कीड़ा जड़ी से भी पौष्टिक,शक्तिबर्धक व निरोग है “नकदूण” औषधि! श्रावण माह में पर्वत क्षेत्र के जखोल में लगता हैं “नकदूण” का मेला!
(मनोज इष्टवाल)
उत्तराखंड की अगर बात हो तो यहाँ की आवोहवा में जन्म लेने वाला हर प्राकृतिक संसाधन ही नहीं बल्कि जन मांस बोली भाषा और लोक संस्कृति कदम कदम पर सतरंगी रंग बदलती रहती है! गंगा जमुना संस्कृति का गढ़वाल हिमालयी क्षेत्र यूँ भी औषधि पादपों के नाम से विश्व विख्यात है! रामचरित मानस में वर्णित “संजीवनी बूटी” की तलाश में सुषेन वैध ने पवनपुत्र हनुमान को इसी हिमालयी भू-भाग में भेज लक्ष्मण की जान बचाई थी! लेकिन अफ़सोस कि हम ऐसी अमृत औषधि को आज तक नहीं ढूंढ पाए! मेरा मानना है कि पिंडारी ग्लेशियर से लेकर आटा पीक तक या फिर अस्कोट से आराकोट तक जितनी भी उच्च व मध्य हिमालयी लोक समाज की दिनचर्या है वह औषधिया भंडारों की खान से लबालब भरा है! और इन्हीं में जब बात उत्तराखंड के उत्तरकाशी जनपद के रुपिन –सुपिन नदी की गोद में बसे पर्वत क्षेत्र की होती है तब यहाँ के विराट लोक सांस्कृतिक उत्सवों की वानगी व लोक समाज से जुड़े मेलों का हर अर्क यूँ चढ़ता है मानों इंद्र का शतरंगी धनुष हो!
२२ गाँवों के पर्वत क्षेत्र में एक गाँव ऐसा है जिसकी आबादी आज भी एक हजार परिवार के आस-पास है! यहाँ के त्यौहारों की वानगी देखने के लिए दूर दराज क्षेत्रों से लोगों का यहाँ तांता लगा रहता है! विगत श्रावण मास के २७ गते सम्पन्न हुए नकदूण मेला जिसे कामेटी की जात्रा के नाम से जाना जाता है के पीछे का सच जब सामने आया तो आश्चर्य चकित रह गया!
पट्टी पंचगाई के जखोल गाँव में २६ गते श्रावण के शांयकाल होते-होते पूरे २२ गाँव पर्वत क्षेत्र के सैकड़ों स्त्री पुरुष सोमेश्वर मंदिर प्रांगण में इकट्ठा होने शुरू हुए और देखते ही देखते ढोल बाजों के बीच तांदी गीत प्रारम्भ हुए! गीत कुछ पल के लिए रुके जरुर लेकिन फिर रात्रिभोज के बाद आँगन भर गया! मैंने जखोल के मालदार गंगा सिंह रावत व अधिवक्ता के के रावत को पूछा कि क्या ये रात भर योंहीं चलता रहेगा! जवाब कुछ यो मिला – हांजी सर ! आँगन में सुबह ४ बजे तक गायन नृत्य चलता रहेगा! ४ बजे बाद सभी महिलायें अपनी-अपनी कुदाल लेकर नकदूण खोदने जायेंगे ! सुबह से दिन भर नकदूण खोदने के बाद दिन में १२ बजे गाँव के मर्द लोग मेले की तैयारी करते हैं और जहाँ मेला स्थल कामेंटी है वहां ढोल बाजों के साथ पहुँचते हैं! आपको बता दूँ कि कामती या कामेंटी जखोल गाँव से लगभग दो से ढाई किमी. दूरी पर सरुका ताल के पास वाला स्थान है जहाँ फिर ४ बजे शांय तक २२ गाँव पर्वत का मेला जुटता है!
नकदूण नामक औषधि खोदने गयी महिलायें अपनी अपनी टोकरियों में नकदूण लेकर जब आती है तो कई लामण गीत भी गाती हैं जिनका मेला स्थल में स्वागत होता है और यहाँ जमकर तांदी नृत्य होता है! औसतन एक महिला लगभग दो से चार किलोग्राम नकदूण ही खोद पाती हैं! ४ बजे मेला समाप्त होने के बाद नकदूण को गर्म पानी के साथ खूब उबाला जाता है! इसे कच्चा नहीं खाया जा सकता! कच्चे में यह जहर के समान होता है! उबालने के बाद इसे सिलबटे या मिक्सी में बारीक करके पीसा जाता है! फिर इसे घी या शहद ले साथ खाया जाता है! इसकी खीर भी बड़ी स्वादिष्ट होती है! सिर्फ २७ गते सावन ही यह जड़ी निकलती है व इसी दिन इसे खोदकर खाया जाता है जो साल भर तक आपके शरीर का तापमान हिमालयी क्षेत्र के अनुकूल बनाए रखता है! इसकी पौष्टिकता और पौरुषता महिला व पुरुषों के लिए बराबर काम करती है! यह जड़ी बेहद शक्तिबर्धक मानी जाती है! नक़दून से लोल (खीर) व घाण (गोलियाँ) बनाई जाती हैं।
(नकदूण नामक औषधि)
नकदूण नामक जड़ी मुख्यतः सावन मास में सिर्फ और सिर्फ जखोल गाँव के बुग्याली ढालों में २७ गते सावन को ही प्रकट होती है! यह मूलतः हरे पत्तों वाले पौधों की जड़ होती है ! ठीक वैसी ही जैसे दाट्मीर-धारकोट, गंगाड, पवाणी व ओसला गाँव की हर पर्वत शिखर से लेकर हर की दून तक पाई जाने वाली नागक्षत्री के पौधे से मेल खाती है ! नागक्षत्री को कीड़ाजड़ी जैसा शक्तिबर्धक माना गया है व विगत कई सालों से इसका यहाँ जमकर दोहन भी हुआ है! लेकिन नकदूण अलग किस्म की जड़ी है क्योंकि यह सिर्फ सावन मास के २७ गते ही उत्पन्न होती है और वह भी सिर्फ जखोल क्षेत्र में! यह सफ़ेद रंग की आंवले या कंचे के आकार की होती हैं! या यूँ कहें बिलकुल लाल बारीक आलू की तरह के आकार के!
इसमें मुख्यतः किस तरह के आयुर्वेदिक औषधीय गुण होते हैं इसका अभी तक कहीं परीक्षण नहीं हुआ है लेकिन इतना जरुर है कि नकदूंण खोदने के लिए एक बड़ा मेला आज भी पर्वत क्षेत्र में बेहद प्रचलित है जिसे कामटी/कामेटी की जात्रा कहते हैं! यहाँ के लोगों का मानना है कि इसी को डांडे की जात्रा कहते हैं व इसी जातर का गीत उत्तराखंड के प्रसिद्ध लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी द्वारा उस दौर में गया गया जब वे उत्तरकाशी जनपद में जिला सूचना अधिकारी के रूप में कार्यरत थे व उन्होंने गाया था- “डांडे की जातरा मेरी बिजुमा बाँठिया…ओडू आई नेडू मेरी बिजुमा बांठिया।