Saturday, July 27, 2024
Homeलोक कला-संस्कृतिखैरालिंग (मुंडनेश्वर) सम्बन्धी भ्रामक ऐतिहासिक जानकारियों में सुधार करे पर्यटन विभाग।

खैरालिंग (मुंडनेश्वर) सम्बन्धी भ्रामक ऐतिहासिक जानकारियों में सुधार करे पर्यटन विभाग।

खैरालिंग (मुंडनेश्वर) सम्बन्धी भ्रामक ऐतिहासिक जानकारियों में सुधार करे पर्यटन विभाग।

(मनोज इष्टवाल)

यह यक़ीनन बेहद कष्टप्रद लगता है जब किसी ऐतिहासिक धार्मिक, सामाजिक व सांस्कृतिक धरोहरों के संरक्षण पर बिना सम्पूर्ण जानकारी व शोध के ही हम बोर्ड़ चस्पा कर भ्रामक जानकारियाँ देना प्रारंभ कर देते हैं। विकास खंड कल्जीखाल पौड़ी गढ़वाल के असवालस्यूँ पट्टी में मुंडनेश्वर नामक स्थान पर मुख्य सड़क मार्ग (थैर की ख़ाली) से 800 मीटर दूरी पर 16वीं सदी में खैरालिंग नामक मंदिर अवस्थित है जिसमें हर बर्ष माह जून के प्रथम सप्ताह में मेला लगता है। यह मंदिर असवाल जाति की थाती-माटी में अवस्थित 15वीं सदी में 84 गाँवों की जागीरदार थोकदार रणपाल असवाल के पौत्र भानदयों उर्फ़ भानदेव उर्फ़ भांदु उर्फ़ भंदो असवाल ने स्थापित किया है, ऐसा खैरालिंग की जागर में वर्णित है।

“स्याला झमाको ओडू नेडु ऐ जावा, स्याला झमाको सात भाई थैरवाला।” जागर या फिर झुमैको- “ढाक़र पैटी रे माढु थैरवाला” में इसका वर्णन मिलता है।  बहरहाल इसके विस्तार की बात न करते हुए थैर की ख़ाली में लगाए गए पर्यटन विभाग के इस बोर्ड की त्रुटियों पर पर्यटन विभाग व मंदिर समिति क़ा ध्यान आकर्षित करता हूँ कि-

1- माढु थैरवाल थैर गांव निवासी कभी दुगड्डा से ढाकर लेकर नहीं आए क्योंकि सोलहवीं सदी में दुगड्डा में बसासत ही नहीं थी। दुगड्डा को तो ब्रिटिश काल में सन 1905 में कोटद्वार के व्यापारी पंडित धनिराम मिश्र (मिश्रा) ने बहेड़ी नामक स्थान में बसाया था। ब्रिटिश काल से पूर्व कोटद्वार की स्थापना भी नहीं थी बल्कि उसके गढ़वाल में प्रवेश क़ा  व्यापारिक रास्ता चौकीघाटा (कँवाश्रम) के पास व गिंवई स्रोत के पास खोहघाटा चौकी सोलहवीं सदी में था। माढ़ु थैरवाल व उनके अन्य 06 भाई यहीं से ढाकर लेकर आए थे। जागर में खोहघाटा चौकी का वर्णन न होकर चौकीघाटा क़ा वर्णन है जिससे साफ़ विधित होता है ये सातों भाई वहीं से ढाकर लाए थे।

2- नमक का भारा माढ़ु थैरवाल ने वर्तमान मंदिर के पास न रखकर सकनौली धार (सकनौली गाँव के ऊपर) में बिस्सौण (विश्राम स्थल) में रखा था व यहीं वे शौचनिवृत्ति के लिए गए थे। पानी न मिलने के कारण वे भारा उठाना चाह रहे थे जो टस से मस नहीं हुआ। उन्हें अपनी गलती का अहसास हुआ और उनके भाइयों द्वारा नमक के भारे से खैर की लकड़ी जैसा लिंग बाहर निकाला था। बाद में उस लिंग को तब यहाँ स्थापित किया गया था जब गढ़पति भंधौ असवाल के सपने में खैरालिंग महादेव गए व उनकी कुलदेवी काली ने उन्हें भी महादेव के स्थान पर स्थापित करने को कहा। जागरों व अनुश्रुतियों में वर्णन है कि सात भाई थैरवाल गढ़पति के पास यह फ़रियाद लेकर गए थे। बाद में महादेव ने उन्हें आशीर्वाद दिया कि जा..जहां तक तेरी नज़र पड़े। यहाँ से लेकर चौकिघाटा तक तेरा राज फैलेगा। हुआ भी यही असवाल जाति 84 गाँवों की जागीर की जगह लगभग आधे गढ़वाल के गढ़पति कहलाए। इसीलिए कहा गया “अधो गढ़वाल, अधो असवाल” । भँधो असवाल का राजपाट असवालस्यूँ से महाबगढ़ चौकीघाटा व ताड़केश्वर शिखर पादप पीड़ा कंदोली, कालोंडांड़ा शिखर पादप सीला-बरस्वार तक फैला। इतना ज़रूर है कि सकनौली के पंडितों को खैरालिंग की पूजा के साथ असवाल थोक़दार द्वारा महादेव क्षेत्र की गूंठ ज़मीन दान दी गयी लेकिन वे कभी महादेव के मैती मायके वाले नहीं कहलाए। भला सम्पूर्ण भूमंडल के मालिक जा मालिक कौन हो सकता है। असवालों की थाती-माटी में बसने व उनकी कुलदेवी अधिष्ठात्री काली माँ को अपने बामाँग में स्थान देने से असवाल माँ काली के ससुरासी (ससुराल वाले) कहलाए व थैरवाल जो महादेव को लाए वे मैती  (मायका पक्ष के)।

3- राहुलसांस्कृत्यायन के ब्रिटिश काल में पैदा हुए उनकी जन्मतिथि 09 अप्रैल 1893 व वे उत्तर प्रदेश के जिला आजमगढ़ के ग्राम पन्द्रहा में पांडे परिवार में जन्में थे। उस काल में इस क्षेत्र का सबसे बड़ा मेला ज्वाल्पादेवी कफ़ोलस्यूँ में लगता था। 1909 में ब्रिटिश सर्वे रिकॉर्ड के अनुसार चौथान बिन्सर में 8000 से 10000 तक, बिल्बकेदार इडवालस्यूँ में 8000, ज्वाल्पा देवी अष्ठबली मेला में 5000 व खैरालिंग मेले में 3000 के आस पास भीड़ इकट्ठा होती थी। ज्ञात हो कि राहुल सांस्कृत्यायन ने 1910 में घर छोड़ने के पश्चात सर्व प्रथम उत्तराखंड की यात्रा की थी। ऐसे में यह कहना तर्क संगत कम लगता है कि राहुल सांस्कृत्यायन ने अपनी पुस्तक में इस मेले का जिक्र करते हुए इसे इस क्षेत्र का सबसे बड़ा मेला घोषित किया था। हो सकता है राहुल सांस्कृत्यायन के पास ऑन रिकॉर्ड आंकड़े न रहे हों और ये भी हो सकता है कि उनके काल तक ज्वाल्पा देवी मेला बंद हो गया हो। लेकिन इसमें गढ़पति भंधौ असवाल का नाम भंगु असवाल पुकारा गया है, यह भाषाई अपभ्रंशता हो सकती है लेकिन असवाल पट्टी के थाती माटी के गढ़पति रहे असवाल थोकदारों को बोर्ड में अंकित जानकारियों के अनुसार सिरे से खारिज कर देना समझ से परे है। लगता है पर्यटन विभाग ने बिना इतिहास उल्टे पलटे किसी एक व्यक्ति ने जैसा परोसा वह लिखकर इतिश्री कर दी,जोकि यकीनन ऐतिहासिक सन्दर्भों पर भ्रम की स्थिति पैदा करती है।

Himalayan Discover
Himalayan Discoverhttps://himalayandiscover.com
35 बर्षों से पत्रकारिता के प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक व सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, पर्यटन, धर्म-संस्कृति सहित तमाम उन मुद्दों को बेबाकी से उठाना जो विश्व भर में लोक समाज, लोक संस्कृति व आम जनमानस के लिए लाभप्रद हो व हर उस सकारात्मक पहलु की बात करना जो सर्व जन सुखाय: सर्व जन हिताय हो.
RELATED ARTICLES

ADVERTISEMENT