Tuesday, June 17, 2025
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बेपनाह दर्द से सजी हैं लोकगायक नरेन्द्र सिंह नेगी की ये पंक्तियाँ-मेलु घिन्घोरा की दाणी खैजा..छवाया दूँल्यूं को पाणी पेजा…!

बेपनाह दर्द से सजी हैं लोकगायक नरेन्द्र सिंह नेगी की ये पंक्तियाँ- मेलु घिन्घोरा की दाणीखैजा..छवाया दूँल्यूं को पाणी पेजा…!
(मनोज इष्टवाल ट्रेवलाग 1994)
बूढ़े माँ बाप जब बेसहारे गॉव के खेत खलिहानों में अपनी लाचारी के उद्गार और आंसू बहाते हैं तब लगता है कि जैसे दिल ही फूट गया हो…! यह लाचारी बेबसी में खुद देखकर व समझकर आ रहा हूँ, एक माँ का ह्रदय जितना विशाल होता है वह उतना ही भावुक भी ….! मैं पौड़ी  गढ़वाल के यमकेश्वर बिकास खंड के एक ऐसे गॉव से होकर गुजर रहा था। जहाँ एक बूढी माँ अपने घर की छोटी सी क्यारी में कुदाल से नन्हे राई के पौधों को सहला रही थी। मैं थका तो था ही मुंह से निकला – माँ जी क्य पाणी मिललू पेणु कु..! भारी तीस छ लगीं (माँ जी पानी मिलेगा पीने के लिए …बहुत प्यास लगी हुई है)
आप यकीन नहीं करेंगे मेरे इन शब्दों की प्रतिक्रया पर उस माँ के दिल की आह मुझको कितना निढाल कर गई..! वह एक टक मुझे देखती रही और अश्रुधार से लबरेज वो आँखें ऐसे लग रही थी जैसे गंगा जमुना बह रही हो।
मैं बेचैन हुआ और बोला क्या हुआ माँ जी,…..अब वह माँ संभव गई थी बोली- अभी लांदु म्यारा लाडा…अभि लांदु ..कै बरसू बाद कैन मीकु माँ बोली, मी लगी जन मेरु ब्रिजू ऐग्ये हो. (अभी लाती हूँ मेरे प्यारे..अभी लाती हूँ, बर्षों बाद किसी ने मुझे माँ करके पुकारा, मुझे लगा जैसे मेरा ब्रिजू आ गया हो) ।
इन शब्दों में इतनी पीड़ा थी की मैं सचमुच तड़फ गया, मैंने अपना बैग उतारा और आंगन में जा पहुंचा। एक मटमैले से लौटे पर पानी आया जिसे बूढी माँ ने मिटटी से सन्नी अपनी धोती के पल्लू से ही साफ़ करते हुए कहा- ब्यटा खूब जै वृद्धि होंया तेरी…। और मेरे सिर  पर अपने कर्कश हाथ (ठण्ड के कारण) फिराती बूढी माँ ने ठेठ पहाड़ी हिसाब से जब मेरे नाक और गाल का अपने हाथों से चुम्बन लिया तो लगा जैसे बेटे के विछोह की सारी प्यास आज ही बुझाना चाहती हो।
मुझे मेरी माँ याद आ गई और आँखों से सचमुच आंसू छलक पड़े। सोचने लगा कि हम कितने मतलबी हो गए हैं जिसने जन्म दिया उसके लिए समय नहीं है और जो अर्धांगनी बनकर आई है उसने यह कर्तब्य ही भुला दिया। सोचा क्या आने वाले समय में हमारी आस औलाद भी यही करेगी हमारे साथ….!
खैर यह कहानी मेरी पुस्तक “पर्वत के लोग” का एक हिस्सा है जो यथार्थ पर आधारित है।  वह माँ अपनी जीवन भर की पीड़ा को आज ही ख़त्म कर देना चाहती थी, जैसे उसे कोई मिला ही न हो जिसके पास वह अपने उदगार खोल सके। बड़ी मुश्किल से बेटे को पढ़ा लिखाकर जवान किया नौकरी लगा शादी की, तो अब सिर्फ नाती पोतों के साथ अपनी ससुराल तक आता है, जबकि गॉव ज्यादा दूर नहीं है। कहानी बहुत लम्बी है जिसका सार मैंने इसमें लिखा है। गुड की चाय पीकर और ढबाड़ी रोटी नमक के साथ खाकर जब में गॉव के ढलान उतर रहा था। तब खेत में हल चलाते एक सज्जन रेडियो पर  लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी के गीत-मेलु घिन्घोरा की दाणी खैजा..छवाया दूँल्यूं को पाणी पेजा…! को सुन रहे थे …अब मैं ठेठ अपने बचपन के उन दुलार भरे क्षणों में लौट आया था। जहाँ इसी मिटटी से सन्ने कपड़ों की खुश्बू में माँ और मातृभूमि का प्यार पनपता था। मैं सारे रास्ते खूब रोया… ..! शायद यह रोना जरुरी था कम से कम मन तो हल्का हुआ। धन्य हैं नरेंद्र सिंह नेगी जी जिनके रचना संसार और बोलों में पहाड़ी मानस का जीवन बसता है।
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35 बर्षों से पत्रकारिता के प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक व सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, पर्यटन, धर्म-संस्कृति सहित तमाम उन मुद्दों को बेबाकी से उठाना जो विश्व भर में लोक समाज, लोक संस्कृति व आम जनमानस के लिए लाभप्रद हो व हर उस सकारात्मक पहलु की बात करना जो सर्व जन सुखाय: सर्व जन हिताय हो.
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