Saturday, July 27, 2024
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दो पीढ़ियों की अलग-अलग सोच के ताने बाने बुनती गढवाळी फीचर फिल्म “खैरी का दिन।” देहरादून के सिल्वर सिटी में सुबह 10:30 बजे से..!

◆ देहरादून के सिल्वर सिटी में लगी गढवाळी फीचर फिल्म “खैरी का दिन” पहला शो हाउसफुल।
(मनोज इष्टवाल)

इंटरबल का समय और बाहर निकलते ही मैंने सुप्रसिद्ध फ़िल्म निर्देशक अनुज जोशी के कांधे में हाथ रखा व फ़िल्म सम्बन्धी चर्चा में मशगूल हो गए। तब तक इस फ़िल्म की अभिनेत्री गीता उनियाल आई और बोली- सर, मुझे पता है आप आये हैं तो स्वाभाविक है हमें फ़िल्म समीक्षा पढ़ने को मिलेगी। उम्मीद है आप हमारा उत्साह बढ़ाएंगे। आप जानते ही हैं कि एक प्रोड्यूसर डायरेक्टर एक गढवाळी फ़िल्म को बनाने से पहले कितना विचार मन में लाता होगा व अपनी कमाई का सर्वस्व इसमें झोंक देता है।

मैं गीता उनियाल की भावनाओं की हृदय से कद्र करते हुए फ़िल्म के प्रोड्यूसर डायरेक्टर अशोक चौहान के साहस व आत्मबल की प्रशंसा करूँगा जिन्होंने फिर से एक साहसिक फैसला लेकर इस फ़िल्म की पटकथा, निर्देशन व निर्माण किया है। यों तो अशोक चौहान का गढवाळी सिनेमा से बर्षों पुराना नाता है। पूर्व में फीचर फिल्म औंसी की रात, गंगा का मैती, रामी बौराणी, जुन्याली रात जैसी फिल्मों में बतौर अभिनेता उन्होंने प्रतिभा का लोहा मनाया है।उसके बाद उन्होंने अपने होम प्रोडक्शन “माहेश्वरी फ़िल्म” के बैनर तले विभिन्न ऑडियो वीडियो अल्बम व फिल्में व फीचर फिल्में बनानी शुरू कर दी हैं।

अब जबकि उत्तराखंड के राजधानी में महेश्वरी फिल्म्स के बैनर तले निर्मित उत्तराखंडी फीचर फिल्म “खैरी का दिन” ने सिनेमाघरों में दस्तक दे दी है। तब लाजिम है इस पर फ़िल्म समीक्षक अलग अलग एंगल से फ़िल्म समीक्षा शुरू करेंगे। इससे पूर्व इस फ़िल्म के कोटद्वार में प्रदर्शन के दौरान इसे दर्शकों का बेसुमार प्यार फ़िल्म को मिला है।

खैरी का आंसू (फ़िल्म समीक्षा)।
फ़िल्म की समीक्षा से पहले आप सबको यह बता दूँ कि घर से जब आप फ़िल्म देखने जाएं तो यह सोचकर अवश्य जाएं कि कोई भी गढवाळी फ़िल्म देखने से पूर्व यह माइंडवाश कर लें कि गढवाळी फ़िल्म आम हिंदी फिल्म के सम्पूर्ण बजट का सवां हिस्से में निर्मित अर्थात हिंदी फिल्मों के सम्पूर्ण बजट के 1% बजट में निर्मित होती हैं व जितना हिंदी फिल्म में काम करने वाले एक सहायक कलाकार पैंसा मिलता है उतने में एक सम्पूर्ण गढवाळी फ़िल्म बनती है। फिर भी बिरला ही प्रोड्यूसर होता है जो गढवाळी फ़िल्म बनाकर नफा कमाता होगा वरना आजतक की 90 प्रतिशत गढवाळी फिल्मों ने इस इंडस्ट्री से नुकसान ही उठाया है।

अशोक चौहान के निर्देशन में सजी यह फ़िल्म मूल रूप से दो पीढ़ियों के बदलते परिवेश व संस्कारों की कथा-व्यथा सुनाती एक पारिवारिक फ़िल्म कही जा सकती है। जहां एक अध्यापक अपने वसूलों पर जिंदा रहकर अपने सौतेले भाइयों को पढा लिखाकर काबिल बनाता है, वहीं दूसरी ओर एक भ्रष्ट ग्राम प्रधान के घोटालों को उजागर करती यह फ़िल्म समाज मे दोहरा संदेश पहुंचाने का काम करती है। भले ही फ़िल्म के अंदर  दो तीन दृश्य ऐसे फिल्माए गए हैं जो अपच से लगते हैं व कॉस्ट्यूम व मेकअप में कुछ पैर 15 साल बाद भी जवान ही दिखाई देते हैं , लेकिन फ़िल्म आपको पर्दे से बांधे रखने के लिए मजबूर करती है।

इन्टरबल के बाद फ़िल्म आपके अन्तस् को झकझोरना शुरू कर देती है। इस हाफ में आपको वर्तमान पीढ़ी की सोच में शामिल सामूहिक परिवार की बात को खारिज करना, विवाह के बाद रिश्तों की टूटती डोर व पढ़ लिखकर बिन पूछे निर्णय लेना जैसे मुद्दे सामने दिखाई देते हैं, जो वर्तमान पीढ़ी की सोच को दर्शाती है। वहीं पूर्व की पीढ़ी आज भी अपने आदर्शों पर कायम रहकर परिवार हित मे त्याग की परिपाटी को दर्शाती विभिन्न मुसीबतों को झेलती हुई आगे बढ़ती जाती है।

सेकेंड हाफ में ग्राम प्रधान का अभिनय निभा रहे खलनायक रमेश रावत, मुख्य किरदार निभा रहे राजेश मालगुड़ी व गीता उनियाल ने अपने अभिनय से सभी के हृदय को झकझोरने का हर सम्भव प्रयास किया वहीं छोटी बहन (अरुणा) का किरदार निभा रही कलाकार ने शानदार डायलॉग डिलीवरी से अपने अभिनय के साथ पूरा पूरा इंसाफ किया। इस फ़िल्म में फाइट सीन बिल्कुल बॉलीवुड फ़िल्म जैसे थे। शायद इसका बड़ा कारण नई जनरेशन को ध्यान में रखकर फ़िल्म की पटकथा लिखा जाना भी है। खलनायक की भूमिका निभा रहे रमेश रावत की रुआबदार आवाज के साथ उनके कैरेक्टर पर फिल्माए गए एक आध दृश्य अगर छोड़ दिये जायें तो उनकी उपस्थिति पूरी फिल्म में कमाल की थी। मुख्य अभिनेता राजेश मालगुड़ी के रोने वाले दृश्य एकाध जगह असहज से लगे लेकिन उन्होने फ़िल्म पटकथा के आधार पर एक आदर्श चरित्र के तहत शानदार अभिनय किया। मुख्य अभिनेत्री गीता उनियाल शुरू से लेकर अंत तक अपने किरदार को बखूबी सम्भाले रखी लेकिन शादी के बाद के प्रेम प्यार के शॉट्स को फिल्माए जाते समय दोनों की ट्यूनिंग में कहीं न कहीं कुछ ऐसा नजर आता दिखता है जो तकनीकी या कैमरे के हिसाब से फिल्माए जाने के समय आंखों की बारीकियां पड़ते हुए चूक गए।

बहरहाल एक परिवार के बीच हो रहे उतार चढ़ाव से जूझती आगे बढ़ती यह फ़िल्म जहां संयुक्त परिवार की कसौटी पर खरी उतरने का संदेश प्रेषित करती है वहीं बदलते परिवेश के आधार पर वर्तमान युवाओं के मध्य यह संदेश छोड़ने में भी कामयाब रहती है कि बाहरी बहकावे में आकर हम कब क्या खो देते हैं, वह समझ रखनी आवश्यक है। फ़िल्म में पहाड़ की चरमराई स्वास्थ्य व्यवस्थाओं के साथ बढ़ते युवा कदमों की तरक्की और आधुनिक सभ्यता के रूप रंग को संजोने का यत्न किया गया है।

पूरी फिल्म की वस्त्राभूषण सज्जा यही बताती है कि यह फ़िल्म पिछले 30 सालों से लेकर वर्तमान को केंद्रित कर बनाई गई है। पहाड़ के बदलते परिवेश के साथ साथ आये बदलाव में बंजर खेत तो दिख रहे हैं लेकिन पलायन की भेंट चढ़ चुके मकानों के खंडहर व मुख्य नायक नायिका के घर की दशा दिशा एक सी लगी। संस्कृति के रूप में सामूहिक भोज का एक दृश्य जरूर मीठे भात के प्रति दिल ललचाता है।

अगर आप इस फ़िल्म को हिंदी फिल्म की तरह तकनीकी हिसाब से देखना पसंद करेंगे तब आपको यह जरूर सोचना होगा कि दोनों के बजट में कितना भारी अंतर होता है। यह फ़िल्म यकीनन पूरे परिवार के साथ देखने के लिए बनी एक ऐसी सामाजिक फ़िल्म है जो टूटते बिखरते व दरकते रिश्तों की दरार को भरने का काम कर सकती है। यह फ़िल्म उन नव विवाहित जोड़ों के लिए भी बेहतर साबित होगी जिन्हें अभी गृहस्थ जीवन को ढालने का यत्न करना है क्योंकि इस फ़िल्म से उन्हें इस बात का अवश्य आभास होगा कि बन्द मुट्ठी लाख की..खुल जाए तो खाक की। इस फ़िल्म में जहां 50 की उम्र पार कर चुके प्रवासी गढवाळी अपना अतीत देख कर आंसू की कुछ बूंदे हृदय में उभरती टीस को शांत करने के लिए बहा सकते हैं, वहीं लकडपन की उम्र आंसुओं की कीमत का आभास कर सकता है। मेरे हिसाब से यह सब इस फ़िल्म की समीक्षा तो नहीं कही जा सकती क्योंकि इसमें तकनीकी पक्ष में कैमरा, एडिटिंग, संगीत, पार्श्व संगीत, डॉयलाग, स्क्रिप्टिंग, दृश्य फिल्मांकन के लिए चुने गए स्थान सहित दर्जनों कार्य होते हैं लेकिन इतना जरूर है कि आप जो पैंसे टिकट पर खर्च करेंगे वह आपको निराश नहीं करेंगे।

फिल्म में राजेश मालगुडी, गीता उनियाल, पूजा कला और पुरुषोत्तम जेठुरी मुख्य किरदार में दिखे, इसी के साथ फिल्म में अन्य कलाकार खलनायक की भूमिका में रमेश रावत, सतेंद्र रावत, रीता गुसाईं भंडारी, निशा भंडारी, रणवीर सिंह चौहान, सुभांगी देवली, गोकुल पंवार, विक्रम बिष्ट, इंद्रा भट्ट, रोशन उपाध्याय ,सतेश्वरी भट्ट,आयुष ममगाईं, प्रज्ज्वल ममगाईं भी नजर आए, जिनके अभिनय ने सबका दिल जीत लिया।

इस फिल्म के गीतों में आप उत्तराखंड की सुप्रसिद्ध मीना राणा, मंजू सुन्द्रियाल, गायक गजेंद्र राणा, प्रियंका पंवार, धूम सिंह रावत, वीरेंद राजपूत , जितेंद्र पंवार, सूर्यपाल श्रीवान, राकेश राज की मनमोहक आवाज़ को सुनेंगे, गीतों को डीएस भंडारी द्वारा लिखा गया है, जिन्हें संगीत अमित वी कपूर ने दिया है। फिल्म में कैमरा वर्क युवी नेगी युद्धवीर ने किया है।

एक अनुरोध आप सभी से करना चाहूंगा कि फ़िल्म देखने सिनेमाघर तक अवश्य जाएं ताकि आने वाले समय में अशोक चौहान जैसे फ़िल्म निर्माता डीएस पंवार कृत दूसरी फिल्म निर्माण के लिए पूरी मजबूती के साथ आगे बढ़ सकें। यूट्यूब में कब फ़िल्म आएगी इसका इंतजार करने के स्थान पर हम सिनेमा हॉल जाकर अपनी भागीदारी निभाएं।

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35 बर्षों से पत्रकारिता के प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक व सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, पर्यटन, धर्म-संस्कृति सहित तमाम उन मुद्दों को बेबाकी से उठाना जो विश्व भर में लोक समाज, लोक संस्कृति व आम जनमानस के लिए लाभप्रद हो व हर उस सकारात्मक पहलु की बात करना जो सर्व जन सुखाय: सर्व जन हिताय हो.
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