Tuesday, October 15, 2024
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हिमाचल के “आनी” राजमहल में पला- बढ़ा हुआ दुगड्डा-गढवाल का वह साधारण बालक, जिसे राजा कि रानियाँ नहलाया करती थी…

हिमाचल के “आनी” राजमहल में पला- बढ़ा हुआ दुगड्डा-गढवाल का वह साधारण बालक, जिसे राजा कि रानियाँ नहलाया करती थी…!

(मनोज इष्टवाल)

जो व्यक्ति बचपन से हि राजयोग अपने मस्तिष्क पटल पर लिखा कर लाया हो, वह भला राजयोग से कैसे वंचित रह जाएगा. ऐसा ही राजयोग का धनि पौड़ी गढ़वाल के दुगड्डा शहर के एक छोटे से गाँव सरुडा-सकाली का बालक विलास हुआ जो बड़ा होकर वेदविलास कहलाया. यह घटना ब्रिटिश काल के उस दौर कि है जब स्वतन्त्रता आन्दोलन अपने चरम पर था. देश भर में सड़कों का जाल भी नहीं बिछा था. अब ऐसे में भला दुगड्डा से सुदूर हिमाचल प्रदेश में चार साल का बच्चा राजा रघुवीर सिंह के “सांगरी-आनी” रियासत के राजमहल में कैसे पहुंचा व कैसे राजा रघुवीर सिंह की दोनों पत्नियां “विलास” को सिर्फ गोद में लेकर लाड़ करती थी बल्कि स्वयं उन्हें नहलाया भी करती थी. भला ऐसा राजसी योग का धनी कौन था? आइये जानते हैं…!

यह कहानी उस दौर की है जब ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध पूरे देश में स्वतन्त्रता संग्राम का आन्दोलन चरम पर था. दुगड्डा के नजदीकी गाँव से निकला एक होनहार बालक सम्भवतः 1935 में बरेली कालेज से एम ए करने के पश्चत पहले लाहोर में व तदोपरान्त 1940 में स्वामी तारानंद महाविद्यालय बैजनाथ जिला कांगड़ा में प्रधानाचार्य पद पर नियुक्त होता है. यह व्यक्ति और कोई नहीं बल्कि उत्तराखंड में साहित्यकार व इतिहासकार के रूप में सुप्रसिद्ध “इनसाइक्लोपीडिया ऑफ़ उत्तराखंड” डॉ शिब प्रसाद डबराल “चारण” हुए. उन्हीं के बड़े पुत्र हुए विलास डबराल जो वर्तमान में डॉ विलास डबराल कहलाये. और यह कहानी भी इसी परिवार के सबसे बड़े पुत्र के इर्द-गिर्द मंडराती आगे बढती है.

डॉ. शिब प्रसाद डबराल “चारण” कि कलम से बहे ये भावुक पल 1997 में उनकी अर्धांगिनी के स्वर्ग सिधारने के दौर में कलम से बहे वे आखर हैं जिन्होंने स्याही के साथ-साथ आँख से वे गर्म-गरम आंसू भी उसी वेग से टपकाए होंगे जिस वेग से कलम चली होगी. क्योंकि अपनी पत्नी की मृत्यु के पश्चात छपा उनका शोध ग्रन्थ “प्राग्-ऐतिहासिक उत्तराखंड” की भूमिका के पृष्ठ संख्या 05, 06 व 07 में उनके शब्दों का पीड़ा के सार के ये अनमोल यादों के पल कैद हैं. वैसे तो उन्होंने अपनी धर्मपत्नी विश्वेश्वरी देवी को अपनी इस पुस्तक में पृष्ठ संख्या 05 से लेकर पृष्ठ 21 तक लगभग 16 पृष्ठ अर्पित किये हैं जिसमें उन्होंने उनके साथ सन 1935 से 1997 तक के गुजारे अपने सुख-दुःख के सागर का समोदर (समुद्र) कैद किया है जिसमें ज्वार-भाटा जैसा उफान व ठहराव भी है तो समुद्र सी शान्ति भी… इसीलिए तो कहते हैं कि किसी भी व्यक्ति को शीर्ष कि ऊँचाई तक पहुंचाने में उसकी धर्मपत्नी का अहम् रोल होता है.

1940 का वह दौर भी किसी ज्वार भाटे से कम नहीं था तब एक तरफ स्वतंत्रता आन्दोलन चरम पर था और साथ हि ब्रिटिश सरकार कि फूट डालो व शासन करो की नीति भी चरमोत्कर्ष पर थी. ब्रिटिश सरकार इसी दशक में गरीब हिन्दुओं को प्रलोभन देकर ईसाइयत की राह पर ले जा रही थी. ऐसा हि कुछ जब राजा रघुवीर सिंह की रियासत “आनी” में हुआ व हिमाचल के कुछ उच्च जातीय राजपूत लड़के ईसाई लड़कियों के झांसे में फंसकर ईसाई बन गए थे तब राजा रघुवीर ने सनातन हिन्दू धर्मावलम्बी गोस्वामी गणेश दत्त को पत्र लिखकर किसी एक ऐसे व्यक्ति को रियासत “सांगरी-आनी” भेजने का अनुरोध किया जो अपने बुद्धि चातुर्य से इन्हें न सिर्फ सनातन हिन्दू धर्म की महानता कि प्रेरणा दे बल्कि उनका शुद्धिकरण भी कर सके.

डॉ शिब प्रासाद डबराल “चारण” लिखते हैं कि जब गोस्वामी गणेश दत्त जी ने उन्हें “आनी” जाने का अनुरोध किया तब वे टाल नहीं सके. उस समय विलास मात्र 04 माह के थे. उस दौर में महाविद्यालयों में बरसाती अवकाश मिला करता था. इसी बरसाती अवकाश के चलते में अपनी धर्मपत्नी विश्वेश्वरी व 04 माह के पुत्र विलास के साथ “सांगरी-आनी” रियासत के लिए निकल पड़ा. हम लारी से बैजनाथ-जोगिन्दर नगर, मंडी होते हुए आउट नामक स्थान पहुंचे. भयंकर बारिश के चलते हमें तीन दिन तक आउट की एक टूटी-फूटी धर्मशाला में ठहरना पड़ा क्योंकि यहाँ से न आस-पास गाँव था और न अन्य कोई संसाधन..!  बरसाती नदी-नाले उफान पर थे. आउट पहाड़ों की लगभग तलहटी पर बसा ऐसा स्थान था जिसके दोनों छोर पर दो नदियाँ उतरती है. मूलतः आउट ब्यास नदी के तट पर अवस्थित है. जो घोर बर्षा के चलते भारी उफान पर थी. यह बर्षा व नदी इस एकांत में छोटे बच्चे के साथ दिल-दहला देने वाली लग रही थी. हम बेहद कम संसाधनों के साथ चले थे क्योंकि हमें लेने के लिए राजा के घुड़सवारों को यहाँ तक आना था लेकिन भला ऐसी प्रलयकारी बरसात में कौन यहाँ पहुँचता. यह तो शुक्र मनाओ कि आउट में हि बैजनाथ महाविद्यालय का मेरा छात्र हेमराज मिल गया, वह इसी क्षेत्र का था. व वह भी अवकाश पर अपने गाँव जा रहा था. पटालों से बनी धर्मशाला भी जीर्ण-शीर्ण अवस्था में थी, जिससे लगातार पानी टपक रहा था. हमें बार बार कपडे व किताबें एक स्थान से दूसरे स्थान पर रखनी पड़ रही थी.

डॉ. शिब प्रसाद डबराल “चारण” लिखते हैं कि जो बिस्कुट रास्ते के लिए साथ लाये थे वे पहले दिन ही समाप्त हो गए थे. हमें तीन रात्रि व दो दिन भूखा ही रहना पड़ा. साथ में चार माह का अबोध बालक व धर्मपत्नी…. लेकिन धर्मपत्नी ने न कोई उफ़्फ़ की ना हि कोई शिकायत. वह जानती थी कि ऐसी स्थिति में हो भी क्या सकता है. हाँ…बच्चे के लिए उसकी चिंता उसके चेहरे पर झलक रही थी. तीसरे दिन बारिश थमी तब हेमराज ऊपर पहाड़ी में चढ़ गया व वहां के एक गाँव से दूध व चावल खरीद ले आया. हमारे पास कुछ चीनी थी, धर्मशाला में किसी भाग्यवान ने शायद हमारी तरह ठहरने के लिए चुल्हा बनाया था, वहीँ सूखी लकड़ियों की टहनियां थी. बर्तन के रूप में मेरी पत्नी एक छोटा सा डोल लेकर आई थी उसी पर जैसे तैसे खीर पकाई. व विलास को भी खीर का पतला पानी पिलाया.

डॉ. चारण लिखते हैं कि चौथे दिन आखिरकार दो खच्चर किराए पर मिले. एक में बिश्वेश्वरी व बच्चा तो दूसरे में 20 शेर भार …! मजबूरी थी. बमुश्किल वही खच्चर वाला इस लोभ से चलने को तैयार हुआ था ताकि उसे दो का किराया भाड़ा मिल सके. भाड़ा प्रतिदिन के हिसाब से तय था. सारा मार्ग नदियों की घाटियों से आगे बढ़ता था. खच्चर वाला बाढ़ कीचड़, नदी-नालों को पार करवाता प्रतिदिन 05 से 07 मील चढ़कर पड़ाव ढूंढता. यह मार्ग उसका परिचित मार्ग था तभी हर पड़ाव पर कैसे भोजन व्यवस्था का इंतजाम करना है वह भले से जानता था. जब हम लारजी, बंजार होकर जलोडी के पास 10000 फिट कि ऊँचाई पर पहुंचे तब बर्षा पूरे वेग से शुरू हो गई. कम्बल से अपने को व बच्चे को ढककर विश्वेश्वरी किसी प्रकार खच्चर पर चल रही थी. जलोड़ी से आगे खनाग का डाकबंगला था. वहां हम देर रात पहुंचे. आज हमें आउट से चले चार दिन हो गए थे. वैसे यहाँ पहुँचने तक डेढ़ से दो दिन लगते हैं. खनाग बंगले में पहुंचकर जब मैंने राजा रघुवीर सिंह का मेहमान होने का परिचय दिया तब चौकीदार अंगीठी जलाकार ले आया व हमारे लिए भोजन व बिस्तरों का प्रबंध किया.

डॉ. शिब प्रसाद डबराल ‘चारण’ लिखते हैं यह घटना आज से 55 बर्ष पूर्व अर्थात 1942 की है, जिसे पहली बार डायरी में अंकित कर रहा हूँ.

डॉ चारण लिखते हैं अगले दिन धूप थी जब हम राजमहल “आनी” से मात्र दो मील दूर थे तब हमें दो घुड़सवार मिले, जो राजा ने हमें हि लाने के लिए भेजे हुए थे लेकिन लगातार बर्षा के कारण वे यहाँ से हिल नहीं सके. उन्होंने बताया कि राजा ने तो उन्हें पांच दिन पूर्व हमें लेने के लिए उन्हें आदेश दिए थे लेकिन प्रकृति के आगे सब विवश थे. इसमें कोई संदेह नहीं कि मेरा यह कार्य व निर्णय अत्यंत संकटपूर्ण व पागलपन जैसा था. मार्ग में बच्चे को कुछ हो जाता तो औषधि कि व्यवस्था कैसे हो पाती. यही कारण भी था कि मंडी तक विश्वेश्वरी बहुत प्रसन्न थी लेकिन उससे आगे के कष्ट दाई सफ़र में बेहद भयाकुल …जहाँ वह बरसाती मलवे मंडी से आगे मोटर-लारी बरसाती मलवे में झकोले ले रही थी. वहीँ विवशता में पूरे सफ़र विश्वेश्वरी भयाकुल होकर कभी मुझे तो कभी चार माह के बच्चे कि ओर… मैं साथ था इसलिए उसे भरोसा था कि जो होगा देखा जाएगा.

डॉ. शिब प्रसाद डबराल लिखते हैं कि सांगला-आनी अर्थात “आनी” राजमहल पहुँचने पर राजा रघुवीर सिंह व उनकी दोनों रानियों ने हमारा स्वागत किया. उनकी कोई संतान नहीं थी. हम आनी दो महीने रहे. राजा साहब ने हमारे निवास व भोजन का सुप्रबन्धन किया था. उनके सेब, नाशपत्ती, नाख, जापानी फल, अखरोट आदि के तीन बगीचे थे. उनमें साग सब्जियां भी उत्पन्न होती थी. वे प्रतिदिन हमारे लिए बहुत से फल भेजा करते थे. रानियाँ विलास को खूब प्यार करती थी व उसे स्वयं नहलाती थी.

इसी दौरान आनी रियासत में हम राजपरिवार के साथ 15000 फिट ऊँचाई पर स्थित दलास मेले भी गए. यहाँ शिब मंदिर में लगने वाले मेले का दृश्यालोकन अद्भुत था. इस शिब मंदिर में बकरों कि बलि चढ़ती थी. रात को हम दलास हि ठहरे. हिमाचल-निवासी सीधे-सादे, छल-कपट, बनावट रहित भोले भाले ग्रामीण हमें बहुत अच्छे लगे. आनी के राजा रानियों का स्नेहपूर्ण व्यवहार को विश्वेश्वरी जीवन भर याद करती रही व उसके किस्से औरों को भी सुनाती रही. विश्वेश्वरी को जापानी फल बड़े पसंद थे. जब हम लौटने लगे तब रानियों ने विलास को स्वयं अपने द्वारा सिले हुए वस्त्र पहनाये. विश्वेश्वरी को कानों का स्वर्णाभूषण, साड़ी, और पश्मीने की चादर तथा एक थाली भर चांदी के रूपये देकर हें विदा किया. हमें उन्हीं घुड़सवारों के साथ विदा किया गया.

यकीनन यह शब्द जितनी सादगी भरे अंदाज में डॉ. शिब प्रसाद डबराल “चारण” अपनी पुस्तक की भूमिका में वर्णित कर गए वह उनकी महानता परिलक्षित करता है. हम जैसे आम व्यक्ति तो इस अभूतपूर्व घटना को इतना प्रसारित करते कि हर कोई जानने लगता कि वह विलास नामक बालक था कौन जिसे “रानियाँ नहलाती थी व स्वयं जिसके लिए अंग वस्त्र सिला करती थी” इस राज को 55 बर्षों तक अपने सीने में दफन करने वाले डॉ चारण ने उस बात का कहीं जिक्र नहीं किया कि कैसे उनके द्वारा एक माह चलाये गए तांत्रिक अनुष्ठान के बाद रानियाँ गर्भवती हुई व राजमहल के सारे दोष निवारण हुए. यह बात तब भी मैं नहीं जान पाता अगर मैं माँ स्वरूप उस देवी विश्वेश्वरी से नहीं मिला होता जिन्होंने मुझे इस किस्से को अक्षरत: वही सुनाया जो डॉ. शिबप्रसाद डबराल “चारण” कि पुस्तक में समाहित है. मैं तब इसे सिर्फ एक किस्सा समझकर सिर्फ “अति” मान रहा था क्योंकि तब मुझे यह विश्वास ही नहीं था कि कोई रानियाँ कभी ऐसा भी कर सकती हैं. ज्ञात हो कि दलास में अवस्थित शिब मंदिर को हिमाचल के लोग छोटा कैलाश नाम से भी जानते हैं व स्थानीय लोग इसे “जगेश्वर मंदिर” कहकर पुकारते हैं. अब दलास क्षेत्र आनी रियासत का हि अंग है कि नहीं यह कहना सम्भव नहीं है क्योंकि इस घटना का जिक्र हुए 80 बर्ष बीत चुके हैं. वर्तमान में यह कुल्लू जिले के अंतर्गत आता है.

                               

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