलि कैसे दूंगी। उस से मेरे मायके का कुल सूना हो जाएगा। फिर आकाशवाणी होती है कि देख बलि तुझे देनी ही होगी चाहे भाई की दे या फिर अपने दोनों पुत्रों की। सैदेई की अनुनय विनय के बाद भी जब माँ भवानी नहीं मानती तब सैदेई चंडी रूप ले लेती है और माँ भवानी का खटग (खुखरी) उठाती है। वहां देखती है उसके दोनों अबोध बालक मामा की खुशी में नाच रहे हैं खूब मगन हो रहे हैं। सबसे कहते फिर रहे हैं कि देखो मेरे भी मामा हैं। माँ का ममत्व उलारे मारने लगता है। सैदेई के आंखों से बरसने वाले आंसू खून की बूंद सी टपकने लगते हैं लेकिन दृढ़ प्रतिज्ञा कर चुकी सैदेई अपने बच्चों को सुबह ही पहनाए सजीले कपड़ों को उतारने लगती है। बच्चे मासूमियत से बोलते हैं- माँ ये कपड़े अच्छे हैं इन्हें ही पहने रहने दो न। माँ हृदय में पत्थर रखकर बोलती है- तुम्हारे मामा इस से अच्छे कपड़े लाये हैं और कपड़े उतारते ही उनके सिर धड़ से अलग कर देती है फिर खूब विलाप करके रोती है। और अंत में धड़ वहीं छोड़कर दोनों के कटे सिर कपड़े में ढककर बलि मंडप में पहुंचती है। गांव वाले हतप्रभ हैं कि आखिर यह सब सैदेई जैसी दयावान कर कैसे सकती है। जैसे ही वह सिर बलि मंडप पर रखने को होती है फिर आकाशवाणी होती है कि बिना धड़ के भला बलि कैसे सम्भव है। सैदेई धड़ लेने वापस घर जाती है तो देखती है उसके दोनों बेटे अपने मामा के साथ खेल रहे हैं। वह माँ भवानी का शुक्रिया अदा करती है वहीं माँ भवानी प्रकट होकर कहती है यह महामाया का खेल रचा था। तू परीक्षा में पास हुई। बोल तुझे क्या चाहिए। सैदेई कहती है – माँ तेरा आशीष मेरे मायके व घर दोनों पर बना रहे।
मुझे नहीं लगता कि हम में से लगभग 95 प्रतिशत लोगों ने सैदेई गाते हुए कभी किसी आवजी की आंखों में तैरते आंसू देखे होंगे या फिर किसी मां की बहती आंखों पर गौर किया होगा लेकिन मैं अपने को भाग्यवान समझता हूं कि मेरे बचपन ने मुझे यह सब मेरे लोक समाज में दिखाया। बमुश्किल सात या आठ साल की अवस्था में मेरे गांव के ढोल मर्मज्ञ आवजी शत्रु दास से मैंने यह सैदेई सुनी थी और आंखों से टपकते आंसू गाते गाते भी देखे थे तब अपने पिताजी से पूछा कि ये क्यों रो रहे थे। यकीन मानिए पिताजी ने सैदेई की तरह मेरी एक बुढ़ी (पिताजी की फूफू) का किस्सा इससे जोड़ते हुए सुनाया था कि जब भी उन्हें अपनी फूफू की याद आती है तभी उनके आंसू आ जाते हैं, और उन्हें शत्रुदास की सैदेई में अपनी फुफु का वह बाल्यापन याद हो जाता है जो मात्र 4 साल की आयु में दूर टिहरी गढ़वाल के किसी गांव ब्याही गयी थी व अपनी माँ से विदा लेते वक्त बोली थी कि “माँ पैली मी दूधी पिलाई दे, तब जौलु अपणा सैसुर।”
यह बताते बताते पिताजी की आंखें छलक गयी थी। उन्होंने बताया कि पूरी उम्र वे अपनी फूफू से मिलने को तरसते रहे। जब रिटायरमेंट के बाद उन्हें पता चला कि फूफू दिल्ली रहती है तब वह उनसे मिलने गए लेकिन उनके पतिदेव का शायद पिताजी के प्रति माकूल व्यवहार पिता जी को नजर नहीं आया और उसके बाद पिताजी दुबारा कभी नहीं गए। लेकिन उन्हें इतनी खुशी तो रही कि वे फूफू को अपनी पूरी उम्र में एक बार जरूर देख पाए। आज न पिताजी हैं न हमारी बुढ़ी । फिर भी मेरे मन में एक कसक है कि काश…सैदेई की तरह मेरी यह पपीहे सी प्यास शांत हो पाती और मैं अपने पिताजी की फूफू के गांव उनके नाती नातिनों से मिल पाता ताकि उन्हें खुशी उस लोक में हो पाती कि कोई तो है मेरा मैती जो मेरी आज भी सुध लेने आया है। हो न हो पिताजी की फूफू भी सैदेई सी प्राण पिपासा में अपने मैतियों का इंतजार कर रही हो।
मुझे लगता है कि आज सैदेई जैसे कारुणिक गीत संरचना संसार लगभग समाप्त हो गया है क्योंकि न अब वह खुद ही बची है और न भाई बहन के रिश्तों की गहराई…! लेकिन वह वक्त दूर नहीं जब पहाड़ों में पहाड़ियों के मन की पीड़ा सैदेई बोलों सी तैरेगी। जैसे मेरे मन की पीड़….!