वीरान विरासत के सिपाही नेगियों का भूतवा महल। ईड़ा क्वाठा (किला) खंडहर में तब्दील ।
- इस खंडहर में आज भी अकेली रहती हैं इस हवेली की अंतिम वारिस सम्पति देवी।
- ठा. इंद्र सिंह नेगी ने भी नहीं छोड़ा अपना घर जबकि पूरा परिवार रहता है दिल्ली।
(मनोज इष्टवाल ट्रेवलाग 02 जून 1996 )
वैसे यायावरी ज्यादा तब सटीक लगती हैं जब आपकी जेब खाली हो, और हाथ में कलम कॉपी हो। खैर मेरा स्टाइल पहले भी निराला था आज भी निराला है। कड़की पीछा छोड़ने का नाम नहीं लेती व जिद आगे बढ़ने को प्रेरित करती रहती है। विगत 01 जून 1996 की रात्रि तल्ला गुराड स्थित वीरांगना तीलू रौंतेली के जीवंत क्वाठा में बिताई। जहां हमारे गांव की फूफू का ससुराल हुआ। उनके पुत्र मान सिंह गोर्ला गढ़वाल राइफल में सेवारत हैं।
यह गांव की सौंधी माटी की खुशबू ही कह सकते हैं कि फूफू जी को इस से पहले मैने कभी नहीं देखा था, जब तल्ला गुराड गांव आया और अपना परिचय दिया तब पता चला कि वीरांगना तीलू रौतेली के वंशजों में हमारी फूफू जी भी हैं, जिनका क्वाठा भित्तर भी हिस्सेदारी थी और अब उन्होंने अपना मकान क्वाठा के बाहर बना दिया है। श्री बलवंत सिंह बिष्ट व श्री त्रिलोक सिंह बिष्ट ताऊ जी की बहन फूफू जी ने बर्षों गुजर गए अपना मायका यानि मेरा गांव नहीं देखा। वह बहुत स्नेह से मुझे खाना खिलाती रही व अपने समकक्ष की जानकारी भी लेती रहती। उन में से कई लोग तो स्वर्ग भी सिधार गए। जो स्वर्ग सिधार गए जब मैं उनके बारे में बताता तब वह अफसोस जाहिर करती हुई कहती – हिरां दा… अर्थात हे राम जी।
आज भी क्वाठा की जिस परिवार को भी समय मिलता लिपाई घिसाई कर देते। आज फूफू जी की बहू यानि मान सिंह भाई की श्रीमती जी ही लिपाई घिसाई कर रही थी। मैंने निचले माले की वह काल कोठरी भी देखी जहां बंदी व्यक्ति को रखा जाता था। वह उस काल की जेल कही जाती थी। यहां हैड हिंगोड़ नाम हैडे की लकड़ी का बना एक अजीब सा भारी भरकम गेंडका मौजूद है । जिसकी लम्बाई लगभग 4 फिट व गोलाई ढाई से तीन फीट कही जा सकती है। इसके दोनों सिरों से करीब 6 इंच पहले दी छेद थे वे बिल्कुल मध्य भाग में गर्दन में हिस्से को हल्का सा अर्द्ध चन्द्राकार रखकर चिकना किया हुआ था। फूफू ने बताया कि उनके पुराने बताते हैं कि जिसे भी क़ैदखाने में रखा जाता था उसके दोनों हाथ कलाई तक उन छेदों से ऊपर निकाले जाते थे व बीच का हिस्सा गर्दन पर रखा जाता था। इस काल कोठरी में घुप्प अंधेरा है व दरवाजे की चौड़ाई बमुश्किल 3.5 फुट । यह शायद इसलिए रखी गयी थी कि दुर्दांत कैदी अगर किसी कारणवश बाहर भी निकलना चाहे तो निकल न पाए। खैर गोर्ला वंशजों के क्वाठा सम्बन्धी जानकारी मैं अपने लेख वीरांगना के वंशजो के इतिहास से जोड़कर दूंगा। बहरहाल आज सुबह यानि 2 जून 1996 को फूफू ने मुझे वीरांगना तीलू रौतेली की उस ससुराल के लिए रवाना किया जहां तीलू रौतेली की डोली कभी जा ही नहीं पाई।
मैं नन्दाखाल-सिमलगांव-मलथा-रैंसोली-चौड़खाल- बिंजोली-बैलोड़ी-बडोली-मरखोला-कुंडली-मालई- मोल्ठी-ककतुन-ईड मल्ला होते हुए ईड़ा तल्ला तक पैदल ही नापा। जेब की कंगाली जो थी आड़े हाथ आती ही है ।
बहरहाल वृतांत को संक्षेप करते हैं क्योंकि अब मैं इडा तल्ला यानि सिपाही नेगियो के क्वाठा जो पहुंच गया था। अगर मैं सडक मार्ग से आता तब मुझे एकेश्वर- बडोली होते आना होता।
इड़ा क्वाठा।
एकेश्वर विकास खंड के अंतर्गत पट्टी मोंदाड़स्यूं का सिपाही नेगियों की गौरव गाथा का यह किला (क्वाठा) आखिर खण्डहर में तब्दील हो ही गया है। ईड़ा गाँव सिपाही नेगी बड़े-बड़े पदों पर पूरे विश्व भर में फैले हुए हैं। ईड़ा गाँव का यह क्वाठा सतपुली-संगलाकोटी मार्ग पर रीठाखाल से लगभग 2 किमी. पहले सीला गाँव की सरहद से लगा हुआ है। यह सड़क मार्ग से लगभग 400 मीटर दूरी पर अवस्थित है। वर्तमान में अब भले ही यह ईड़ा तल्ला सिपाही नेगियों के वंशजों से शून्य हो गया है, फिर भी क्वाठा के अंदर इस जर्जर मकान को आज भी नहीं छोड़ पाई है इसकी अंतिम वारिस ठकुराइन श्रीमती सम्पति देवी।
यहाँ शिल्पकार मोहल्ला खूब पनपा है और एक कच्चा सड़क मार्ग बहुत पहले यहाँ तक बन चुका था। जो पीपल डाली से आकर क्वाठा में पहुंचता है। किसी जमाने मे इसी मार्ग से सिपाही नेगियो के घोड़े क्वाठा के अस्तबल तक पहुंचते थे।
ठाकुराइन सम्पति देवी बताती हैं कि कोटद्वार-देहरादून में इस विरासत के कई बाशिंदे हैं लेकिन सबने यहाँ नजर फेर दी है। अब यहाँ एक मात्र श्रीमती सम्पति देवी ही रहा करती हैं। वह भी इसलिए क्योंकि उनके पति का देहांत हो गया है व उनका बेटा नहीं है। उनकी बड़ी बेटी माया लखनऊ तथा दूसरी पुत्री शान्ति देहरादून रहती हैं।
(खंडहर होती ऐतिहासिक धरोहर ईड़ा किला)
सम्पति देवी बताती हैं कि बेटी ससुराल रहती हैं और वह नहीं चाहती कि वो किसी बेटी पर बोझ बने। इसलिए उनका एकमात्र जीवन यापन का जरिया यही किला है। जिसमे वह आज भी अकेली रहा करती हैं। मल्ला ईड़ा के इन्हीं के परिवार का हरी ओम नामक पागल देवर कभी-कभार महीने भर में एक आध घड़ी के लिए शायद आकर 32 कमरोँ के इस मकान में किसी एक में भी लेट जाया करता है। जबकि सम्पति देवी बिलकुल इस प्रवेश द्वार के दुमाले पर रसोई पकाती है व वहीँ रहती हैं। यह दुमाला टूटकर काफी जर्जर हो गया है।
वहीं ईड़ा तल्ला में क्वाठा बाहर रहने वाले इंद्र सिंह नेगी के चंडीगढ़ रहने वाले भाई गंगा सिंह नेगी बताते हैं कि आज भी सम्पति देवी इसी खंडहर में स्वस्थ मन चित्त से जीवन यापन कर रही हैं। गेस्ट रूम उसी के बगल में है। पूरा क्वाठा अंदर से एक बड़े आँगन से घिरा हुआ है। आँगन में कम् से कम एक हजार लोग खड़े हो सकते हैं। 22 कमरे दुमाले पर और लगभग इतने ही निचले माले पर है। आयताकार इस किले का विशाल बरामदा कई खंबा तिबारियों से घिरा हुआ था। किले के पीछे घुड़साल थी। मुख्य द्वार जो आपको दिखाई दे रहा है उस पर सशस्त्र प्रहरी के लिए स्थान बना था।
मल्ला ईडा के वाई एस नेगी उर्फ जसवीर सिंह नेगी बताते हैं कि 1984-85 तक इस क्वाठा के अंदर पांच छ: परिवार रहते थे वे क्वाठा पूरी तरह से सरसब्ज रहता था। धीरे-धीरे सब पलायन कर गए व मात्र सम्पति बहु ही इसमें रह गयी। उनका मकान क्वाठा के बाहर भी था लेकिन क्वाठा की जिम्मेदारी अब उन्ही के पास रह गयी है।
(ईड़ा किले का मुख्य द्वार)
हरिओम भले ही अपनी मानासिक स्थिति में पगला गए हों लेकिन आज भी उनकी बलिष्ठ काया देखते ही बनती है। उन्हें रोज रीठाखाल बाजार जाने की आदत है। जहां वह किसी का छोटा- मोटा काम करने के बदले एक या दो रुपये मांगते है ताकि चाय बन्द खा सकें। ठाकुराइन श्रीमती सम्पति देवी की आवाज सुनाई दी वह रसोई से कह रही थी। पता लगा लगभग 6 फुट लम्बा बांका जवान आया है। जो आते ही एक कमरे में जाकर जमीन पर लेट गया। दिन दोपहरी की तेज धूप जो थी। पसीने से तर्र-बतर कमीज उतार कर हरिओम थोकदार ने एक तरफ फेंकी तो मैंने देखा उनकी पीठ पर एक गरुड़ की आकृति गुदी हुई है।
इतनी देर में सम्पति देवी खाना बनाकर लाई, मशहूर की दाल, भात व कच्चा प्याज सलाद के रूप में। भूख उतनी ही चरम पर थी। लाल चावलों का भात व दाल जिसमे गुंदेले टमाटर का स्वाद था। दांत की डाढ़ तक पहुंच रहा था। आखिर मैंने उन्हें पूछ ही दिया कि माता जी ये बताइये- हरिओम जबकि पगला गये हैं फिर इन्होंने अपनी पीठ पर गरुड़ कैसे गुदवाया है।
उन्होंने लम्बी सांस लेते हुए कहा- बहुत लंबी कहानी है। हरिओम बचपन में बहुत हँसमुख व जवान होते होते बलिष्ठ व व्यवहार कुशल था। वह रूप रंग में बांका बिगरैला था। जाने किसने उसके दिमाग़ में भरा की वह मुम्बई जाए व वहां फ़िल्म का हीरो बने। वह घर से कुछ नगदी लेकर मुम्बई चला गया। कुछ साथ वहां फ़िल्म बनाने वालों के आगे पीछा भटका लेकिन सफलता नहीं मिली। बताया जाता है कि एक दिन वह मुम्बई के नामी गिरामी गुंडों के हाथ चढ़ गया और वह पेट पालने के लिये अवैध कारोबार करने लगा।
फिर रुक कर बोली- राम जाने यह बात कितनी सच है लेकिन लोग तो यही कहते हैं। फिर यह गिरफ्तार हुए तो इससे सच उगलवाने के लिये पुलिस ने इसे कई तरीके की प्रताड़नाएं दी। सच पता न लग पाया तो घर वालों को इतला दी। तब हरिओम को गांव लाया गया तो पता चला कि उन प्रताड़नाओं के चलते हरिओम पागल हो गया है। अब यह कहाँ कहाँ भटकता है कोई नहीं जानता लेकिन जब उसे ज्यादा भूख होती है तब वह यहां आ जाता है। मैं उसे खाना खिला देती हूं और वह इतने कमरों में किसी भी एक कमरे में बिना बिस्तर ही लेट जाता है।
श्रीमती सम्पति देवी की छोटी बिटिया शांति की शादी देहरादून हो चुकी है, माता जी बताती हैं कि जब शान्ति पेट में ही थी तभी उनके पति ठा. जयमळ सिंह की अक्सिडेंट में मौत हो गयी थी। बेटी व दामाद कई बार सम्पति देवी को कह चुके हैं क़ि छोड़ो यह घर , हमारे साथ देहरादून चलो लेकिन माता जी की जिद है कि इस किले में विवाह करके लायी गयी है। तब उनकी डोली आई थी अब अर्थी ही यहाँ से उठेगी।
(श्रीमती सम्पति देवी अपनी पुत्री माया व शान्ति के साथ मुख्य द्वार पर)
सम्पति देवी क्वाठा के बारे में बताया कि ये उन्हीं सिपाही नेगी का क्वाठा हुआ जिनके वंशजों में एक ठा. भवानी सिंह नेगी की गुराड़ गाँव के भूपू गोरला थोकदार की वीरांगना बेटी तीलू रौतेली से मंगनी हुई थी और वह शादी से पहले कत्यूरियों से कुमाऊँ में एक संघर्ष में वे शहीद हो गए थे। वो आगे बताती हैं कि हर किले की बुनियाद के साथ मानव बलि दी जाती थी उनके पूर्वजों ने भी इस किले की बुनियाद में दो मानव बलि दी हैं जो गढ़ नरेश के शत्रु थे। कुछ लोगों का कहना है कि उन्हें मुख्य द्वार के दोनों ओर जिंदा चुनवा दिया गया था।
(क्वाठा के मुख्य द्वार व क्वाठा अंदर की स्थिति)
वहीँ क्वाठा बाहर इंद्र सिंह नेगी एकमात्र व्यक्ति हैं जिन्होंने आज भी अपना गाँव नहीं छोड़ा। उनका पूरा परिवार दिल्ली व अन्य शहरों में रहता है। उनके एक भाई चंडीगढ़ में रहते हैं जिनका नाम गंगा सिंह नेगी है। गंगा सिंह नेगी बताते हैं कि उनका गाँव मुख्यतः सीला है जो सड़क के नीचे बसा है। वे जाति से जीना नेगी हैं और उनके पुरखों ने यह जमीन सिपाही नेगियों से ही खरीदकर यहाँ अपनी बसागत की है। यह आश्चर्यजनक है कि जीना नेगी मूलतः कत्यूरी ही हैं जिन्हें युद्ध में बंधक बनाकर लाया गया होगा व सीला गांव में बसाया गया होगा।
वहीँ कुसुम बिष्ट बताती हैं कि ईड़ा उनका मायका है व उनके पिता स्व. विक्रम सिंह नेगी बहुत पहले आकर कोटद्वार बस गए थे। गंगा सिंह नेगी उनके चाचा हुए उनके अलावा उनके चन्द्र सिंह व इंद्र सिंह भी चाचा ही हैं व इन सभी के परिवार हर साल छुट्टियों में गाँव जाया करते हैं। वह ससुराल की बेटी हैं इसलिए कम जा पाती हैं लेकिन मायका सभी बेटियों का प्यारा होता है। उन्हें भी दुःख होता है कि इतनी बड़ी ऐतिहासिक धरोहर इस तरह टूट कर खंडहरों में तब्दील हो रही है।
फोटो साभार- संगीता।
वीरांगना तीलू रौतेली के मंगेतर ठा. भवानी सिंह नेगी की मौत युद्ध स्थल में ही हो गयी थी और यह इन वीरों का इतिहास ही नहीं बल्कि गढ़वाल का इतिहास भी रहा कि मंगेतर यदि स्वर्ग सिधार जाए तो वह भी विधवा कहलाती है। आपके बता दें कि सिपाही नेगियों का यह कुनवा गुरदासपुर से आकर पौड़ी गढ़वाल के ईड़ा नामक स्थान पर आ बसा। ये दो भाई हुए जिनमें बड़े भाई का नाम मानमनोहर सिंह व दामदामोदर चंद का नाम प्रमुखता से आता है। इन्हीं में से एक के पुत्र राजा दुनी चंद ने मल्ला ईड़ा गुराड़स्यूं में अपनी बसागत की। आज भी इनका मल्ला ईड़ा में हवेली है जिसमें मात्र एक परिवार ठा. घियाल सिंह नेगी रहते हैं। मैंने तय कर लिया है कि अब आज रात्रि विश्राम या तो यही करूँगा या फिर मल्ला इड़ा की हवेली में ठाकुर घियाल सिंह नेगी के यहां रहूँगा।
इन्हीं के वंशज कोटद्वार भावर के दुर्गापुरी क्षेत्र में रह रहे ठा. प्रेम सिंह नेगी बताते हैं कि राजा दुनी चंद के दो बेटे हुए जिनमें ठा.भगोत चंद नेगी व ठा. जसोध सिंह नेगी हुए । आपसी कलह के चलते दोनों ने सरहद का बंटवारा घोड़ा दौड़ाकर किया। ठा. भगोत सिंह ने चौथी तथा जसोधसिंह ने जलन्यूं तक घोड़े से अपनी सीमा का क्षेत्रफल तय किया। ठा. जसोध सिंह के तीन पुत्रों में सबसे बड़े ठा. भवानी सिंह नेगी हुए जिनकी मंगेतर चौंदकोट गढ़ के गढ़पति भूपू गोर्ला की पुत्री वीरांगना तीलू रौतेली हुई जिसने इतिहास में स्वर्णिम आखरों में अपना नाम दर्ज करवाया।
तल्ला ईड़ा के अपने वंशजों की जानकारी देते हुए ठा. प्रेम सिंह बताते हैं कि कालान्तर में क्वाठा भित्तर लगभग उनके 15 परिवार रहते थे जिनके सदस्यों की संख्या 100 से अधिक हुआ करती थी, जिनमें ठा. गोबिंद सिंह नेगी, बलबीर सिंह नेगी, श्रीधारी सिंह नेगी, हजारी सिंह नेगी, थाम सिंह नेगी, ठाकुर सिंह नेगी, जसवंत सिंह नेगी, बलवंत सिंह नेगी, बृजमोहन सिंह नेगी, सुरेन्द्र सिंह नेगी, भारत सिंह नेगी व हरेन्द्र सिंह नेगी प्रमुख हुए। आज ये सारे परिवार साधन सम्पन्न हैं और सब देश विदेशों में विभिन्न प्रतिष्ठित संस्थानों एवं स्थानों में रह रहे हैं। ठा. हजारी सिंह नेगी के पुत्र ठा. जयमल सिंह ही वो अंतिम व्यक्ति थे जो इस किले में रहते थे व उनकी विधवा श्रीमती सम्पति देवी आज भी इस खंडहरनुमा किले में रहा करती हैं
ठा. प्रेमशंकर सिंह नेगी कहते हैं कि वे ठा. भारत सिंह नेगी के पुत्र हैं व उनके एक अन्य भाई है ठा. किशोर सिंह नेगी व ये दोनों ही कोटद्वार भावर में रहते हैं। इसी खानदान से ही एक परिवार ऐसा भी है जो भारतीय सेना में प्रतिष्ठित पदों पर रहे हैं जिनमें कर्नल गौर सिंह, कर्नल अरविन्द सिंह, कर्नल राजकुमार इत्यादि प्रमुख हैं।
फोटो साभार – संगीता।
बहरहाल आज यह किला जिस दुर्दशा में खंडहर-खंडहर हो रहा है, उसके लिए हम सभी जिम्मेदार हैं। क्योंकि पहाड़ का जनमानस कभी उठा है तो कभी गिरा है। जब भी जमीनी सतह को छूकर इंसान ऊँचाइयों की ओर बढ़ा है, उसने अतीत के काले आखरों को याद करना छोड़ दिया लेकिन यहाँ एक ऐसा इतिहास समावेशित है जिसने तलवार की धार पर गढ़-कुमाऊं में अपने आखरों को स्वर्णाक्षरों में दर्ज किया। फिर ऐसा क्या हुआ कि अपने सुनहरे दौर की अंतिम यादगार इस किले को यूँ टूटने के लिए ये सब छोड़ गए। आज भी वक्त है इसे सजाया संवारा जा सकता है।
माताजी श्रीमती सम्पति देवी कहती हैं कि ऐसा नहीं है कि इन ठाकुरों ने अपने वजूद को आज भी मिटने दिया है लेकिन उन्हें दुःख इस बात का है कि जिन आँखों ने इस क्वाठा के समृधि के चरम तक पहुँचने वाले दिन देखा हो। जहाँ ख़ुशी की किलकारियां गूंजती रही हों,आज वही बंजर वीरान क्वाठा तिल-तिल उनकी आँखों के आगे दम तोड़ रहा है। काश…कोई होता जो मेरे पुरखों की इस धरोहर को संवार लेता तो मैं शुकून से मर सकती। उनकी आँखें वीराने की आह से निकलकर जब वर्तमान में लौटी तो सजल थी!
ठाकुराइन सम्पति देवी माता जी के हाथ में गजब का स्वाद है। वे गुन्देला (छोटे टमाटर) की जब चटनी बनाती है तो उससे उठती महक का कोई जबाब नहीं । और अगर आपने उनके हाथ का बनाया चैंसा खा लिया होता तो जिंदगी भर वह स्वाद आप भुला नहीं पाते। क्योंकि मैंने आज चैंसा, चटनी, मसूर की दाल, भात व रोटी जो खाई हैं उनके हाथ से बनी।
वर्तमान स्थिति।
वर्तमान यानि आज 15 सितंबर 2021 को लगभग 25 बर्ष पूर्व के अनुभवों को समेटकर सामने रखते हुए यह कहना चाहूंगा कि मैं 1996 के बाद लगभग 4 बार इस क्वाठा में गया व गेस्ट रूम में रुका। उस दौर में मैं उत्तराखण्ड के इतिहास में थोकदारों की भूमिका नामक सब्जेक्ट पर रिसर्च कर रहा था। इसलिए मेरा यहाँ कई बार आना जाना लगा रहा। दुर्भाग्य से मेरी वह समस्त शोध पांडुलिपि किसी ने चुरा ली व् सालों की मेहनत यूँही बर्बाद हुई। अब सिर्फ मोटा-मोटा जो याद है उसे ही पिरोकर आपके समक्ष रख रहा हूँ।
कहा तो यह भी जाता है कि तत्कालीन कांग्रेसी नेता व वर्तमान इन बीजेपी नेता व पर्यटन धर्मस्व, सिंचाई व लोकनिर्माण मंत्री सतपाल महाराज ने इस किले की मुंहमांगी रकम देने की बात भी कही थी, लेकिन इसके वंशजों ने नकार दिया। आज जाने वह वंशज कहाँ गए जिन्होंने वीरों की उस ऐतिहासिक धरोहर को यूँहीं बर्बाद कर दिया। काश….सरकार इसे स्वयं पहल कर हस्तगत करती व इसका जीर्णोद्वार कर उन वीरों के अस्तित्व को उसी तरह जीवंत बनाए रखती जैसे राजस्थान व हिमाचल सहित अन्य प्रदेशों के राजा महाराजाओं के किले/ गढ़ हैं जहाँ दुनिया भर के पर्यटक हर साल पहुँचते हैं।