(सतीश चंद्र ध्यानी)
यह भी सत्य हैं कि जिस लोक समाज की लोक संस्कृति मिटनी शुरू हो जाती है, समझो वह लोक समाज अंतिम साँसे गिन रहा है, और वह कठमाली समाज कहलाने के नजदीक है। जब हमारे लोक समाज में प्रचलित तीज त्यौहार मेले-कौथिग, थाळ मिटने शुरू हो जाएँ तो यह समझ जाने चाहिये कि हमारे साथ हमारी पुरानी धरोहरें समाप्त होकर हमें संस्कृति बिमुख करने लगी हैं।
सम्पूर्ण गढ़वाल का तो पता नहीं, परंतु हमारे परगना मल्ला सलाण, खासकर नैनीडांडा ब्लॉक, से पूरी तरह से लुप्त हो चुकी,”दीसा-दान”/”बढ़ोंण” तथा “पंदोंण” की बहुप्रचलित पुरानी प्रथा। आइये जानते हैं लोक समाज में प्रचलित इन सांस्कृतिक व धार्मिक संस्कारों में मातृशक्ति के लिए बहुमूल्य इन प्रथाओं के बारे में :-
“पंदौँण”
बेटी की बिदाई के समय प्रायः मैती-औजी तथा दुल्हन के छोटा भाई के,दुल्हल के साथ बारात में शामिल होकर, लडक़ी की ससुराल जाने की प्रथा थी। बारात बिदाई के बाद,पूरे गांव से प्रति मवासा, प्रति व्यक्ति, दुल्हन की ससुराल जाने का रिवाज भी था।
साथ में कई कंडे अर्से, भूड़े पकोड़े, लड्डू,की कंडियों, तथा धान, गेहूं की बोजी के साथ में कुछ स्पेशल “बुजिना” लेकर बड़े उत्साह से अपने गांव की लड़की की ससुराल के लिये सभी ग्रामीण लोग भी शाम को लड़की की ससुराल कोचल पड़ते थे।
(“बुजिना” एक प्रकार का गिफ्ट पैक होता था जिसमें,अर्से, पकोड़े, भूड़े, उन लड़कियों के लिये बिशेष उपहार होते थे,जो उस गांव,के आस पड़ोस के रिश्तेदारी से उस गांव में व्याही गई होती थी,जहाँ हाल ही में नई दुल्हन गई है)
“पंदोंण” में शामिल ग्रामीण लोगों के लड़की की ससुराल पहुंचते हीनव ब्याहता दुल्हन अपनी ननदों के साथगांव के बाहर ही अपने मैती-औजी लोगों के ढोल दमाऊं के साथ अपने मैतियों का स्वागत करने जाती थी। खुश होकर अपने मैती गांव के लोगों के साथ अपनी ससुराल वाले घर में प्रवेश करती थी। सभी गांव वालों का परिचय लड़की की ससुराल पक्ष में सभी लोगों से होता था। उसके बाद मैती गांव का भी कोई बड़ा सयाना व्यक्ति अपने गांव से आये सभी लोगों का परिचय भी लड़की की ससुराल के सभी लोगों से करवाता था।
इससे आपसी सभी ग्रामीणों की आत्मीयता बढ़ती थी। साथ ही गांव के प्रत्येक सदस्य को अपने गांव की लड़की की ससुराल के बारे में सब कुछ विस्तार से पता चलता था। उनका घर-बार, मकान गौशाला, घास-पाणी, जंगल, गाय, बैल भैंस, बकरी, खेती-बारी इत्यादि का पूरी गहनता से लोग अध्य्यन भी करते थे। वापस आकर गांव की महिलाओं को सारा वृतांत सुनाते थे। खास कर लड़की की माँ, चाची, ताई, दादी इत्यादि जो अपनी बेटी की ससुराल के बारे में चिंतित रहते थे। उनको लोगों द्वारा बताये गये समाचारों से आत्म संतोष भी मिलता था।
रात का खाना लड़की की ससुराल वालों के हाथ से ही बनता था। अगले दिन सुबह का भोजन लडक़ी के गांव वालों की डिमांड का होता था। सूचना भेज दी जाती थी कि कितनी दाल, कितना चावल, कितना नाली घी यहां तक कि कहीं कहीं एक दो बकरों की भी मांग हुआ करती थी।
दिन का भोज बनाने का काम लड़की के मायके वाले स्वयं करते थे। उस भोज में गांव के मुख्य-मुख्य प्रभावी, गणमान्य व्यक्तियों को भी आमंत्रित किया जाता था। फिर सभी मैती ग्रामीण सभी लड़की के ससुराल पक्ष के ग्रामीणों से बिदाई लेते हुये वापस अपने गांव वापस आ जाते थे। मैती-औजी बाद में लड़की के साथ ही दुवर-बाट आते थे।
“दीसा-दान”/”बढ़ोंण”
यह एक ऐसी प्रथा थी जिससे आपसी आत्मीयता और अधिक बढ़ती थी। जब किसी लड़की के संतान होती थी तो उसके मायके के मैती-औजी अपनी अपनी सामर्थ्य अनुसार नवजात शिशु के लिये कपड़े, हँसुली, धगुली तथा अपनी दीसा के लिये भी एक साड़ी ब्लाउज खुद लेकर जाते थे। उसके बाद लड़की की ससुराल पक्ष से भी तौली, गागर, परात, कलश, ढोल-दक्षिणा, वस्त्र आदि यथा शक्ति मैती औजियों की बिदाई भी बड़े मान सम्मान के साथ की जाती थी।
अब धीरे धीरे इन प्रथाओं का चलन समाप्त हो चुका है। अब तोखास रिश्तेदारों को भी पता नहीं होता कि बेटी किस घर में ब्याही है, गांव के बारे में जानने की बात तो दूर की बात है।
समय परिवर्तन शील है। रीति रिवाज समयानुसार बदलते ही रहते हैं।
यकीनन इन प्रथाओं के सिमटने के. साथ-साथ हम सबके आचार-विचार भी सिमटकर बेहद संकुचित हो गए हैं।दीसा=दान”/”बढ़ोंण” प्रथा सम्पूर्ण गढ़वाल मंडल में फैली हुई थी। चैत्र मास का दान मांगने अपने मायके की ध्याण/दीसा (बेटी) के यहाँ तब आवजी (वृत्ति समाज के लोग जिन्हें कहीं औजी तो कहीं ढाकी नाम से जाना जाता है) लोग जाया करते थे। जबकि फिर्ति समाज (गंदर्भ विद्या के ज्ञाता बद्दी-बादिण) के लोग जब मन हो तब जै जै कार करने जाते थे व अपनी दीसा-ध्याण की कुशल पूछ मायके में सुनाया करते थे। इन परम्पराओं में एक लोक समाज की ऐसी परिकल्पना छिपी होती थी जिसमें जाति-पाति ऊंच नीच का कोई मूल्य नहीं होता था। बेटियां तब इन वृत्ति व फिर्ति के लोगों को अपनी ससुराल की सरहद तक छोड़ने आया करती थी व अपने मायके की खुद में खूब रोती-बिलखती थी। दीसा-ध्याण को ढांडस बंधाने में ये लोग भी अपने आंसू नहीं रोक पाते थे। जाते-जाते हाथ जोड़कर दीसा-ध्याण की ससुराल पक्ष से उसकी व उसके परिवार की मंगल कामना करते थे। तब अभाव भरे जीवन में बेटी का ससुराल पक्ष लाचार नजर आता था क्योंकि तब टेलीफोन की सुविधा नहीं थी व रंत रैबार से ही काम चलता था। अब सम्पन्नता है तो यह विपन्नता आ गई है कि ऐसे बहुमूल्य तीज त्यौहार हमसे तेजी के साथ नाता तोड़कर दूर छिटकने लगे हैं।