Thursday, August 21, 2025
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कफोलस्यूं का स्वर्णिम गाथा-काल और मेरा गॉव धारकोट !

(मनोज इष्टवाल)
उत्तर में पैडूलस्युं, दक्षिण में जैन्तोलस्यूं, पूर्व में खातस्यूं व मवालस्यूं पश्चिम में असवालस्यूं, उत्तर पश्चिम में पटवालस्यूं  से अपनी सीमाएं बाँटता कफोलस्यूं के पश्चिमी क्षेत्र में खरगढ़ जिसे हिमालयन गजेटियर में अटकिन्सन ने खर नदी पुकारा है, व उत्तर में पैडूलस्यूं से निकलने वाली इडगढ़ तथा पूर्व में पश्चिमी नयार से कटता हुआ यह क्षेत्र लगभग अंडाकार है। जो उत्तर में सर्क्याना गॉव दक्षिण में क्वाला –सिल्डी गॉव पूर्व में कोलडी-सिमतोली और पश्चिम में सिलेथ-धारकोट इत्यादि गॉवों से अपनी हदबंदी करता है।  कफोला बिष्ट जाति के अधिपत्य के कारण इसे कफोलस्यूं कहा गया है।  इसके कफोला बिष्ट जाति के मूल गॉव कोलडी,भवन्यूं, मरोड़ा, ध्वीली,  बूंगा, चिन्ड़ालू, धारकोट, सिलेथ इत्यादि माने जाते रहे हैं।  कालांतर में धारकोट जिसे पूर्व में बेंगनपुर कहा जाता रहा है से बिष्ट जाति लुप्त हो गयी, और बिष्टों के गॉव बढ़ते चले गए जिनमे डांग, अगरोड़ा, नौली, तोली इत्यादि प्रमुख हैं।
धारकोट गॉव सीमाबंदी के लिहाज से अपनी वृहद सीमाएं सिलेथ, पाली, नौडियालगॉवपयासु- बूंगा से बांटता है।  कफोलस्यूं में सबसे बड़ी सीमा इसी गॉव की है। इसका नाम धारकोट इसलिए रखा गया क्योंकि इसके चोड्यूँ शीर्ष पर कोट यानि किलानुमा गढ़ था, जिसे बिष्टों की पहरेदारी का कोट माना जाता रहा है।  यह ऊँची धार में है इसलिए इसे धारकोट नाम दिया गया, जबकि बूंगा का मतलब भी गढ़ या किले से होता है और यहाँ भी बिष्ट बूंगा का एक किला गुंडरु की छानी नामक स्थान पर था जो बाद में भुतवा हो गया, और गॉव खिसककर नीचे बस गया।  सिलेथ की सरहद और ध्वीली-पयासु की सरहद के शीर्ष पर दैड-का-डांडा  है, जो एड़ी आँछरी  का स्थल माना जाता रहा है।  वहीँ जाख और थापली की सरहद के शीर्ष में जाखडाली मशहूर है, जिस पर पत्थर मारने से खून जैसा द्रव्य निकलता है। यह पेड़ मसूरी की उतुंग शिखरों से दूरबीन से देखा जा सकता है।
नानसू गॉव के शीर्ष में माँ बालकुंवारी का मंदिर है, जिसमें कभी बहुत बड़ा मेला लगता था, और यहाँ से पूरा असवालस्यूं आधा चौन्दकोट सतपुली तक का बिहंगम दृश्य देखा जा सकता है।  क्वाला-अनेथ की सरहद पर पश्चिमी नयार किनारे बिष्ट जाति की कुलदेवी ज्वाल्पा विराजमान है, जहाँ पूर्व में ब्रिटिश गढ़वाल का सबसे बड़ा मेला लगता था।  यह देवी थपलियाल जाति की ध्याणबिष्ट जाति की बहु मानी जाती  है। जिसके पुजारी अणथ्वाल जाति के पंडित हैं। बुजुर्ग बताते हैं कि कालांतर मे इस मंदिर में दीया-बाती करने के लिए अनेथ गाँव के पंडित शंभू प्रसाद अणथ्वाल के पिताजी प्रसिद्ध पुजारी हुआ करते थे, उनके बाद पंडित शंभू प्रसाद अणथ्वाल भी कुशाग्र बुद्धि के पुजारी हुए  लेकिन कुछ काल उनकी मत्ती भ्रम के कारण मंदिर में विधिवत दीवा-बाती नहीं हो पाई। सन 1939 में कोटद्वार-पौड़ी सड़क मार्ग से जुडने के बाद धीरे-धीरे इस मंदिर मे फिर रौनक लौटी और स्वतंत्र भारत में इस मंदिर में एक समिति की स्थापना हुई। वर्तमान में इस मंदिर में पूजा का अधिकार सभी अणथ्वाल (क्वाला-अनेथ-नौ गाँव) बंधुओं को पांते  के रूप मे दे दिए गए।
कफोलस्यूं अर्थात कफ़ोला बिष्टों का यूं तो मूल गाँव मरोड़ा माना जाता रहा है, लेकिन वह काम चर्चा में रहा। अगरोड़ा गाँव के बिष्टों की बसासत ब्रिटिश काल की मानी जाती है। लोगों का कहना है कि जहां आज अगरोडा गाँव व भवन्यूं गाँव बसा है वहाँ बसासत नहीं थी बल्कि यह एक पहाड़ था जिसमें तांबे की खाने थी, उन्हे आगरा से आए आगरी मजदूरों व अग्रवालों  ने खोदा इसलिए इसका नाम अगरोड़ा पड़  गया। ब्रिटिश बंदोबस्त में इसका जिक्र है । वहीं सरक्याना गाँव के सकलानी ब्रिटिश काल में बारहस्यूं के पटवारी हुआ करते थे व ब्रिटिशकाल के पश्चात भी इन्हे वंशगत पटवारी की पदवी दे दी जाती थी।
यूँ तो मेले कफोलस्यूं के नौडियालगॉव-जाखाली, धारकोट-चोड्यूँ, सिलेथ, केबर्स-पाली इत्यादि में भी लगते थे, जो अब सब सिमट चुके हैं। बाल्यकाल में मैंने जाखाली, नानसू, केबर्स व अपने गॉव धारकोट-चौड्यूँ के कई मेले देखे हैं।  वर्तमान में पयासू  गॉव के मलासी बंधु अपनी नंदा देवी की पूजा करते आ रहे हैं, जोकि दो तीन बर्षों से नियमित है।  और यह भी मेले के रूप में ही है। बर्षों पूर्व तोली गॉव ने भी नंदा की पूजा मेले के रूप में की थी लेकिन उसे वे लगातार रख नहीं पाए। बताया तो यह भी जाता है कि घीडी-कदोला गाँव के गुसाई राजपूत भी कालांतर में नंदा देवी की पूजा करते थे। माँ नंदा देवी के पुजारी घीडी व धारकोट गाँव के ढोंडियाल ब्राहमण हैं ।
अगरोड़ा बाजार का किसान मेलारामलीला बेहद लोक प्रचलित थी लेकिन वर्तमान में ये सब गुम हो गए हैं।  भौतिकवाद ने जहाँ ये थाल-मेले-कौथीग समाप्त किये हैं।  वहीँ अपनत्व का चरम भी समाप्त हुआ है। भले ही तब शिक्षित समाज कम था,और उस समाज में मेलों में आपसी अहम टकराया करते थे जिससे कई बार लड़ाई की नौबत आ जाया करती थी या हो जाती थी। आज शिक्षा ने यह दूरी समाप्त कर दी है। राजपूताना अहम और बल तब एक जूनून और जोश होता था।
हमारे गॉव के रणजीत नेगी ताऊ जी जोकि आँखों से अंधे हो गए थे पर जब हमारी कुलदेवी बालकुंवारी उतरती थी तो वे नाचते हुए मीलों दौड़ जाया करते थे। उसी समय चौड़यूँ तो उसी समय नानसूधार पहुँच जाया करते थे।  जब उनका देवरथ समाप्त हो जाता था, तब उन्हें गॉव के लोग मशालें जलाकर ढूंढकर लाते थे। ऐसे ही जमकंडी गॉव के पधान नौडियाल ताऊ जी पर जब नागराजा आता था, तब साक्षात नाग उनके समुख आ जाता था।  रीठु (बचन सिंह नेगी) चाचा जी पर जब कालभैरव नाचता था, तब वे धधकती आग के बीच बैठ जाया करते थे, एवं सुर्ख लाल ताज (बड़ी हलवाई वाली करछी) चाटा करते थे जो अंगारों में गर्म होती थी।  चित्रमणि शैली दादा जी पर जब भीम अवतरित होता था, तो वे पूरा कांटेदार सुराई का पेड़ खा जाया करते थे। आनंद सिंह कंडारी चाचा पर जब हनुमान उतरता था, तब वे साबुत पेड़ जड़ से उखाड़ दिया करते थे।  रीठु काका जी  भी जब पंडौ की रिंगौण लेते थे तो कई ढेले मिटटी सिर्फ पर फोड़कर उन्हें खाते थे। जलेबी की भरी परात व बड़े सा बड़ा तरबूज उनका आहार होता था जबकि उनका शरीर बेहद दरमियाना था। उनके पिता जी जालम सिंह नेगी दादा ने दुगड्डा ढाकर के दौरान एक ऐसे पहलवान को पटखनी दे डाली जिसको देखकर पुलिस वाले भी उसके सामने नहीं फटकते थे। रिंगौण के लिए तो महावीर सिंह नेगी ताऊ जी (प्रेम सिंह नेगी व हीरा सिंह नेगी) भी खेल करते थे, बल्कि उनकी रिंगौण इतनी अद्भुत होती थी कि मेले में जाने वाले पूछा करते थे कि धारकोट का महावीर भी आया है मेले में या नहीं? लेकिन यही अद्भुत रिंगौण उनका काल ग्रास बन गई। कहते हैं नानसू गाँव के मेले में उन्होंने कई मिट्टी के ढेले सिर पर तोड़े व उन्हे प्रसाद की तरह खाना शुरू कर दिया। दो तीन तरबूज व एक परात जलेबी भी खा गए। लेकिन आज शायद उन्हें स्वर्लोक से बुलावा था। जलेबी खाने के बाद उन्हें प्यास लगई और वे जलेबी के ऊपर एक बाल्टी पानी पी गए। मेले से घर पहुँचने के बाद उनका पेट फ़ूलना शुरू हुआ और कुछ घंटे बाद वे स्वर्ग सिधार गए।
जगजीत सिंह कंडारी भाई साहब व मेरे पिताजी बंगाल इंजीनियरिंग में थे। एक बार चौड्यूं में धारकोट गाँव की  बालकुंवारी देवी की अठवाड़ थी।  मेले में सिलेथ और धारकोट का आपसी झगड़ा हो गया । जगजीत भाई गरजकर बोले- घर से कोई मेरी फौज की वर्दी लेकर आओ, तब देखते हैं कि कौन माई का लाल है जो लड़ने को तैयार होता है। कहते हैं झगड़ा उसी समय शांत हो गया। उस दौर में पढ़ा-लिखा समाज कम था। पटवारी क्या लोग पटवारी के चाकर तक से डरते थे, यहाँ तो वर्दी की बात थी। मेरे ताऊ आदित्यराम इष्टवाल जो तब 42 साल की उम्र में भर्ती हुए जब मेरे पिता जी चक्रधर प्रसाद इष्टवाल द्वितीय विश्व युद्ध लड़के के पश्चात सेवानिवृत्त होकर घर या गए थे। मेरे ताऊ जी ने सिलेथ गाँव के मेले में हो रही गुटबन्दी के बाद धारकोट वालों के साथ अपने नाखूनों से हि इतना बड़ा गड्डा खोद दिया की सब दुड़की लगाकर भाग खड़े हुए। कहा जाता है कि उन पर कोई वीर उतरता था। वे चीनी की बोरी कंधे पर रखकर ढाई तीन किमी की पैदल चढ़ाई चढ़कर बिना कहीं विश्राम गाँव पहुँच जाया करते थे। खाते समय उन्हें यह नहीं पूछना होता था कि और खाओगे। उन्ही के सबसे बड़े पुत्र योगम्बर प्रसाद इष्टवालदिलवर सिंह कंडारी भाईजी के भी अपने किस्से हैं। दोनों पुलिस में भर्ती हुए और पौड़ी पुलिस लाइन में ट्रेनिंग के दौरान उन्होंने लंगर से जब और रोटियाँ मांगी तो लँगरी ने प्रश्न किया- कितना खाते हो। क्या पेट नहीं भरता ? कहते हैं – उन्होंने कहा पेट तो जितना पाक है उससे भी नहीं भरेगा। लँगरी को गुस्सा आया और उन्होंने मेस मे आदेश जारी कर दिया कि जितना पक्का है इन दोनों के आगे रख दो, नहीं खाएंगे तो इनकी वर्दी उतारकर इन्हे गाँव वापस भेज दो। दोनों बैठे और पूरे लंगर की रोटी डाल सब्जी चट कर गए। जब रोटियाँ नहीं बची तो आटे की गोलियां ही  खाने लगे। लँगरी समझ गया कि इनमें किसी की आत्मा प्रविष्ठ  कर गई है। अत: क्षमा मांगकर शांत होने को बोला।
एक किस्सा बोल्या बोडि का भी है। बोडि का नाम याद आने पर साझा करूंगा। एक किस्सा हीरा सिंह नेगी भाईजी व योगम्बर भाई जी का भी है। और ऐसी किस्सागोई में  कई पुरखे शामिल हैं जिनमें मेरे दादा शंकर दत्त इष्टवाल  जी का नाम लेने से भी लोग डरते थे। वह चाय पीते थे क्योंकि ब्रिटिशकाल में वे दरोगा हुआ करते थे। उस समय लोग चाय को शराब जैसा नशा समझ करते थे। उन्होंने एक ब्रिटिश अफसर को घोड़े से नीचे इसलिए गिर दिया था क्योंकि उसने उनके अर्दली नानसू गाँव के किसी पुलिस कर्मी को गाली देकर घोड़े की चाबुक से कोड़े बरसा दिए थे। दादा तब भांग की चिलम पी रहे थे। उन्होंने जब यह सब देखा तो गुस्से से आग बाबुल हो गए। और घोड़े की लगाम खींच कर अंग्रेज अफसर को नीचे गिरा दिया। देखा वह शराब के नशे में धुत्त है व उसके सिर से खून टपक रहा है, तब उसे व उसके घोड़े को अन्य घोड़ों के साथ घुड़साल में बंद कर दिया, जहां उसकी मौत हो गई। दादा का केस मुकुंदी लाल वैरिस्टर ने लडा। छोटे दादा तब मेरठ छावनी में पुलिस महकमें मुंशी हुआ करते थे। कोर्ट में नानसू के उसी व्यक्ति ने दादा के खिलाफ गवाही दी जिसे बचाने के लिए दादा गए थे। इस केस को लड़ते-लड़ते छोटे दादा बलदेव प्रसाद इष्टवाल जी को देहरादून व थपलखेतू की जमीन बेचनी पड़ी। लेकिन ब्रिटिश कोर्ट ने जैसे ही मेरे दादा जी को कालापानी की साझा सुनाई, छोटे दादा यह दु:ख सहन न  कर सके और स्वर्ग सिधार गए। देश आजाद हुआ और मेरे दादा जी बाइज्जत बरी  हुए लेकिन लोग तब भी उन्हे खूनी समझ कर डरा  करते थे। बुजुर्ग बताते हैं कि उन्होंने हाथ में लट्ठ लेकर एक दिन व आधी रात में पूरा पंचायती आँगन तैयार करवाया था व यहाँ हमारी कुलदेवी बालकुंवारी की स्थापना  कारवाई थी।
विक्रम सिंह नेगी भाईजी के भी बहुत से किस्से हैं, कि वे कैसे सन 1961-62 के लड़ाई में अपनी कमांडो ट्रुप के साथ चीन में बंदी रहे। वे जवानी में इतने गुस्सेबाज थे कि बैल  या साँड  की चारों टांग पकड़  कर उठाकर पटक दिया करते थे। उनसे बड़े भगवान सिंह नेगी भाईजी का नाम सुनकर दिल्ली के चाँदनी चौक लाल किला क्षेत्र के बदमाशो की टांगे  कांपा करती थी। वे गरीबों व ड्राइवरों  के मध्य भगवान दादा के नाम से मशहूर थे। गबर सिंह नेगी चाचा नंबर एक के तैराक थे, वह अठवाड़ में भैंसे का सिर एक चोट में धड़ से अलग कर दिया करते थे।
धारकोट में शत्रुदास भाईजी पहले ऐसे औजी हुए जिन्होंने ढोल सागर प्रतियोगिता में नजीबाबाद में प्रथम स्थान प्राप्त किया। सिंधालाल शाह ब्वाडा काष्ठ व पाषाण कला के ऐसे शिल्पी थे जो मकान बनाते समय क्वाडा में ऐसा पत्थर बिछाते थे कि उसे हिला पाना भी मुश्किल होता था। उनकी बनाई पाषाण मूर्तियाँ आज भी गाँव के महादेव में नंदी  व चौड्यूं के बालकुंवारी मंदिर में देवी के रूप में विराजमान है।
ऐसे कई किस्से आज जो कपोल-कल्पनाएँ सी लगती हैं।  ये मेरे जीवन काल में घटित हैं और शायद इन्हें मेरी उम्र का कोई नकार भी नहीं सकता। आज न वह भीम नाचता दिखाई देता है न वह नाग देवता ही और न वह देवी व हनुमान, पांडव इत्यादि जिस से यह अनुमान तो लगाया ही जा सकता है कि हमारी देवतुल्य आत्माएं वर्तमान परिवेश में इतनी क्षीण व अपवित्र हो गयी हैं कि उनमें  देवता का वास होना अब मुश्किल है। धारकोट गॉव के लठमार कई पट्टियों में प्रसिद्ध थे जब भी वे किसी थात कौथीग या मेले में जाते तो उनकी सामूहिक शक्ति देखकर अन्य गॉव के लोग उनका रास्ता रोकने की हिम्मत नहीं करते थे।  एक बार नानसू गॉव के दलबीर सिंह नेगी (पधान जी) ने खैरालिंग (मुंडनेश्वर) में ध्वजा बागी (भैंसा) चढाने का प्रण कर लिया गॉव से सहयोग न पाकर वे हमारे घर आये,  और हमारे ताऊ जी से अपनी बात रखी।
इस बेहद कार्य को कैसे पूरा किया जाय यह सोचनीय बिषय था क्योंकि कफोलस्यूं से असवालस्यूं की सरहद लांघनी वो भी विजय पताका के साथ बहुत जटिल कार्य था। आखिर ताऊ जी ने हामी भरी और नानसू के दलजीत पधान की ऊँची ध्वजा लेकर चल पड़े। उनके साथ पूरा गॉव हो गया, असवालस्यूं के थोकदार इस बात से आश्चर्यचकित रह गए कि कोई भला कैसे यह दुस्साहस कर सकता है। उनमें कईयों को गुस्सा भी आया। आखिर नगर, मिरचोडा गाँव के असवाल थोकदारों व सूला गॉव के बगलाना नेगियों ने सामंजस्य बिठाया और उन्होंने ध्वज चढाने व बागी परिक्रमा की इजाजत दे दी, क्योंकि तब यह सन्देश गया था कि अब ध्वज-पताका आ गयी है तो किसी भी सूरत में यह खैरालिंग में चढ़ेगी।  यह सामंजस्य व समझदारी कफोलस्यूंअसवालस्यूं के आपसी रिश्तों के लिए बाद में बेहद शुकून दायक हुई। बर्षों बाद फिर ऐसा मौक़ा आया कि मेरे भाई साहब योगम्बर प्रसाद इष्टवाल ने थैर गॉव में पके एक भेली के प्रसाद को इस शर्त पर अकेले खा गए कि वे अकेले ही उनकी ध्वजा लेकर खैरालिंग तक जायेंगे। ध्वजा लगभग 40 से 50 मीटर लम्बी हुआ करती थी। कच्चे बांस की ध्वजा संभालना भी अपने आप में विकट कार्य है।  जिसे उन्होंने बखूबी पूरा किया और ध्वजा लादे अकेले खैरालिंग से पहले खाल में खड़ी कर मेले में चले गए। ढोल नगाडे व अन्य लोग बाद में पहुंचे।
कफोलस्यूं का धारकोट ग्राम जहाँ ऐतिहासिक समृद्धियों का गढ़ रहा है,  यहाँ नागराजा देवता का प्रभाव भी रहा है जो हमारा कुलदेवता भी है।  यहाँ नागराजा के बारे में किंवदंतियाँ  हैं कि सेम मुखेम से जब नागराजा इस क्षेत्र में भ्रमण पर आये तब उन्हें सिल्सू गॉव के शीर्ष में अपना स्थान ढूँढा वहां से नागराजा पौड़ी नागदेव बसे तब भ्रमण करते हुए जब वे कफोलस्यूं के धारकोट गॉव साधू भेष में पहुंचे व उन्होंने बिष्ट थोकदार से अपने लिए जगह मांगी तब बिष्ट थोकदार ने जगह देने से मना कर दिया तब वे पुसोला पधान के पास गये उन्होंने भी आश्रय नहीं दिया।  तब नागराजा ने उन्हें श्राप दिया कि आप इस गॉव की भूमि से खुद ही बेदखल हो जाएंगे।  आपका यहाँ नाम लेने वाला कोई नहीं होगा।  हुआ भी वही आज दोनों ही जातियां गॉव में नहीं हैं। बिष्ट जाति के संजय बिष्ट अपनी माँ की थाती-माटी में भले ही रह रहे हैं लेकिन वह जगह उनके नाना दर्शन सिंह नेगी की है।
मेरे पूर्वजों व गढ़वाल के छठे भू बंदोबस्त 1828 से प्राप्त जानकारी के अनुसार हमारे बूढ़ दादा के दादा नीलमणि व उनके पुत्र नेत्रमणि के बाद पदनचारी पुसोला जाति  के पास गई। इष्टवाल अंतिम पधान थे जिन्हें ब्रिटिशकाल में खैकर रखने का अधिकार था। हमारे इसोटी के बुजुर्ग बताते हैं कि पुसोला जाति के ब्राह्मणों से थी जोकि हमारे मवालस्यूं से ही यहाँ आकर बसे थे, उन्हे लेकर हम ही  धारकोट आए थे।  हम मवालस्यूं इसोटी के पधान परिवार से थे, और उस काल में पधान –पधान में ही जातिगत शादी विवाह होते थे। हमारे परदारा के दादा नीलमणि इष्टवाल ने तब यहाँ पुसोला ब्राह्मणों से बहुत बड़ी जागीर खरीद ली थी।  उन्हें साधूभेष में नागराजा ने फिर अपने लिए जगह मांगी। उन्होंने छूटते ही कहा,जहाँ आपको उचित लगे देख लीजिये।  तब नागराजा नागर्जा धार में अवतरित हुए और वहीँ आज उनका मंदिर भी है। आज भी मंदिर के ढ़या आर इष्टवाल जाति व ढ़या पार पुसोला जाति की जमीन है, जो वर्तमान में झंग्वर्या रावतों  की है।
कालान्तर में काल गति के साथ साथ वक्त परिस्तिथियाँ बदलती गई, नेत्रमणि इष्टवाल के बाद पधानचारी पुसोला और फिर थपलियाल लोगों के पास गयी।  तदोपरांत कंडारी अंतिम पधान हुए जो अल्मोड़ा अंतिम राजस्व जमा करने पहुंचे। अंतिम पधान के रूप में कंडारी धारकोट गाँव के पधान तब तक बने रहे जब तक पधानचारी प्रथा समाप्त नहीं हुई।
कफोला बिष्ट के कफोलस्यूं की बसागत ब्रिटिश काल में सन 1864 की जोत बही के हिसाब से आंकी जा सकती है। जबकि कफ़ोलाओं  का आगमन एक सदी और पूर्व माना जाता है लेकिन सर्क्याना गॉव के सकलानी पटवारी द्वारा यहाँ की जोत बही (1864)  तैयार की गयी थी और सिमतोली गॉव का आधा हिस्सा खातस्यूं में सम्मिलित हुआ। सन 1864 में खातस्यूंकफोलस्यूं का एक ही पटवारी होता था, जो सर्क्याना गॉव में निवास करता था। सरकारी आंकड़ों के हिसाब से अटकिन्सन व थपलियाल ने हिमालयन गजेटियर में इसका उल्लेख करते हुए लिखा है कि तब दोनों पट्टियों की कुल आबादी 3,844 दर्शाई है, जिनसे भू-राजस्व सदावर्त के तौर पर 1578 रूपये व गूंठ  राजस्व का 110 रूप्या वसूल किया गया। तब एक मात्र स्कूल इस क्षेत्र में थापली गॉव में थी जो चौथी कक्षा तक संचालित होती थी उस से आगे की पढ़ाई के लिए कांसखेत जाना पड़ता था।
(अनुरोध : यह सब संक्षेप में लिखा गया लेख है। किसी विद्वान या जानकार व्यक्ति के पास ऐसेही  कुछ अपने गाँव संबंधी आँकड़े और भी उपलब्ध हों तो बताते का कष्ट करें)
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