अन्न, प्रकृति व मानव जीवन का तारतम्य है गढ़वाल मंडल क्षेत्र का रोटल्या (रुठल्या) त्यौहार।
(मनोज इष्टवाल)
वाणीभूषण व महिधर पंचांग के अनुसार देवभूमि उत्तराखंड में विक्रम संवत राक्षस व शक संवत 1944 शुभकृत कृष्ण पक्ष प्रतिपदा के दिन उत्तराषाढा नक्षत्र पर जहाँ आज से श्रावण मास का आरम्भ होता है वहीं मैदानी भू -भाग के ज्यादात्तर क्षेत्रों में आज श्रावण द्वीतिय प्रतिपदा का दिन है। सम्पूर्ण उत्तराखंड कहना तो सम्भव नहीं लेकिन इस राक्षस संवतसर के प्रथम दिवस से गढ़वाल मंडल के कई जनपदों में रूटल्या/रोटल्या अर्थात रूठल्या त्यौहार मनाया जाता है। वहीं कुमाऊं मंडल में कल से हरेला त्यौहार शुरू होगा।
स्वाभाविक सी बात है जब मनुष्य ने जन्म लिया होगा तब उसे सबसे पहले अन्न की याद आई होगी क्योंकि भूख से बड़ा न धन है ना हो तन। अन्न, धन, मन और तन ये चार दिशाओं की तरह हैं। अन्न से भूख शांत हुई होगी तो तन को ढकने के लिए वस्त्र की, मन की शुद्धि के लिए स्नान की और अंत में बाजारीकरण के दौर में धन की आवश्यकता पड़ी होगी।
अगर हम अर्थशास्त की परिभाषा में मार्शल द्वारा दी गयी परिभाषा का जिक्र करते हैं तब मार्शल कहते हैं. “अर्थशास्त्र मनुष्य जीवन की साधारण व्यापार संबंधी, क्रियाओं का अध्ययन करता है। यह मनुष्य की उन व्यक्तिगत तथा सामाजिक क्रियाओं का अध्ययन करता है जिनका भौतिक साधनों को प्राप्त करने से तथा उनके उपयोग से घनिष्ठ संबंध है, जो मानव कल्याण के लिए आवश्यक है।”
वहीं मार्शल से कई हजारों बर्ष पूर्व ऋग्वेद के अध्याय 10 (अर्थशास्त से सम्बंध) में स्पष्ट रूप से लोगों को अपनी संपत्ति साझा करने के लिए प्रोत्साहित किया गया है, प्रासंगिक छंद (पुस्तक 10, भजन 117) में कहा गया हैः “भगवान ने हमारी मृत्यु के लिए भूख नहीं दी है, यहाँ तक कि पेट भरे हुए व्यक्ति की भी मृत्यु होती है, परोपकारी की संपत्ति कभी नष्ट नही होती है, जबकि जो कोई दान नहीं देगा उसे शांति प्राप्त नहीं होगी।”
इन दोनों प्रसंगों का बर्णन करके आप कहेंगे कि इनका मंतब्य “रोटल्या त्यौहार” से आखिर है क्या? यहां स्पष्ट करना जरूरी था कि अन्न और धन में आपसी मतभेद कहाँ उत्पन्न होता है। ये दोनों ही परिभाषाएं अन्न से धन्न की ओर बढ़ी हैं। भले ही मार्शल ने धन को ज्यादा अहमियत देने की कोशिश की हो लेकिन उस से पहले उन्होंने अन्न को मानवीय मूल्यों से जोड़कर प्रस्तुत किया है जबकि वेद व्यास ने स्पष्ट किया है कि अन्न भूख तृप्त करके प्राण रक्षा तो करता है लेकिन भरा पेट व्यक्ति भी मृत्यु के लिए अवश्य प्राप्त होता है इसलिए ऐसा परोपकार अवश्य हो कि कोई भूखा ने रहे और सिर्फ अपने पेट के लिए ही जोड़ी गयी सम्पति नष्ट ना हो।
इसीलिए भोजन ग्रहण करने से पूर्व भोजन मन्त्र पढ़ा जाता है-
“सह नाववतु, सह नौ भुनक्तु, सह वीर्यम् करवावहै।
…………….तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै।।”
जानिए रोटल्या त्यौहार की क्या परम्परा है?
आषाढ़ माह की संक्रांति अर्थात सावन माह के प्रारम्भ से ठीक एक दिन पूर्व गढ़वाल क्षेत्र के जनपदों में रोटल्या त्यौहार कभी अपनी समृद्धि के लिए प्रसिद्ध था, लेकिन आधुनिकता व भौतिकवादी युग में इस क्षेत्र ने न सिर्फ पहाड़ से पलायन ही नहीं किया बल्कि इसकी लोक परंपराओं को मैदानी क्षेत्र में बसते ही तिलांजलि दे दी। आज लगभग 80 प्रतिशत उत्तराखंडी जनमानस इस त्यौहार के बारे में नहीं जानता। यह त्यौहार वर्तमान में गंगा घाटी क्षेत्र के मालन नदी क्षेत्र, थलनदी, बिंध्यावासिनी क्षेत्र अर्थात यमकेश्वर विधान सभा क्षेत्र तक ही सिमट कर रह गया है।
यह भी अद्भुत संयोग ही कहा जा सकता है क्योंकि उत्तराखंड के गढ़वाल मंडल क्षेत्र का यह वह हिस्सा है जो सबसे ज्यादा मैदानी क्षेत्र से लगा हुआ है लेकिन फिर भी इसने यहां तीज त्यौहार परम्पराएं बचा कर रखी हैं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण इस क्षेत्र में मनाया जाने वाला गेंद का मेला है, जो राजस्थान मूल से होता हुआ आज भी अपनी जड़ों को सैकड़ों बर्षों से सींचे हुए है। मूलतः अन्न और प्रकृति को समर्पित यह त्यौहार मानव सभ्यता का वह प्रयोग कहा जा सकता है जो उसने अपनी भूख मिटाने के लिए कन्द मूल फल, कच्चा मांस खाने के बाद सभ्यता की पहली देहरी पर कदम रखते हुए अग्नि प्रज्वलन के साथ प्रारम्भ किया होगा। इसी अन्न में ‘गेहूं’ को सबसे पवित्र स्थान मिला है। ऋग्वेद में गेहूं के उत्पन्न होने के बाद उसे किस तरह प्रयोग में लाया गया उसका उदाहरण कुछ इस तरह है-
• गेहूं जमीन पर चार अंगुल की दूरी पर उगता है।
• गेहूं की पहली बाली अग्नि को समर्पित।
गढ़वाल में गेहूं की इस अध-पकी बाली को अग्नि को समर्पित कर “ॐ मी” अर्थात ऊमी बनाई जाती है। जिसे शिब प्रसाद समझ ग्रहण किया जाता है।
• बाली पकने पर मुट्ठी भर दाना पक्षियों को।
• फसल काटने पर बाली से नीचे का हिस्सा पशुओं को।
• गेहूं से आटा बनाये जाने पर मुट्ठी भर आटा चींटियों को।
• चुटकी भर आटा मछलियों को।
• पहली रोटी गौमाता।
• पहली थाली बुजुर्ग।
• दूसरी थाली सबकी।
• अंतिम अंश रोटी कुत्ते की।
यही सब परम्पराएं तो हमारे गढ़वाली सामज के आम जीवन में गाहेबगाहे शामिल हैं। तो फिर हम क्यों अपने एक ऐसे त्यौहार को पीछे छोड़ आये जो हमें अन्न, धन, मन, तन और प्रकृति से जोड़े रखता है।
यह सब प्रक्रिया ऋग्वेद में वर्णित है लेकिन नई फसल के गेहूं से बनी रोटी व पकवान ने जब पेट का हाजमा खराब करना शुरू किया तब मानव ने अपनी प्रयोगधर्मिता के आधार पर इसका उपयोग व उपभोग ऐन ऐसे माह में शुरू करने की युक्ति ढूंढी जब चारों ओर हरियाली से पहाड़ ढक जाते हैं। मानव जीवन के लिए कन्द मूल फलों की अधिकता तो होती है लेकिन घर में बचे अन्न जिसमें खेतों में दाल बोए जाने के बाद बची दालें, गेहूँ की नई फसल इत्यादि प्रमुख हैं, उनके आहार का प्रमुख अंश रहता है।
ऐसे में इन्हें उपयोग में लाने के लिए गढ़वाली जनमानस ने “रोटल्या त्यौहार” की खोज की। यह बरसात के समय का शुरू होने वाला पहला लोकपर्व था। जब गेँहू जौ की फसल कटने के बाद खेतो में मंडुवा, झंगोरा, कौणी आदि की फसल की बुवाई हो जाती थी। गेंहू के फसल होने के बाद नई फसल से प्राप्त नए गेंहू के आटे का उपयोग मे नही लाया जाता है, क्योकि नए गेंहू के आटे को खाकर पेट लग जाता था, अतः किसान तीन माह बाद इसके आटे का उपयोग करते थे। साथ ही आषाड़ माह में दलहनी फसल जिसमे गहथ, उड़द, लोभिया, सूंट आदि कि फसल खेतो में बो देता था, इन दलहनी फसल के बीज से जो बच जाता था, उसका नए गेंहू के आटे की रोटी को गहथ, लोभिया सूंट आदि को पीसकर उसके मसीटे को रोटी के अंदर भरकर स्वाले या भरी रोटी बनाई जाती थी। गेंहू के आटे व गुड़ के घी में पकाए रोट बनाकर पर्वतीय ग्रामीण कृषक अपने भूमि देवता, बेमाता, कुल देवता, स्थान देवता, क्षेत्रपाल देवता, वन देवी-देवताओं को अक्षत, पुष्प, धूप-दीप के साथ अर्पित करता था ताकि अतिवृष्टि से उनको जनहानि, भूमिहानि, पशुहानि व अन्न हानि न हो।
तीन माह बाद गेहूँ को इस्तेमाल करने के लिए उसमें मंडुवे के आटे का मिश्रण कर ग्रामीण उड़द, गहथ, तोर, रयांस इत्यादि विभिन्न किस्म की दालों को एक दिन पूर्व भिगोकर रखते थे। अगले दिन यानी “रोटल्या त्यौहार” के दिन चूल्हा चौका कर पहले देवताओं के भोग को पकाने के लिए आग प्रज्वलित करने के बाद चूल्हे के ऊपर विराजमान पितृ देवताओं की अग्नि अंगारों में घी डालकर व पीली पिठाई के साथ पूजा होती है। फिर देव पकवान बनाये जाते हैं व अंत में विभिन्न भिगोई गयी दालों को पीसकर उसमें यथसम्भव नमक मिर्ची मसाले का प्रयोग कर गूंथे गए आते की गोलियों के बीच मसेटा (पिसी दालें) भरकर भरवी रोटी बनाई जाती हैं। गृहणियाँ तैका चढ़ाकर इसके पकोड़े, भरे स्वालै (भरवा पूडियां) व तवे में लगड़ी (मीठी-नमकीन) भी बनाया करती हैं।
हरीश कंडवाल बताते हैं कि एक और लोक मान्यता अनुसार पहाड़ी क्षेत्र में खरीफ़ की फ़सल में कौणी। (एक प्रकार का पहाड़ी अनाज) यह त्यौहार कौणी की बाल आने के उपलक्ष्य में मनायी जाती है। कहते हैं कि कोणी की बाल हमेशा सावन की संक्रन्ति से पहले आ जाती है।
एक ओर बरसात में जब सभी प्रकार के अनाज के बीज मौसम की नमी के कारण उगने लगते हैं (बीजों का जर्मिनेशन) तो हमारे कुछ शाकाहारी पक्षी जैसे गौरैया, घुघुती, आदि पक्षियों के लिए भोजन का अकाल हो जाता है तब यही कौणी प्रकृति में उनके भोजन का एक मात्र सहारा होती है।
पूर्व में सावन के पवित्र मास में इन पक्षियों को जिमाने का भी प्रचलन हमारे पहाड़ी क्षेत्रों में खूब था। इनके भोजन की व्यस्था के लिए लोग अपने आँगन में इन पक्षियों के लिये अनाज के दाने डाल कर चुगाते थे। आज जहाँ गौरैया को बचाने की एक मुहीम लोग चला रहे हैं वहीं हमारे ये लोक पर्व पहले से प्राकृतिक सन्तुलन को बनाये रखने में सहायक थे।
बर्षों उत्तराखंड के खानपान को समर्पित करने वाली उत्तराखंड रसोई के रूप में गढ़वाली पकवानों को ऊंचाइयों तक ले जाने वाली वरिष्ठ कांग्रेसी नेता व समाजसेविका श्रीमती विजय लक्ष्मी गुसाईं को यही मलाल है कि हम न अपने खानपान को ही बचा पा रहे हैं, न अपने तीज त्यौहारों को ही सम्भाल पा रहे हैं। वे कहती हैं कि जितनी तेजी से हमारी सामाजिक परम्पराओं व लोकसंस्कृति के मूल्यों का ह्रास हो रहा है, उस से अब यह डर लगने लगा है कि आने वाले 50 बर्षों के बाद क्या उत्तराखंड़ी जनमानस का अस्तित्व बचा रह पाएगा। क्योंकि जिसकी जिस समाज की लोकसंस्कृति खत्म हुई उसका वजूद ही नहीं रह जाता। सौ साल पूर्व यूनान, मिस्र, रोम जैसे विकसित और भौतिकवादी देशों ने जब अपनी लोकसंस्कृति से किनारा किया तो उनका वजूद ही मिट गया।
श्रीमति विजय लक्ष्मी गुसाईं की पीड़ा है कि उन्होंने गढ़वाल के पकवानों को देश के कोने-कोने तक पहुंचाने का प्रयास किया। लेकिन दुःख इस बात का है कि हमारी सरकारों ने इसे प्रमोट करने का यत्न नहीं किया। उन्होंने कहा कि रोटल्या त्यौहार आज ज़्यादात्तर लोग जानते भी नहीं हैं लेकिन कुमाऊं का हरेला अब गढ़वाल मंडल भी मनाने लगा है इसकी ब्रांडिंग के लिए हमें पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत की प्रशंसा करनी होगी क्योंकि उन्होंने सिर्फ हरेला नहीं बल्कि उत्तराखंड़ी खानपान को भी प्रमोट किया है।
कैसे रोटल्या त्यौहार को प्रमोट करें?
हरीश कंडवाल मनखी इस त्यौहार को कैसे आगे बढ़ाएं उसके बारे में जानकारी देते हैं कि इस साल रूटल्या त्यौहार 15 जुलाई 2022 को है, हम सभी उत्तराखंड के लोग इस त्यौहार को अपने उत्तराखंड के अनाजो एवं भू कानून से जोड़ते हुए मना सकते हैं, हम सभी लोग 15 जुलाई को अपने घरों में उत्तराखंड के दलहनी अनाजो जैसे गहथ, सूंट, लोभिया, तोर आदि जो भी उपलब्ध हो उसके स्वाले या भरी रोटी बनाकर परिवार के साथ बैठकर खाये, एवं इस दिन सभी लोग इस मुहिम के साथ उत्तराखंड में भू कानून के सम्बंध मे अपने पैतृक आवास एवं भूमि कि फ़ोटो सोशल मीडिया के माध्यम से स्वाले या भरी रोटी के साथ शेयर कर इस लोकपर्व को पुनः जीवित करते हुए अपने अनाज एवं भू कानून की आवश्यकता को प्रदर्शित कर सकते हैं क्योकि इन लोकपर्वो को आगे की पीढ़ियों को हमने क्रिएटिव बनाकर सौंपना है। आइये आप भी इस मुहिम को सफल बनाइये अपने लोकपर्व को उत्तराखंड के अनाजो एवं, भू कानून से जोड़कर इसे आगे बढ़ाइए। भूले हुए लोकपर्व को पुनः संचारित करे। साथ ही अपने अपने परिचितों को इस लोकपर्व को मनाने की अपील करे।